सुप्रीम कोर्ट ने एल्गार परिषद-भीमा कोरेगाँव हिंसा मामले में मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा को 15 अक्टूबर तक गिरफ़्तारी से राहत दे दी है। यानी उस तारीख़ तक उनकी गिरफ़्तारी नहीं हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट में बॉम्बे हाई कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ नवलखा ने याचिका दायर की है और अपने ख़िलाफ़ दायर एफ़आईआर को रद्द करने की माँग की है। इस मामले की सुनवाई से सुप्रीम कोर्ट के पाँच जजों ने ख़ुद को अलग कर लिया है। अब जस्टिस अरुण मिश्रा और दीपक गुप्ता की बेंच सुनवाई कर रही है।
सुनवाई के दौरान जस्टिस अरुण मिश्रा और दीपक गुप्ता की बेंच ने महाराष्ट्र सरकार को निर्देश दिया कि जाँच के दौरान नवलखा के ख़िलाफ़ इकट्ठे किए गए सबूतों को अगली सुनवाई के दिन यानी 15 अक्टूबर को पेश करे।
गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट के जज एस रवींद्र भट ने ख़ुद को इस मामले से अलग कर लिया था। अब तक जिन 5 जजों ने अलग-अलग समय में नवलखा की सुनवाई से ख़ुद को अलग किया है उसमें मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई भी शामिल हैं। इसके अलावा जस्टिस एन. वी. रमण, एन. सुभाष रेड्डी और बी. आर गवई ने भी बेंच से ख़ुद को अलग कर लिया था।
नवलखा की याचिका पर पहली बार सुनवाई 30 सितंबर को होनी थी। उस खंडपीठ की अध्यक्षता रंजन गोगोई कर रहे थे और उसमें एस. ए. बोबडे और एस. अब्दुल नज़ीर भी थे। जस्टिस गोगोई ने ख़ुद को यह कह कर अलग कर लिया था कि उनके पास समय नहीं है। वह उस पाँच-सदस्यीय संवैधानिक खंडपीठ की अध्यक्षता भी कर रहे हैं, जो अयोध्या मामले की रोज़ाना सुनवाई कर रहा है। वह इसी साल 17 नवंबर को रिटायर हो रहे हैं।
जस्टिस लोकुर ने उठाए सवाल
मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा के मामले की सुनवाई से एक के बाद एक 5 जजों के ख़ुद को अलग कर लेने से नया सवाल उठ खड़ा हुआ है। वरिष्ठ जज मदन लोकुर का मानना है कि किसी भी मामले की सुनवाई से किसी जज के ख़ुद को अलग करने की एक प्रक्रिया तय होनी चाहिए। लोकुर ने इसकी वजह बताते हुए कहा कि आजकल इस तरह के मामले बढ़ रहे हैं, इसलिए इसके लिए भी एक नियम होना चाहिए ताकि कोई जज ख़ुद को किसी मामले से अलग करे तो बेंच के दूसरे जजों के लिए असहज स्थिति न पैदा हो।
बता दें कि हाई कोर्ट ने 13 सितंबर को नवलखा को अग्रिम ज़मानत देते हुए दो हफ़्ते तक उनकी गिरफ़्तारी पर रोक लगा दी थी। नवलखा के ख़िलाफ़ प्राथमिकी भीमा कोरेगाँव मामले में दर्ज की गई है। इस मामले में दूसरे अभियुक्त जन कवि वर वर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फ़रेरा और वरनों गोंजाल्विस हैं।
क्या है भीमा कोरेगाँव का मामला?
हर साल जब 1 जनवरी को दलित समुदाय के लोग भीमा कोरेगाँव में जमा होते हैं, वे वहाँ बनाये गए 'विजय स्तम्भ' के सामने अपना सम्मान प्रकट करते हैं। यह विजय स्तम्भ ईस्ट इंडिया कंपनी ने उस युद्ध में शामिल होने वाले लोगों की याद में बनाया था। इस स्तम्भ पर 1818 के युद्ध में शामिल होने वाले महार योद्धाओं के नाम अंकित हैं।
ये वे योद्धा हैं जिन्हें पेशवाओं के ख़िलाफ़ जीत मिली थी। कुछ लोग इस लड़ाई को महाराष्ट्र में दलित और मराठा समाज के टकराव की तरह प्रचारित करते हैं और इसकी वजह से इन दोनों समाज में कड़वाहट भी पैदा होती रहती है।
2018 को चूँकि इस युद्ध की 200वीं वर्षगाँठ थी लिहाज़ा बड़े पैमाने पर लोग जुटे और टकराव भी हुआ। इस सम्बन्ध में शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के अध्यक्ष संभाजी भिडे और समस्त हिंदू अघाड़ी के मिलिंद एकबोटे पर आरोप लगे कि उन्होंने मराठा समाज को भड़काया, जिसकी वजह से यह हिंसा हुई। भिडे, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक हैं और एकबोटे भारतीय जनता पार्टी के नेता और विधायक का चुनाव लड़ चुके हैं। इसी हिंसा के मामले में गौतम नवलखा को भी अभियुक्त बनाया गया है।
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