चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि वह राजनीतिक दलों के द्वारा मुफ्त उपहार देने के वादों पर रोक नहीं लगा सकता। चुनाव आयोग ने यह जवाब बीजेपी के नेता अश्विनी उपाध्याय की ओर से दायर याचिका के जवाब में दिया। इस याचिका में कहा गया था कि राजनीतिक दलों के द्वारा जनता के पैसे का दुरुपयोग किया जा रहा है और राज्य कर्ज के बोझ तले दब रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने जनवरी में इस मामले में हुई सुनवाई में कहा था कि यह एक गंभीर मुद्दा है और ऐसे वादों का बजट नियमित बजट से ज्यादा हो रहा है।
अदालत ने तब केंद्र सरकार और चुनाव आयोग को नोटिस भेजकर उनसे इस मामले में जवाब देने के लिए कहा था।
चुनाव आयोग ने कोर्ट से कहा है कि वह चुनाव में जीत हासिल करने वाले राजनीतिक दल के द्वारा सरकार गठन के बाद बनाई जाने वाली नीतियों और फैसलों को नियमित नहीं कर सकता। आयोग ने कहा कि कानून में इस तरह के प्रावधान नहीं हैं और अगर वह कोई कार्रवाई करेगा तो यह ताकत का दुरुपयोग होगा।
आयोग ने शीर्ष अदालत से कहा कि अदालत राजनीतिक दलों के लिए गाइडलाइन तैयार करे।
चुनाव आयोग ने कहा कि मुफ्त उपहारों वाली नीतियां क्या आर्थिक रूप से ठीक हैं और या इनसे किसी राज्य की आर्थिक हालत पर कोई असर पड़ता है, इसे उस राज्य के मतदाताओं द्वारा ही तय किया जाना चाहिए।
अश्विनी उपाध्याय की ओर से दायर याचिका में मांग की गई थी कि चुनाव आयोग को निर्देश दिए जाएं कि ऐसे राजनीतिक दल जो जनता के पैसे से बेवजह के मुफ्त उपहार बांटते हैं उनके चुनाव चिन्ह को सीज कर दिया जाना चाहिए और उनका पंजीकरण खत्म कर दिया जाए।
हाल में हुए विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी ने कई राज्यों में हर महीने 300 यूनिट बिजली मुफ्त देने और 18 साल से ऊपर की उम्र की महिलाओं को 1000 रुपए प्रति महीना देने का वादा किया था। तब भी यह सवाल उठा था कि कर्ज के बोझ तले दबे यह राज्य इतना पैसा कहां से लाएंगे।
कुछ दिन पहले भारत सरकार के सचिवों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चेताया था कि मुफ्तखोरी की व्यवस्था राज्यों को दिवालिया कर सकती है। इसके बाद फिर से यह सवाल उठा था कि चुनाव जीतने के लिए जो मुफ्त वादों के हथकंडे राजनीतिक दलों के द्वारा अपनाए जा रहे हैं क्या उनसे राज्यों की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो सकती है।
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