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रामलीला मैदान में क्यों नहीं आए रामलला के भक्त?

तमाम दावों के बाद भी मोदी के पास दिखाने को कुछ ठोस नहीं है।अगले चुनावों में मोदी कार्ड फ़्लॉप हो सकता है, यह आशंका बढ़ गई है। इसलिए राम की याद हो आई है। रामभक्तों को यह दिख रहा है। वह समझ रहा है कि राम मंदिर के नाम पर निशाना कुर्सी है। लिहाज़ा वह निराश है। अब भीड़ बनने को तैयार नही हैं। भगवान के नाम पर तो जान देगा, इंसान के लिए नहीं। इसलिए फ्लॉप शो।
आशुतोष
राम मंदिर का मुद्दा एक बार नए सिरे से खड़ा करने की जमकर कोशिश की जा रही है लेकिन कामयाबी अभी कोसों दूर है। दिल्ली के रामलीला मैदान में दावा किया गया था, 5 से 10 लाख की भीड़ इकट्ठा करने का, जमा हुए कुछ हज़ार ही। हालाँकि सड़कों पर काफ़ी भीड़ इकठ्ठा हुई, यह दिखाने का प्रयास कुछ टीवी चैनलों ने ज़रूर किया।
कहा यह भी गया कि रामलीला मैदान में रामभक्तों का हुजूम उमड़ पड़ा। पर जिन लोगों ने दिल्ली के रामलीला मैदान में भीड़ देखी है, वे जानते हैं कि भीड़ में न तो  संख्या थी और न ही वो जुनून जो 1992 के पहले रामभक्तों में दिखता था। वैसा पागलपन अब शायद कभी दिखे भी न। फिर भी रामलीला मैदान से हुंकार भरी गई। भड़काऊ भाषण दिए गए। सरकार और सुप्रीम कोर्ट को चुनौती देने वाला लहज़ा दिखा पर ईमानदारी नहीं दिखी, जो ऐसे आयोजनों की जान होती है।

निकल गई दावों की हवा

25 नवंबर को दावा तो यह किया गया था कि पूरे देश में राम मंदिर निर्माण के लिए एक तूफ़ान खड़ा किया जाएगा। कहा गया कि रामभक्तों के सब्र का बाँध अब टूटने वाला है। अब वह ज़्यादा इंतज़ार नहीं कर सकता। वह अब आर-या-पार की लड़ाई के मूड में है और यह लगा कि वह अपनी ही केंद्र और राज्य की सरकारों को हिला देगा। पर ऐसा दिखा नहीं। पहला सुबूत पहली दिसंबर को मिला, जब अयोध्या में हज़ारों की भीड़ इकट्ठा करने का दावा टाँय-टाँय फिस्स हो गया। कुछ सौ लोग भी राम के नाम पर निकाली गई यात्रा में नहीं जुटे।
फिर कहा गया, जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ेगी, लोग आने लगेंगे। यह भी नहीं हुआ। फिर 6 दिसंबर को अयोध्या में बड़े स्तर पर कारसेवा का उद्घोष किया गया था। लगा कि इस बार तो लाखों लोग ज़रूर इकट्ठा हो जाएँगे। आख़िर यूपी में बीजेपी की बंपर बहुमत वाली सरकार है। बंदोबस्त का ढिंढोरा पीटा गया। पर एक दिन पहले ही पता चला कि उम्मीदें दम तोड़ चुकी हैं। अब कोई विशाल आयोजन नहीं होगा। बस सांकेतिक कारसेवा की जाएगी। कारसेवा कब हुई? हुई भी या नहीं? अयोध्या के बाहर किसी को पता नहीं चला। यानी फिर मामला टाँय-टाँय फिस्स हुआ, जबकि 6 दिसंबर को संघ परिवार बड़े जोश से विजय दिवस के रूप में मनाता है।

आख़िर क्यों नहीं जुटी भीड़?

कमोबेश यही हाल रामलीला मैदान में दिखा। पिछले पंद्रह दिनों से देश के पाँच सौ से अधिक ज़िलों में और गाँव-गाँव में राम मंदिर निर्माण के नाम पर सभाएँ की गईं। मक़सद साफ़ था - हर गाँव से लोगों को दिल्ली लाना और रामभक्तों की ताक़त दिखाना। अगर रामलीला मैदान में जमा भीड़ कोई पैमाना है तो फिर यही कहा जा सकता है कि संघ परिवार की ताक़त का प्रदर्शन निहायत ही कमज़ोर रहा। साफ़ लग रहा था कि जो भी लोग जमा थे, वे संघ परिवार के अपने कार्यकर्ता थे। इस भीड़ में जन ग़ायब था। यानी कहा जा सकता है कि एक बार फिर मामला टाँय-टाँय फिस्स।

संघ की ताक़त कम हो गई?

सवाल उठता है कि राम के नाम पर क्यों लोग जमा नहीं हो रहे? मुद्दा चुक गया या फिर संघ परिवार की ताक़त कम हो गई? संघ परिवार की ताक़त कम नहीं है।1992 की तुलना में आज संघ के पास बेशुमार ताक़त है। उसके पास कार्यकर्ताओं की कई गुना ज़्यादा भीड़ है। वह केंद्र में बहुमत वाली सरकार का माई-बाप है। 19 राज्यों में उसकी सरकारें हैं। केरल और बंगाल जैसे वामपंथी राज्यों में उसका प्रसार हो रहा है। सबसे बड़ी बात,आज उसके पास मोदी जैसा प्रधानमंत्री है।
सवाल सामर्थ्य का नहीं है। सवाल नीयत का है। राम मंदिर का मुद्दा जब 80 और 90 के दशक में संघ परिवार ने उठाया था तो उसमें नयापन था। एक ईमानदारी झलकती थी। कार्यकर्ता को लग रहा था कि वाक़ई रामलला को आज़ाद कराने के लिए काम हो रहा है। वह मरने-मारने पर उतारू था। उसमें तेवर था। उसमें ऊर्जा थी। उसे अपने नेताओं पर पूरा भरोसा था कि मामला रामलला के लिए है। इसके पीछे कोई और अर्थ नहीं छिपा है। लेकिन आज यह नहीं कह सकते।

26 साल तक चुप रहा संघ

सन 92 के बाद 26 साल तक संघ परिवार को रामलला की याद नहीं आई। यह नहीं पूछा कि रामलला ठंड या गरमी में तंबू में कैसे रह रहे हैं? लोग ये तक भूल गए कि अयोध्या में कोई मंदिर भी बनना है। इस बीच बीजेपी की केंद्र में 6 साल सरकार रही। और 2014 से अब तक बहुमत वाली सरकार यानी कुल 10 साल केंद्र में सरकार रहने के बाद कोई निर्णायक क़दम मंदिर निर्माण के लिए नहीं उठा। संघ परिवार से इस बीच जब-जब पूछा गया, वह दो टूक कहता - मामला अदालत में लंबित है। अदालत का जब फ़ैसला आएगा, तब वे कुछ करेंगे, नहीं तो कुछ करने की ज़रूरत नहीं है।

पहले क्यों नहीं आई राम की याद?

हैरानी की बात यह है कि यही संघ परिवार था जो 1992 के पहले कहता था कि राम मंदिर का मसला आस्था का प्रश्न है और अदालतें आस्था के सवाल तय नहीं कर सकती। ऐसे में जब संघ प्रमुख मोहन भागवत को तीन महीने पहले यह याद आया कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण होना है तो हँसी आती है। फिर दशहरे के दिन कहते हैं कि हिंदू अब ज़्यादा इंतज़ार नहीं कर सकता। सरकार क़ानून लाकर राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करे।
भाई, 2014 में जब बीजेपी की सरकार बनी थी तो राम की याद क्यों नहीं आई? अगले तीन साल राम की याद क्यों नहीं आई? यह वह वक़्त था जब बीजेपी का अश्वमेध का घोड़ा दनदनाता दौड़ रहा था और उसे कोई पकड़ नहीं पा रहा था। एक-के-बाद-एक राज्य में बीजेपी की सरकारें बन रही थीं।

भारी पड़ सकता है 2019 

गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद से ग्रहण लगना शुरू हो गया। वहाँ जीतने के लिए नाकों चने चबाने पड़े। कर्नाटक तो हाथ से ही निकल गया। और ताज़ा राज्यों की हालत भी अच्छी नहीं है। संघ को अब यह समझ में आ गया है कि 2019 का लोकसभा चुनाव उस पर भारी पड़ सकता है। लिहाज़ा कुछ ऐसा करना पड़ेगा कि जनता फिर धर्म के नाम पर उसे वोट देने पर मजबूर हो जाए।
आज किसान मोदी सरकार से नाराज़ हैं। बेरोज़गारी सुरसा के मुँह की तरह लगातार बढ़ रही है। तमाम दावों के बाद भी अर्थव्यवस्था के नाम पर कहने को कुछ ठोस नहीं है। उनका तुरुप का पत्ता मोदी फ़्लॉप हो सकता है, यह आशंका बढ़ गई है। इसलिए राम की याद हो आई है। रामभक्तों को यह दिख रहा है। वह समझ रहा है कि राम मंदिर के नाम पर निशाना कुर्सी है। लिहाज़ा वह निराश है। अब भीड़ बनने को तैयार नही हैं। भगवान के नाम पर तो जान देगा, इंसान के लिए नहीं। इसलिए फ्लॉप शो।
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