जेएनयू परिसर में नकाबपोशों द्वारा तीन घंटे तक तांडव करते रहने के बावजूद पुलिस के हाथ पर हाथ धरे रहने के पीछे का सच अब खुल कर सामने आ गया है। जेएनयू प्रशासन का कहना है कि उसने 4.30 बजे ही पुलिस को परिसर में आने और संभावित हिंसा रोकने के लिए कहा था। अब पुलिस भी यह मान रही है कि उसे परिसर के अंदर दाखिल होने की औपचारिक तौर पर लिखित अनुमति 7.45 पर मिली थी। लेकिन गुंडे तो तकरीबन 10 बजे तक एक हॉस्टल से दूसरे हॉस्टल में घुस कर छात्र-छात्राओं और शिक्षकों को पीटते रहे और पुलिस देखती रही।
इससे यह साफ़ है कि ख़ुद विश्वविद्यालय प्रशासन ने अंदर आने के लिए पुलिस से कहा था, बाद में उसे लिखित आवेदन भी दिया था। पुलिस परिसर के अंदर गई। नकाबपोश गुंडे हॉस्टलों में घुस कर छात्र-छात्राओं को पीटते रहे। पुलिस ने उन्हें रोकने के लिए कुछ नहीं किया। ये बातें प्राथमिकी यानी एफ़आईआर पर एक नज़र डालने से ही साफ़ हो जाती हैं।
क्या है एफआईआर में?
पुलिस ने काफी फ़जीहत होने के बाद सोमवार को डैमेज कंट्रोल के मक़सद से ही सही, एक एफ़आईआर दर्ज की है। इस एफ़आईआर में कहा गया है :
'करीब 3.45 पर इंस्पेक्टर को इत्तला मिली कि कुछ स्टूडेंट्स जेएनयू के पेरियार हॉस्टल में इकट्ठा होकर मारपीट व हुड़दंग कर रहे हैं।'
चौतरफा आलोचना होने के बाद जेएनयू प्रशासन ने कहा है कि हिंसा 4.30 पर ही भड़क गई थी और उसके तुरन्त बाद पुलिस से कहा गया था कि वह परिसर में आकर स्थिति को नियंत्रित करे।
छात्रों और शिक्षकों ने मारपीट शुरू होने के बाद 4.30 से 5 बजे के बीच 50 से ज़्यादा कॉल पुलिस को किए, जिसका रिकॉर्ड पुलिस के पास है। तो पुलिस को छात्रों और प्रशासन से हिंसा की ख़बर दी गई थी।
पुलिस के प्रवक्ता ने सोमवार को कहा कि पुलिस संयम बरत रही थी कि क्योंकि जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय में उस पर ज़्यादतियाँ करने के आरोप लगे थे। पुलिस का यह कहना हास्यास्पद इसलिए भी है कि उसे जेएनयू जाकर किसी विरोध प्रदर्शन को नहीं रोकना था, बल्कि तोड़फोड़ कर रहे गुंडों से लोगों को बचाना था।
सवाल यह है कि क्या संयम बरतने का अर्थ यह है कि लोग पिटते रहें, गुंडे तोड़फोड़ करते रहें और पुलिस चुपचाप देखती रही?
पुलिस हुई बेनकाब?
पुलिस द्वारा दर्ज एफ़आईआर में यह भी कहा गया है कि ‘40-50 नकाबपोश लोग पेरियार हॉस्टल में तोड़फोड़ और हुड़दंग कर रहे थे।’ इसके साथ ही पुलिस प्रवक्ता ने यह भी पुलिस बल परिसर के बाहर पहले से ही तैनात थी। एफ़आईआर के आधार पर पुलिस से यह पूछा जा सकता है कि ये 40-50 नकाबपोश परिसर के अंदर घुस कैसे गए? परिसर के बाहर तैनात पुलिस वालों ने किसी भी नकाबपोश को परिसर में घुसने ही क्यों दिया? क्या नकाब देख कर भी उन्हें कुछ असामान्य नहीं लगा? क्या उन्हें इन लोगों से नकाब हटाने को नहीं कहना चाहिए था? इसी एफ़आईआर में कहा गया है :
“
समय क़रीब 7 बजे इंस्पेक्टर को इत्तला मिली कि साबरमती हॉस्टल में कुछ हुड़दंगी घुस गए हैं और वहाँ के छात्रों से मारपीट कर रहे हैं। इंस्पेक्टर स्टाफ़ के साथ साबरमती हॉस्टल गए, जहाँ करीब 50-60 हुड़दंगी लोग हाथों में डंडे लेकर वहाँ पर हॉस्टल बिल्डिंग में तोड़फोड़ कर रहे थे।
दिल्ली पुलिस की एफ़आईआर का हिस्सा
इसके आगे कहा गया है :
पीए सिस्टम द्वारा तोड़फोड़ न करने व शांतिपूर्वक तितर-बितर होने की चेतावनी दी गई थी। हुड़दंगी चेतावनी के बावजूद तोड़फोड़ करते रहे।
तोड़फोड़ होती रही, पुलिस देखती रही?
एफ़आईआर से साफ़ है कि पुलिस के रिकार्ड में भी यह दर्ज है कि पेरियार के बाद साबरमती हॉस्टल में 50-60 हुड़दंगी तोड़फोड़ कर रहे थे, जिसकी जानकारी पुलिस को थी। पुलिस का एक इंस्पेक्टर और स्टाफ़ वहाँ गया। पर पुलिस ने सिर्फ़ माइक पर उन्हें शांति से तितर-बितर होने को कहा। यानी, पुलिस ने बल का इस्तेमाल नहीं किया। हुड़दंगियों को रोकने की दूसरी कोई कोशिश नहीं की। इसके पहले ही पुलिस को जेएनयू प्रशासन से लिखित रिक्वेस्ट मिल चुका था। मतलब, प्रशासन के लिखित रिक्वेस्ट के बावजूद पुलिस ने हुड़दंगियों को रोकने के लिए बस इतना किया कि पीए सिस्टम पर उन्हें तितर-बितर हो जाने को कहा। यह वही पुलिस है, जिसने जामिया में बग़ैर किसी अनुमति के अंदर घुस कर लाइब्रेरी में पढ़ रहे छात्रों को बुरी तरह पीटा था।सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो में यह साफ़ देखा जा सकता है कि तोड़फोड़ कर लौट रहे लोगों के हाथ में डंडे हैं, लाठियाँ हैं। वे जय श्री राम के नारे लगा रहे हैं। यह सब पुलिस की मौजूदगी में ही हुआ। उस वीडियो में पुलिस का कोई आदमी इन दंगाइयों को रोकने की कोई कोशिश करता नहीं दिखता है।
जिस समय गुंडे पुलिस की मौजूदगी में तोड़फोड़करते रहे, ठीक उसी समय परिस के बाहर मीडिया कर्मियों के साथ मारपीट की गई, उनके कैमरे तोड़े गए, माइक छीन लिए गए। पुलिस वहाँ उस समय मौजूद थी। पुलिस की मौजूदगी में भी राजनीतिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव के साथ वहाँ मौजूद भीड़ के कुछ लोगों ने धक्का-मुक्की की। पुलिस ने पत्रकारों या यादव को बचाने के लिए कुछ नहीं किया।
यह वही पुलिस है जो नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वालों से बेहद सख़्ती से पेश आई और उन्हें बुरी तरह कुचला।
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