समलैंगिक संबंधों को क़ानूनन वैध माने जाने के बाद अब समलैंगिक शादी के हक की लड़ाई की तैयारी की जा रही है। इसके लिए इसी महीने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दाखिल की गई है। यह याचिका एक मनोचिकित्सक कविता अरोड़ा और एक मनोवैज्ञानिक अंकिता खन्ना ने तब दाखिल की जब पिछले महीने उनकी शादी के आवेदन को अधिकारियों ने खारिज कर दिया। वे इसे लैंगिक पसंद आधारित भेदभाव मानती हैं और कहती हैं कि अनुच्छेद 21 के तहत मिले शादी के साथी चुनने के अधिकार का उल्लंघन है। इसी आधार पर कोर्ट में याचिका दाखिल की गई है। ऐसी ही एक याचिका एक अन्य जोड़ा भी दाखिल कर रहा है। तो क्या इसके लिए लंबी लड़ाई की तैयारी है? लंबी लड़ाई इसलिए कि समलैंगिक अधिकारों के लिए दुनिया भर में लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी है। बिल्कुल उसी तरह से जिस तरह से भारत में समलैंगिक संबंधों को ग़ैर-क़ानूनी बताने वाली धारा 377 के ख़िलाफ़ लड़ी गई थी। तो क्या दुनिया के कई देशों की तरह ही भारत में भी समलैंगिक शादी को मंजूरी दी जा सकती है?
समय के साथ समाज बदलता है और इसके साथ सामाजिक मान्यताएँ, मूल्य व विचार भी। यानी एक समय में जिसे समाज ग़लत मानता हो कोई ज़रूरी नहीं कि आने वाले समय में भी उसे ग़लत ही माना जाए। समलैंकिगता से जुड़ी धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट का 2018 का फ़ैसला भी यही दिखाता है। 6 सितम्बर, 2018 को समलैंगिक संबंध बनाना अपराध नहीं रहा था। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों की एक संविधान पीठ ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था। इस फ़ैसले से पहले समलैंगिक यौन संबंध आईपीसी की धारा 377 के तहत एक आपराधिक जुर्म था।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने ही 11 दिसंबर 2013 को समलैंगिकता को अपराध माना था। तब कोर्ट सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज़ फ़ाउंडेशन मामले में सुनवाई कर रहा था। इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के फ़ैसले को चुनौती दी गई थी। दिल्ली हाई कोर्ट ने ‘नाज फाउंडेशन’ की याचिका पर सुनवाई करते हुए 2 जुलाई 2009 को समान लिंग के दो वयस्कों के बीच यौन संबंधों को अपराध घोषित करने वाली धारा 377 को अंसवैधानिक क़रार दिया था। दिल्ली हाई कोर्ट के फ़ैसले को 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया था और इसे फिर से अपराध की श्रेणी में डाल दिया था। और फिर इसी सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में समलैंगिकता को वैध बता दिया।
इसका मतलब है कि एक ही समय पर एक ही मामले में दो विरोधी विचार हो सकते हैं और जब समाज रूढ़ियों से बाहर निकलता है तो ऐसी दो विचारधाराएँ अक्सर सामने आती हैं। हालाँकि इसके बावजूद आख़िरकार बदलते समाज के अनुसार मूल्य भी बदल जाते हैं।
2018 की सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों में भी इसकी झलक मिलती है। सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को अतार्किक और मनमानी बताया था, एलजीबीटी समुदाय को भी समान अधिकार की बात कही थी।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या की थी टिप्पणी?
- धारा 377 के ज़रिए एलजीबीटी की यौन प्राथमिकताओं को निशाना बनाया गया।
- किसी नागरिक की निजता में घुसपैठ का राज्य को हक नहीं है।
- इतिहास को एलजीबीटी समुदाय से उनकी यातना के लिए माफ़ी माँगनी चाहिए।
- यौन प्राथमिकता बाइलोजिकल और प्राकृतिक है। समलैंगिकता कोई मानसिक विकार नहीं है।
- अंतरंगता और निजता किसी की निजी पसंद है। इसमें राज्य को दख़ल नहीं देना चाहिए।
- भारत के यौन अल्पसंख्यक नागरिकों को छुपना पड़ा। एलजीबीटी समुदाय को कलंक न मानें।
- एलजीबीटी समुदाय को भी दूसरों की तरह समान अधिकार हैं।
- यौन प्राथमिकताओं के अधिकार से इनकार करना निजता के अधिकार को देने से इनकार करना है।
- इस अधिकार को अंतरराष्ट्रीय क़ानून के तहत पहचान मिली है।
दो साल पहले दिए गए सुप्रीम कोर्ट के ये तर्क समलैंगिक शादी की वकालत करने वाले लोगों के लिए उत्साहजनक हो सकते हैं। इसके लिए जिन लोगों ने याचिका लगाई है उन्होंने कुछ ऐसे ही तर्क सामने रखे हैं। 'टाइम्स ऑफ़ इंडिया' की रिपोर्ट के अनुसार कविता अरोड़ा और अंकिता अरोड़ा ने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दाखिल की है। रिपोर्ट के अनुसार वैभव जैन और पराग मेहता भी ऐसी ही याचिका दायर कर रहे हैं। हालाँकि इनका मामला विदेशी विवाह अधिनियम के संदर्भ में है। वैभव और पराग ने 2017 में वाशिंगटन डीसी में कोर्ट मैरिज की थी। हालाँकि, उन्हें भारतीय वाणिज्य दूतावास द्वारा भारत में शादी को पंजीकृत करने की अनुमति नहीं थी। वह कहते हैं कि ऐसा नहीं होने से उन्हें कई अधिकारों से वंचित होना पड़ता है। कुछ ऐसा ही कविता और अंकिता भी कहती हैं। उन्हें उम्मीद है कि समलैंगिक संबंधों की तरह ही समलैंगिक शादी को भी मान्यता मिलेगी।
वैसे, दुनिया के कई देशों में समलैंगिक शादियाँ वैध घोषित की जा चुकी हैं। दुनिया भर में ऐसे कम से कम 23 देश हैं जहाँ या तो पूरे देश भर में या कुछ हिस्सों में समलैंगिक शादियों को क़ानूनी मान्यता है।
इन देशों में अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, स्पेन, स्वीडन, फ़्रांस अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, जर्मनी, न्यूज़ीलैंड जैसे देश शामिल हैं। समलैंगिक शादी के अधिकार की लड़ाई इतनी आसान भी नहीं रही है। क़रीब 5 दशक से इसके लिए अभियान चलाया जा रहा है।
1989 में डेनमार्क समान यौन संबंधों के लिए क़ानूनी संबंध को मान्यता देने वाला पहला देश बना था, इसमें शादी से जुड़े अधिकांश अधिकार दिए गए थे। 2001 में नीदरलैंड्स, 2005 में कनाडा, 2015 में अमेरिका और इंग्लैंड में 2020 में इसको क़ानूनी मान्यता दी गई। फ़िलहाल कई देशों में इसके लिए लड़ाई जारी है।
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