किसान फिर से दिल्ली आ रहे हैं। दिल्ली घुसने से पहले बॉर्डर पर वही माहौल है। कंटीले तार हैं। रोड पर कीलें गाड़ी गई हैं। भारी-भरकम बैरिकेड्स लगाए गए हैं। सड़कों पर गड्ढे खोदे गए हैं। भारी पुलिस बल तैनात है। आँसू गैस के गोले छोड़े जा रहे हैं। नवंबर 2020 में भी ऐसा ही नज़ारा था। हर मुमकीन कोशिश की गई थी कि उन्हें दिल्ली में घुसने से रोका जाए। सरकार का कहना था कि क़ानून व्यवस्था का मुद्दा होगा और किसान कह रहे थे कि वे अपनी मांगों को लेकर शांतिपूर्ण तरीक़े से प्रदर्शन करना चाहते हैं। दोनों में से कोई पीछे नहीं हटा। सरकार मांगें नहीं मान रही थी तो किसान वहीं पर बैठ गए थे। साल भर तक प्रदर्शन चला। सरकार ने आख़िरकार कुछ मांगें मानीं, लेकिन कुछ पर आश्वासन दिया था।
तो क्या अब उन्हीं मांगों को लेकर किसान फिर से दिल्ली आ रहे हैं? क्या वे पिछली बार की तरह ही डटे रहने वाला हैं? इन सवालों के जवाब से पहले यह जान लें कि पिछले किसान आंदोलन में क्या-क्या हुआ था और किन वजहों से उन्होंने प्रदर्शन किया था।
किसानों का पिछला प्रदर्शन मुख्य तौर पर 17 सितंबर 2020 के एक फ़ैसले के ख़िलाफ था। उस दिन संसद में खेती से जुड़े तीन कानून पास किये गये थे। इनके विरोध में उस साल नवंबर से किसान आंदोलन शुरू हुआ था। नवंबर 2020 में कानूनों को सामूहिक रूप से चुनौती देने के लिए 32 किसान संगठन एकजुट हुए थे। इन तीन क़ानूनों को निरस्त करने के अलावा एमएसपी के क़ानून बनाने की मांग भी शामिल थी।
पंजाब और हरियाण से किसान सैकड़ों ट्रैक्टरों में भरकर अपनी मांगों को लेकर दिल्ली के लिए रवाना हुए थे। सरकार ने उनकी मांगों को सिरे से खारिज कर दिया था और कहा था कि ये क़ानून किसानों के 'हित' में हैं। सरकार ने किसानों को रोकने के लिए हरियाणा में ही और दिल्ली बॉर्डर पर बड़े इंतज़ाम किए थे। भारी पुलिस बल तैनात किया गया था। हरियाणा में तो सड़कों पर गड्ढे खोद दिए गए थे। नवंबर की सर्दी में भी किसानों पर पानी की बौछारें की गई थीं।
इतना सब होने के बाद भी सरकार किसानों से बात करने के लिए तैयार नहीं थी, उनकी मांगों को माना जाना तो दूर की बात है। हालाँकि इस बार सरकार ने पहले ही बातचीत की कोशिश शुरू कर दी है।
कृषि क़ानूनों का यह कहते हुए किसान विरोध कर रहे थे कि इससे किसान तबाह हो जाएँगे। उन्होंने कहा था कि इन क़ानूनों से कांट्रैक्ट खेती को अनुमति दी गई। कांट्रैक्ट खेती यानी कोई पहले ही किसानों को पेशगी रक़म देकर किसी खास कृषि उपज को उगाने के लिए प्रेरित करे और उपज का मूल्य तय कर ले। इसके विरोध में तर्क है कि पूंजीपति सस्ती में कोई उपज खरीद लेंगे और अपने भंडारण क्षमता के दम पर स्टोर कर लेंगे और जब मार्केट में रेट बढ़े तब किसानों को अपनी उपज बेचने का अवसर नहीं रह जाएगा। पूरा फायदा पूंजीपति उठाएंगे।
आंदोलनकारियों का तर्क था कि नए कृषि कानूनों को लाकर सरकार पिछले दरवाजे से एमएसपी को हटाने की साजिश रच रही है। किसान अपनी उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी चाहते हैं।
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नवंबर 2020 से प्रदर्शन कर रहे किसान जब पीछे नहीं हटे तो आख़िर सरकार को नवंबर 2021 में तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने की घोषणा करना पड़ा। सरकार ने कहा कि उसने किसानों की चिंताओं को ध्यान में रखते हुए उसने ऐसा किया। तब सरकार ने एमएसपी के क़ानून बनाने जैसी मांगों पर आश्वासन दिया था। किसान इसकी लगातार मांग करते रहे थे। लेकिन अब तक उनकी यह मांग पूरी नहीं हुई है।
अब 2024 में किसान जिन मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं उसमें एमएसपी की मांग सर्वोपरि है। हालाँकि, इसमें किसानों की 12 मांगें शामिल हैं।
अब क्या हैं प्रमुख मांगें?
सरकार एमएसपी के लिए क़ानून बनाए। यह एमएसपी डॉ. स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार होनी चाहिए। ( हाल ही मोदी सरकार ने स्वामीनाथन को भारत रत्न सम्मान दिया है।) किसान यूनियनों की मांग है कि सरकार किसानों और मज़दूरों के पूरे कर्ज माफ करे। भूमि अधिग्रहण कानून 2013 को संशोधित किया जाए जिसमें किसानों से लिखित सहमति और कलेक्टर दर से चार गुना मुआवजा देने का प्रावधान हो। इसे खेती से जोड़कर प्रति वर्ष 200 दिन का रोजगार और मनरेगा के तहत 700 रुपये की दैनिक मजदूरी तय करें। पिछले किसान आंदोलन में मारे गए किसानों के परिवारों को मुआवजा दें, एक सदस्य को नौकरी दें।
कंपनियों को आदिवासियों की जमीन लूटने से रोककर जल, जंगल और जमीन पर मूलवासियों का अधिकार सुनिश्चित करें। लखीमपुर खीरी में किसानों पर ट्रैक्टर चढ़ाने के अपराधियों को सजा मिले और प्रभावित किसानों को न्याय मिले।
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