केंद्र सरकार ने जल्दबाजी में और किसानों से बग़ैर पूर्व सलाह मशविरा के कृषि क़ानून पारित करने के आरोप को एक बार फिर ख़ारिज कर दिया है। सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि इन क़ानूनों पर बातचीत दो दशक से भी लंबे समय से चल रही थी।
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफ़नामे में इसके साथ ही यह भी दावा किया है पूरे देश के किसान इन क़ानूनों से खुश हैं, बस कुछ स्वार्थी ग़ैर-किसान तत्व लोगों को ग़लत जानकारी दे रहे हैं और सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार कर रहे हैं।
कांग्रेस शासन
यह बेहद दिलचस्प बात है कि पिछले छह साल से राज कर रही सरकार यह दावा कर रही है कि इन कृषि क़ानूनों पर विमर्श 20 साल से चल रहा है, यानी वह जिस कांग्रेस से पूरे देश को मुक्त कराने की बात करती है, उसके प्रयासों का भी श्रेय लेना चाहती है।
सर्वोच्च न्यायलय में दायर हलफनामे में सरकार ने कहा है कि दिसबंर 2000 में शंकरलाल गुरु की अगुआई में एक एक्सपर्ट कमेटी का गठन किया गया था। इसने जून 2001 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी और सरकार ने जुलाई 2001 में कृषि विपणन सुधार कमेटी का गठन किया। उस कमेटी ने जून 2002 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी।
एपीएमसी एक्ट 2003
सरकार का कहना है कि इसने मॉडल एपीएमसी एक्ट 2003 बनाया, इससे जुड़ा एक और क़ानून 2007 में बनाया गया। लेकिन सरकार ने पाया कि वह सभी राज्यों व केंद्र-शासित क्षेत्रों में समान रूप से लागू नहीं हुआ। इसके बाद सरकार ने 10 राज्यों के कृषि विपणन के प्रमुखों को लेकर एक कमेटी का गठन किया। उस कमेटी ने 2013 में रिपोर्ट सौंपी।
बीजेपी ने किया था विरोध
याद दिला दें कि 2010 या 2013 में मनमोहन सिंह की सरकार थी और विपक्ष में भारतीय जनता पार्टी थी। उस समय बीजेपी ने इसका ज़बरदस्त विरोध किया था। राज्यसभा में बीजेपी के नेता अरुण जेटली और लोकसभा में सुषमा स्वराज ने उसका ज़ोरदार विरोध करते हुए इसे पूरी तरह किसान विरोधी क़रार दिया था।
जेटली का वह भाषण अब भी याद किया जाता है जिसमें उन्होंने कहा था कि कृषि विपणन और इसमें निजी क्षेत्र की कंपनियों को अनुमति देने का जो मॉडल यूरोप व अमेरिका में नाकाम रहा, वह भारत में क्यों और कैसे सफल होगा।
अरुपण जेटली ने ज़ोर देकर कहा था कि कृषि विपणन के क्षेत्र में निजी कंपनियों को मौका देने और नई प्रणाली लागू करने से पूरी कृषि व्यवस्था चौपट हो जाएगी।
अब वही बीजेपी उस बात का न सिर्फ समर्थन कर रही है, बल्कि उसका श्रेय भी ले रही है।
मुख्यमंत्रियों की कमेटी
नरेंद्र मोदी सरकार ने उसी हलफनामे में यह भी दावा किया है कि 2010 में हरियाणा के मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में कृषि उत्पादन पर एक कार्यसमिति का गठन किया। उसके बाद बिहार, पश्चिम बंगाल और पंजाब के मुख्यमंत्रियों ने कृषि उत्पादों के बाज़ार को खोलने और इसके स्टॉक, वित्त व लाने- ले जाने से जुड़े हर तरह की रोक को हटाने की सिफ़ारिशें की थीं।
सरकार ने कहा है कि स्टेट एग्रीकल्चर प्रोड्यूस एंड लाइवस्टॉक मार्केटिंग एक्ट 2017 तैयार किया गया और उसे हर राज्य को भेजा गया।
21 मई की बैठक
सरकार का दावा है कि 21 मई, 2020 को कृषि, सहकारिता, कृषक कल्याण विभागों की एक अखिल भारतीय स्तर पर बैठक हुई, जिसमें 13 राज्यों व केंद्र-शासित क्षेत्रों के प्रतिनिधियों ने शिरकत की। इसने अहम जानकारियाँ दीं।
केंद्र सरकार ने हलफनामे में दावा किया है कि कोरोना लॉकडाउन की वजह से जब दिक्क़तें होने लगीं तो केंद्र सरकार ने चाहा कि कृषि विपणन पर लगी पाबंदिया हटा दी जाएं ताकि राज्य के बाहर भी कृषि उत्पादों को बेचा जा सके। लेकिन कुछ राज्यों ने ही इस पर अमल किया।
लेकिन केंद्र सरकार यह दावा भी करती है कि छह राज्यों- गोआ, त्रिपुरा, मेघालय, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड ने अपने-अपने यहाँ अध्यादेश के ज़रिए फल-सब्जियों के सीधे विपणन में छूट की व्यवस्था की। यह मॉडल एपीएलएम एक्ट 2017 के मुताबिक़ किया गया था।
इसके बाद सरकार ने विस्तार से बताया है कि तीन कृषि क़ानूनों से जुड़े प्रस्तावों और उसके मसौदों को सभी राज्यों के भेजे गए।
सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा
सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में केंद्र सरकार ने यह दावा भी किया है कि कृषि संगठनों और दूसरे स्टेक होल्डरों को बुलाया गया, उन्हें पूरी जानकारी दी गई और उनसे विचार-विमर्श किया गया।
सरकार का दावा है कि 6 अक्टूबर, 2020 को मेल भेज कर इसने 8 अक्टूबर को कृषि भवन में एक बैठक रखी और किसान संगठनों को इसमें न्योता दिया।
सरकार का कहना है कि इसने 14 अक्टूबर, 2020 को भी एक बैठक रखी और उसमें किसान संगठनों को विस्तार से पूरी जानकारी दी गई, सब कुछ समझाया गया। यह 13 नवंबर, 2020 को भी बैठक करने का दावा करती है।
सरकार : खुश हैं किसान
कुल मिला कर सरकार ने 50 दिनों से कड़ाके की ठंड में जान की बाजी लगा कर धरने पर बैठे किसानों के सिर ठीकरा फोड़ने की कोशिश की है।
सरकार ने यह बताने की कोशिश की है कि वह तो 20 साल से इस मुद्दे पर विचार विमर्श कर रही है, पर किसान हैं कि मान नहीं रहे हैं। इतना ही नहीं, वह यह भी कहती है कि दूसरे स्वार्थी तत्वों ने किसानों को ग़लत जानकारी दी है।
वे सभी किसानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते है क्योंकि देश के किसान बहुत खुश हैं। लेकिन सरकार किसानों की खुशहाली से जुड़ा कोई तर्क या सबूत या आँकड़ा नहीं देती है, बस यह मान लेती है कि सभी किसान इन क़ानूनों से बहुत खुश है।
अब जबकि सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप कर दिया है और उसकी ओर से गठित कमेटी न सिर्फ विवादों के घेरे में आ गई है, बल्कि एक सदस्य के इस्तीफ़ा भी दे दिया है तो सरकार के तमाम दावे पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। सवाल यह भी है कि काम शुरू करने और पहली बैठक होने के पहले ही जो कमेटी प़क्षपातपूर्ण दिखने के आरोप लगे, उस पर क्या भरोसा किया जाए। अहम सवाल तो यह है कि अब केंद्र सरकार आगे क्या करेगी।
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