पिता-पुत्र के मुख्यमंत्री व मंत्री बनने की पहली कहानी हरियाणा में शुरू हुई थी। यहां चौधरी देवीलाल जब 1987 में मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मंत्रिमंडल में अपने बेटे रणजीत सिंह चौटाला को कृषि मंत्री बनाया।
तमिलनाडु में 2006 से 2011 के बीच डीएमके और उसके सहयोगी दलों की सरकार हुआ करती थी। इस सरकार में करूणानिधि मुख्यमंत्री तथा उनके पुत्र स्टालिन मंत्री ही नहीं उप मुख्यमंत्री भी बने। स्टालिन तमिलनाडु के पहले उप मुख्यमंत्री हुए थे और एक तरह से अपने पिता की छत्रछाया में वह ख़ुद ही सरकार चलाते थे।
पंजाब का उदाहरण
एक और बड़ा उदाहरण पंजाब में शिरोमणि अकाली दल की सरकार का है। साल 2009 में प्रकाश सिंह बादल के मुख्यमंत्री रहते हुए उनके पुत्र सुखबीर सिंह बादल उप मुख्यमंत्री बने। 2012 के विधानसभा चुनाव में फिर से अकाली दल की सरकार बनी तो पिता-पुत्र एक बार फिर मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री बने। दूसरी सरकार में पूरा कामकाज सुखबीर सिंह बादल के हाथों में रहा और प्रकाश सिंह बादल नाममात्र के मुख्यमंत्री रहे।
आंध्र, तेलंगाना में भी यही कहानी
आंध्र प्रदेश के दिग्गज नेता चंद्रबाबू नायडू ने भी अपनी सरकार में अपने बेटे नारा लोकेश को मंत्री बनाया था। नारा लोकेश ने तो विधानसभा का चुनाव तक नहीं जीता था। 2014 में आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की सरकार बनी थी और 2017 में नारा को कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ दिलाई गयी। उन्हें आईटी, ग्राम विकास और पंचायती राज जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय दिए गए। आंध्र प्रदेश के विभाजन से बने तेलंगाना में भी यही कहानी दोहरायी गयी है। 2014 में के. चंद्रशेखर राव जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अपने बेटे के. टी. रामाराव को अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया। रामाराव को आईटी व पंचायती राज मंत्रालय दिए गए। 2018 में चंद्रशेखर राव जब फिर से मुख्यमंत्री बने तो दुबारा बेटे को अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया।
इसलिए सिर्फ़ ठाकरे परिवार को ही इस मामले में कठघरे में खड़ा करना जायज नहीं होगा। देश के अधिकांश राज्यों में क्षेत्रीय दलों की स्थिति को देखा जाए तो वे किसी राजनीतिक पार्टी की तरह नहीं अपितु एक परिवार की राजनीतिक कंपनी के रूप में चलाये जाते हैं। पार्टी संगठन हो या सरकार, सबमें परिवार की ही भूमिका प्रमुख रहती है।
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