कुछ साल पहले अंडरवर्ल्ड माफिया दाऊद इब्राहिम पर एक फ़िल्म बनी थी, नाम था - 'कंपनी'। इस फ़िल्म का एक गाना काफी प्रचलित हुआ था। गाने के बोल थे - ‘गंदा है पर धंधा है ये’। यह गाना आज हमारी राजनीतिक पार्टियों के चंदे के ‘खेल’ पर बिलकुल फ़िट बैठता है! इसलिए अब इसके बोल होने चाहिए - ‘गंदा है पर चंदा है ये’।
चंदा चाहे किसी राजनीतिक पार्टी को अंडरवर्ल्ड माफिया से आये, किसी को बुलेट ट्रेन या किसी अन्य काम का ठेका देकर आये, सब चलेगा। सरकारें या राजनीतिक दल विकास के नाम पर जो काम करा रहे हैं, उससे देश का विकास कितना हुआ इसका आकलन कभी बाद में करेंगे लेकिन इससे पार्टियों के चंदे का आकार कितना बढ़ा है, इसका हिसाब-किताब समझना ज़रूरी है।
कैसे करें पारदर्शी राजनीतिक व्यवस्था की कल्पना?
हमारे देश में लोकतंत्र और चुनावी पारदर्शिता की बात बहुत होती है लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में राजनीतिक दलों को जो पैसा मिलता है, क्या वह पारदर्शी है? यदि वही 'काजल की कोठरी' बना हुआ है तो फिर हम स्वच्छ और पारदर्शी राजनीतिक व्यवस्था की कल्पना कैसे कर सकते हैं। चुनावी चंदे के कुछ नए मामले जिनमें केंद्र की सत्ता में बैठी बीजेपी पर एक ऐसी कंपनी से चंदा लेने के आरोप लग रहे हैं, जिस पर ‘टेरर फंडिंग’ के मामले में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की जांच चल रही है।
बीजेपी ने चुनाव आयोग को जो वित्तीय जानकारी दी है, उसके मुताबिक़ आरकेडब्ल्यू डेवलपर्स लिमिटेड नाम की कंपनी ने 2014-2015 में पार्टी को 10 करोड़ रुपये का चंदा दिया था। यह कंपनी अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम के सहयोगी और मुंबई बम धमाके 1993 के आरोपी इकबाल मेनन उर्फ़ इकबाल मिर्ची के साथ प्रॉपर्टी के सौदे करने वाली कंपनी है। वैसे, इकबाल मिर्ची की प्रॉपर्टी से जुड़े एक मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने एनसीपी के नेता प्रफुल पटेल का नाम महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान उछाला था लेकिन संबंध अब बीजेपी के उजागर हो रहे हैं।
इसके अलावा एक और प्रकरण सामने आया है जिसमें मुंबई-अहमदाबाद, बुलेट ट्रन मार्ग पर कुछ कामों का ठेका ऐसे ठेकेदारों को दिया गया है जिन्होंने बीजेपी को चंदा दिया हुआ है। इन खबरों ने एक बार फिर उस सवाल को चर्चा में ला दिया है कि क्या राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने की प्रक्रिया में कभी पारदर्शिता आ पायेगी? इलेक्टोरल बॉन्ड और अब चंदा लेकर ठेके देने की ख़बरों ने इस सवाल को और भी गंभीर बना दिया है।
चुनावी चंदे में पारदर्शिता के नाम पर मोदी सरकार ने राजनीतिक चंदे की प्रक्रिया में तीन बड़े बदलाव किए। पहला, अब राजनीतिक पार्टियां विदेशी चंदा ले सकती हैं। दूसरा, कोई भी कंपनी कितनी भी रकम, किसी भी राजनीतिक पार्टी को चंदे के रूप में दे सकती है। और तीसरा, कोई भी व्यक्ति या कंपनी गुप्त रूप से इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए किसी पार्टी को चंदा दे सकती है। बेनामी नकद चंदे की सीमा 20 हज़ार से घटाकर दो हज़ार रुपये कर दी गई है, लेकिन सवाल यह है कि नकद बेनामी चंदा लेने की सीमा तय किये बिना ये उपाय किस काम के हैं?
देश के सामान्य नागरिक भले ही रोजगार के संकट से जूझ रहे हों लेकिन राजनीतिक पार्टियों की आमदनी हर साल 400-500 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ रही है। पिछले कुछ सालों में राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे की बाढ़ सी आ गई है।
साल 2016-17 में सत्ता में काबिज बीजेपी की कुल आय 532.27 करोड़ थी जो एक साल बाद बढ़कर 1,027.33 करोड़ रुपये हो गई। यानी 93% का इज़ाफा। इलेक्टोरल बॉन्ड से भी सबसे ज्यादा रकम बीजेपी को ही मिली है। 2017-18 में बीजेपी को कुल चंदे का 86 प्रतिशत इलेक्टोरल बॉन्ड से मिला।
बीजेपी को 2017-18 में इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए कुल 210 करोड़ रुपये मिले। जो कि कुल खरीदे गए इलेक्टोरल बॉन्ड का 95 प्रतिशत पैसा है। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने 2018 में एक वित्त विधेयक के जरिये इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था बनाई है और उसका सर्वाधिक लाभ भी उसे ही मिला है।
इलेक्टोरल बॉन्ड की खरीद के लिए नियम यह है कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से कोई भी यह बॉन्ड खरीद सकता है। ऐसा करते समय उसे एक केवाईसी फार्म भरना पड़ेगा, यानी कि इलेक्टोरल बॉन्ड कौन खरीद रहा है, बैंक को इसकी जानकारी होगी लेकिन वह इस जानकारी को प्रवर्तन निदेशालय, आयकर विभाग या किसी अन्य संस्था को नहीं दे सकता है। इसके अलावा बॉन्ड पर किसी का कोई नाम नहीं होगा। यानी कि बॉन्ड खरीदने वाला, इसे किस पार्टी को देगा यह जानकारी बैंक के पास नहीं होगी और राजनीतिक दलों के लिए भी यह अनिवार्य नहीं है कि वह उस संस्था या व्यक्ति का खुलासा करें, जिसने उन्हें इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदा दिया है। पार्टियों को केवल इस बात का खुलासा करना होगा कि उन्हें इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये इतना पैसा मिला है।
मौजूदा नियम के मुताबिक़, कॉरपोरेट कंपनियां राजनीतिक पार्टियों को कितना भी चंदा दे सकती हैं। इस नियम के चलते कॉरपोरेट के जरिये राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है। लेकिन जैसे-जैसे इस चंदे में वृद्धि होती जा रही है इसकी पारदर्शिता भी कम होती जा रही है।
1970 से लेकर आज तक चुनाव सुधारों को लेकर जितनी भी समितियां बनीं या जितनी भी रिपोर्ट्स आयी हैं, सबमें एक बात प्रमुखता से उठायी गयी है और वह है चुनावी खर्च की पारदर्शिता। मतलब प्रत्याशी अपनी आय-व्यय के स्रोत जाहिर करें और अपने आपराधिक रिकॉर्ड को भी बताएं। लेकिन हकीकत यह है कि आज भी सब पर्दे के पीछे छुपा रहता है। जिस इलेक्टोरल बॉन्ड को चुनावी चंदे में पारदर्शिता के नाम पर लाया गया उसने तो चंदे के खेल का अब तक का सबसे गंदा चेहरा देश के सामने उजागर किया है।
मोदी सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में जिस तरह से राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को लेकर कानून में बदलाव किया है, उससे एक बात तो स्पष्ट हुई है कि इस प्रकार की कोई भी सुधार प्रक्रिया में सत्ताधारी दल को कोई खास इच्छाशक्ति नहीं होती! चंदे की पारदर्शिता के नाम पर इलेक्टोरल बॉन्ड की शुरुआत की गई लेकिन इसे लेकर चुनाव आयोग को ही शिकायत है।
आतंकी फंडिंग में जांच का सामना कर रही एक कंपनी से 10 करोड़ रुपये चंदा लेने के बाद बीजेपी एक नए विवाद में घिरने जा रही है। आरोप है कि बीजेपी ने प्राइवेट कंपनियों से चंदा लेने के एवज में उन्हें सरकारी ठेके दिलवाए हैं।
इसके अलावा अन्य दो ऐसी कंपनियों के बारे में भी पता चला है जिन्होंने बीजेपी को डोनेशन दिया है और उन्हें सरकारी ठेके मिले हैं। इनमें से एक गुजरात की कंपनी KR Savani है, जिसे मुंबई-अहमदाबाद हाई स्पीड रेलवे प्रोजेक्ट के तहत वडोदरा रेलवे स्टेशन पर अलग-अलग सर्विस बिल्डिंग के कंस्ट्रक्शन का काम मिला है। इस कंपनी ने साल 2012-13 के दौरान बीजेपी को 2 लाख रुपये का चंदा दिया था।
एक अन्य ठेकेदार धनजी के. पटेल हैं जिन्होंने बीजेपी को 2017-18 में 2.5 लाख रुपये का चंदा दिया है। इस कंपनी को भी मुंबई-अहमदाबाद हाई स्पीड रेलवे प्रोजेक्ट के तहत वतवा से साबरमती-डी केबिन के बीच निर्माण कार्य का ठेका मिला है। इनके अलावा एक अन्य कंपनी रचना इंटरप्राइजेज को भी वडोदरा के नजदीक लाइन नंबर 14, 15 और 16 में ओवरहेड इलेक्ट्रिफिकेशन का ठेका दिया गया है। इसी नाम से मिलती एक कंपनी ने बीजेपी को कई बार चंदा दिया है लेकिन इस मामले में यह साफ नहीं हो सका है कि ठेका हासिल करने वाली और चंदा देने वाली कंपनी क्या एक ही है।
बीजेपी को चंदा देने वाली कंपनियों का विवरण ख़ुद पार्टी ने चुनाव आयोग को सौंपा है। अब सवाल यह उठता है कि राजनीतिक दलों की इस तरह से चंदा उगाही प्रक्रिया पर अंकुश कैसे लगेगा?
खर्चीले होते जा रहे चुनाव
2019 के लोकसभा चुनावों के बाद सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की चुनावी खर्च को लेकर जो रिपोर्ट आयी थी, उसमें इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि हमारे देश में चुनाव किस कदर महंगे होते जा रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक़, इस बार के लोकसभा चुनाव में कुल 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए। इसका 45 प्रतिशत या कहें 27,000 करोड़ रुपये अकेले बीजेपी ने खर्च किए। यह उसके 2014 के आम चुनाव में किए गए खर्च से ज्यादा है।
रिपोर्ट के मुताबिक़, 1998 के आम चुनाव के दौरान प्रचार में हुए कुल खर्च का 20 प्रतिशत हिस्सा बीजेपी का था। 2019 आते-आते वह चुनाव में सबसे अधिक (45 फीसदी) पैसा लगाने वाली पार्टी बन गई। उधर, 2009 में केंद्र की सत्ता में रही कांग्रेस ने तब के कुल चुनावी खर्चे का करीब 40 प्रतिशत हिस्सा खर्च किया था, अब यह आंकड़ा 15-20 प्रतिशत हो गया है। ऐसे में इतनी बड़ी धनराशि यदि चुनाव में खर्च की जा रही है तो उससे एक बात स्पष्ट है कि चंदा अब चुनाव लड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका में है। इस धनबल के दम पर पार्टियां अपने सत्ता समीकरण साधने में लगी हुई हैं।
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