डॉक्टरों से मारपीट के विरोध में पश्चिम बंगाल से शुरू हुई हड़ताल का असर अब दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों से लेकर रायपुर, जयपुर जैसे शहरों में भी पड़ने लगा है। दिल्ली के एम्स में भी डॉक्टरों ने हड़ताल की। सफ़दरजंग अस्पताल के रेजिडेंट डॉक्टरों ने भी विरोध मार्च निकाला। पटना, नागपुर, रायपुर, वाराणसी, हैदराबाद आदि शहरों में भी रेजिडेंट डॉक्टरों ने विरोध जताया। जयपुर में मारपीट की घटना विरोध में हाथ पर काली पट्टी बाँधकर डॉक्टरों ने मरीजों का इलाज किया। पश्चिम बंगाल के डॉक्टरों की हड़ताल के समर्थन में भारतीय चिकित्सा संघ (आईएमए) ने अखिल भारतीय विरोध दिवस घोषित किया है। अब ऐसी स्थिति में मरीजों के इलाज में काफ़ी दिक्कतें आ रही हैं। सरकार और प्रशासन लाचार नज़र आ रहे हैं। अस्पतालों में बार-बार ऐसी घटनाओं के होने के बावजूद समाधान नज़र क्यों नहीं आता?
क्यों नहीं रुक रहीं मारपीट की घटनाएँ?
क्या अस्पतालों में डॉक्टरों पर हिंसा व्यवस्थागत लापरवाही और सरकारी अनदेखी का नतीजा नहीं है? क्या पश्चिम बंगाल में डॉक्टर के साथ मरीज के परिजनों की मारपीट का मामला भी कुछ ऐसा ही नहीं है? घटना के बाद राज्य में हंगामा मचा। डॉक्टरों ने आंदोलन किया और राज्य में स्वास्थ्य व्यवस्था इतनी चरमरा गई कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को आंदोलन कर रहे सभी डॉक्टरों को 4 घंटे के भीतर काम पर लौटने की चेतावनी देनी पड़ी। यह घटना इस स्तर पर सिर्फ़ इसलिए पहुँची कि कोलकाता के सरकारी एसएसकेएम अस्पताल में 75 वर्षीय बुजुर्ग की इलाज के दौरान मौत हो जाने के बाद उसके परिजनों ने दो जूनियर डॉक्टरों पर हमला कर दिया था।
यह कोई अकेला मामला नहीं है। इससे कुछ दिन पहले ही उत्तर प्रदेश के मेरठ के एलएलआरएम मेडिकल कॉलेज में इलाज के लिए भर्ती 3 साल के बच्चे के परिजनों और जूनियर डॉक्टर के बीच हाथापाई हो गई थी। परिजनों का आरोप था कि डॉक्टर लापरवारी बरत रहे थे। दरअसल, सरकारी अस्पतालों में आए दिने ऐसे मामले होते रहे हैं। जब तब निजी अस्पतालों में भी ऐसी घटनाएँ हो जाती हैं। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के एक अध्ययन के अनुसार, 75% से अधिक डॉक्टरों ने काम पर हिंसा का सामना किया है। तो ये घटनाएँ रुकती क्यों नहीं हैं? एक सवाल और है कि लगातार ऐसी घटनाएँ आने के बाद भी सरकारों ने क्या क़दम उठाए हैं?
डॉक्टरों के ख़िलाफ़ हिंसा की ऐसी घटनाएँ लंबे समय से होती रही हैं। क़ानून भी बनाए गए, लेकिन मामले नहीं रुके। तमिलनाडु के तूतीकोरिन में तो एक डॉक्टर की हत्या कर दी गई थी।
जनवरी 2012 में तूतीकोरिन की एक महिला डॉक्टर को एक गर्भवती महिला के पति ने मार डाला था। गर्भवती महिला को गंभीर हालत में भर्ती कराया गया था। उसे दूसरे अस्पताल में रेफ़र किया गया था, लेकिन शिफ़्ट होने से पहले ही उसकी मौत हो गई। पति ने तीन सहयोगियों के साथ महिला चिकित्सक के परामर्श कक्ष में प्रवेश किया और डॉक्टर पर तलवार से हमला किया। 2014 में, पंजाब के मनसा ज़िले में एक डॉक्टर के क्लिनिक को एक लड़के की मौत के बाद जला दिया गया था।
क़ानून कारगर क्यों नहीं?
डॉक्टरों के ख़िलाफ़ हिंसा की अनगिनत घटनाएँ पूरे देश में हर रोज़ दर्ज की जाती हैं, जिनमें से कई तो गंभीर घायल होने की भी होती हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली जैसे देश के प्रमुख चिकित्सा संस्थान भी इससे अछूते नहीं हैं। देश के अधिकतर राज्यों में कुछ प्रकार के मेडिकेयर सर्विस पर्सन्स और मेडिकेयर सर्विस इंस्टीट्यूशंस (हिंसा की रोकथाम या संपत्ति की क्षति या नुक़सान) अधिनियम पारित और अधिसूचित किए गए हैं। लेकिन वहाँ कितनी स्थिति सुधरी? इस क़ानून के तहत कार्रवाई हुई भी या नहीं?
द नेशनल मेडिकल जर्नल ऑफ़ इंडिया की 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार, ऐसे ही दो राज्यों- पंजाब और हरियाणा में मेडिकोज लीगल एक्शन ग्रुप (एमएलएजी) ट्रस्ट ने सभी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षकों से आरटीआई के तहत जानकारी माँगी थी। तब इन दोनों राज्यों में डॉक्टरों के ख़िलाफ़ हिंसा की रोकथाम अधिनियम 8 साल से लागू था। जानकारी माँगी गई थी कि रोगियों या उनके परिजनों के ख़िलाफ़ इन अधिनियमों के तहत डॉक्टरों या अस्पतालों द्वारा कितनी शिकायतें दर्ज की गईं? इन अधिनियमों के तहत 2010 से 2015 तक कितने लोगों को मारपीट का दोषी पाया गया?
रिपोर्ट के अनुसार, जवाब मिला कि अधिकांश शिकायतों को एफ़आईआर के रूप में दर्ज नहीं किया गया था जो कि सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के अनुसार सभी पुलिस अधिकारियों द्वारा पालन की जाने वाली एक अनिवार्य प्रक्रिया है। कुछ मामलों में जहाँ शिकायत के आधार पर प्राथमिकी दर्ज की गई थी, संबंधित दोनों पार्टियों के बीच समझौता होने के बाद इसे रद्द कर दिया गया था। चालान भरने के बाद बहुत कम मामले अदालतों तक पहुँचे। 2010 से 2015 के बीच मेडिकेयर प्रतिष्ठान पर हमले के आरोपी किसी व्यक्ति को मेडिकेयर सर्विस पर्सन्स एंड मेडिकेयर सर्विस इंस्टीट्यूशंस क़ानून के तहत दंडित नहीं किया गया।
पूरी दुनिया में डॉक्टरों के ख़िलाफ़ हिंसा के मामले
भारत ही ऐसा देश नहीं है जो अपने डॉक्टरों के ख़िलाफ़ हिंसा का सामना कर रहा है। ऐसी घटनाएँ पूरी दुनिया में हो रही हैं। अमेरिका में 1980 और 1990 के बीच हिंसा के कारण 100 से अधिक स्वास्थ्य कर्मचारियों की मौत हो गई। 170 मेडिकल कॉलेजों में किए गए एक अन्य सर्वेक्षण में पता चला कि आपातकालीन वार्ड के 57 फ़ीसदी कर्मचारियों को सर्वे से पहले 5 साल में किसी न किसी हथियार के साथ धमकी दी गई थी। ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन द्वारा 2008 में 600 डॉक्टरों के एक सर्वेक्षण से पता चला था कि हालाँकि एक साल में एक-तिहाई लोग मौखिक या शारीरिक हमले का शिकार हुए थे, उनमें से आधे से अधिक (52%) ने इस घटना की सूचना नहीं दी थी।
चीनी डॉक्टर अक्सर हिंसा के शिकार होते हैं। जून 2010 में एक डॉक्टर और नर्स को 13 साल पहले लिवर कैंसर से मरने वाले मरीज के बेटे द्वारा शेडोंग प्रांत में बुरी तरह से चाकू मार दिया गया था। फुजियन प्रांत में नवजात बच्चे की मौत के बाद परिजनों के ग़ुस्से से खौफ़ में एक बाल रोग विशेषज्ञ पाँचवीं मंजिल की खिड़की से छलांग लगा ली थी जिससे वह घायल हो गया था। बांग्लादेश में भी ऐसी घटनाएँ काफ़ी ज़्यादा हुईं। पाकिस्तान के 675 चिकित्सकों के एक अध्ययन में सामने आया था कि 76% ने पिछले 2 महीनों के दौरान मौखिक या शारीरिक हिंसा की सूचना दी।
देश में कैसे कम होगी ऐसी हिंसा?
अक्सर यह देखा जाता है कि देश में डॉक्टरों के ख़िलाफ़ हिंसा के कई कारण हैं। इसमें सबसे बड़ा कारण तो यह है कि सरकारी अस्पतालों की दयनीय स्थिति है। डॉक्टर और कर्मचारियों की कमी, अस्पतालों में इलाज के लिए लंबी लाइन, मरीजों के साथ बुरा व्यवहार, साफ़-सफ़ाई की कमी, बेड को दो-दो मरीजों के साथ साझा करने जैसी कई दिक्कतें हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति 1000 जनसंख्या पर एक डॉक्टर होने चाहिए, लेकिन 2018 का सरकारी आँकड़ा है कि भारत में एक डॉक्टर पर 11082 जनसंख्या निर्भर है। यानी अस्पतालों और डॉक्टरों पर जबर्दस्त दबाव है।
सरकारी अस्पतालों की व्यवस्थागत समस्याएँ भी हैं। स्वास्थ्य के लिए ख़राब बजटीय आवंटन को देखते हुए इन समस्याओं के जल्द ख़त्म होने के आसार नहीं हैं।
स्वास्थ्य सुविधाओं को सुधारा जाएगा तभी स्वास्थ्य पेशेवरों से समर्पण और ज़िम्मेदारी के साथ काम करने की उम्मीद की जा सकती है। नियमों को कड़ाई से लागू करने से मरीजों के परिजनों को भी नियम तोड़ने पर कार्रवाई का डर रहेगा और डॉक्टर भी ठीक से काम करेंगे।
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