तमिलनाडु की सत्तारूढ़ डीएमके पार्टी नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) 2019 के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई है। उसने सुप्रीम कोर्ट में एक शपथपत्र दाखिल करके सीएए को देश की धर्मनिरपेक्षता के ताने-बाने के खिलाफ बताया है। उसका कहना है कि सीएए धर्म के आधार पर भेदभाव करता है। यह तमिल लोगों के खिलाफ है। तमिलनाडु और डीएमके पहला ऐसा राज्य और पार्टी है जो सीएए के खिलाफ कोर्ट पहुंची है। इस घटनाक्रम से यह बात भी सामने आ गई कि देश के मौजूदा नेताओं में डीएमके प्रमुख एम के स्टालिन पूरी तरह सिद्धांतवादी राजनीति कर रहे हैं। तमाम मुद्दों पर वो खुलकर स्टैंड लेते रहे हैं और केंद्र की सत्तारूढ़ बीजेपी को कटघरे में खड़ा करते रहे हैं।
तमिलनाडु ने दरअसल, तमिल शरणार्थियों के मद्देनजर यह कदम उठाया है। 2019 में जब केंद्र की बीजेपी सरकार सीएए बिल को पास करवा रही थी तो इससे तमिल शरणार्थियों को बहुत उम्मीदें थीं लेकिन जब उन्हें इसमें शामिल नहीं किया गया तो वे निराश हो गए। महत्वपूर्ण यह है कि 2019 में एआईडीएमके ने संसद में इस बिल का समर्थन किया था। अगर एआईडीएमके उस समय इस बिल के विरोध में खड़ी हो जाती तो सरकार को इसमें बदलाव करने पड़ते। डीएमके अब सीएए को फिर से चर्चा के केंद्र में ले आया है।
हलफनामे का मूल प्रश्न
डीएमके ने सुप्रीम अदालत में हलफनामा दायर कर सीएए को रद्द करने की गुहार लगाई है। उसका सवाल है कि मुसलमानों को छह देशों में भी पूरी तरह से बाहर क्यों रखा गया, जहां उन्हें उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है।...यह अधिनियम तमिल लोगों के खिलाफ है। इस कानून ने तमिल रिफ्यूजी की समस्या को पूरी तरह नजरन्दाज कर दिया। सीएए में भारतीय मूल के श्रीलंकाई तमिलों को भी शामिल किया जाना चाहिए था। पूरी दुनिया जानती है कि तमिल शरणार्थियों को श्रीलंका में धार्मिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। इस कानून ने तमिल शरणार्थियों की वास्तविक समस्या की अनदेखी की। डीएमके ने तमिल रिफ्यूजियों को इस कानून के दायरे में नहीं लाने के लिए अधिनियम पर सवाल उठाए हैं।शपथपत्र में कहा गया कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के हिन्दुओं को इसमें इस आधार पर शामिल किया गया कि वहां उनका धार्मिक आधार पर उत्पीड़न किया जा रहा है। श्रीलंका उन देशों में है, जहां भारतीय तमिलों को इसी तरह के धार्मिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा क्योंकि वे मुख्य रूप से हिंदू थे। लेकिन तमिल शरणार्थियों की दुर्दशा पर केंद्र चुप रहा ... तमिल शरणार्थियों के प्रति केंद्र के सौतेले व्यवहार ने उन्हें लगातार भय में रहने के लिए छोड़ दिया है।
तमिल रिफ्यूजियों के साथ सौतेला रवैया
तमिल रिफ्यूजियों की स्थिति का अंदाजा इस घटना से आप लगा सकते हैं। संसद में दिसंबर 2019 में जैसे ही सीएए पारित हुआ। कुछ दिनों बाद, तमिलनाडु के सलेम जिले के पवलथनूर में एक शरणार्थी कैंप में रहने वाले श्रीलंकाई तमिल माता-पिता से पैदा हुए 28 वर्षीय टी. यानाधन ने कलेक्टर के पास खुद को मारने की मर्सी पिटिशन लगाई। उन्होंने अपनी याचिका YouTube पर भी अपलोड कर दी।यनाधन आज भी भारतीय नागरिक नहीं है। वह श्रीलंकाई नागरिक भी नहीं है। असल में वो किसी देश के नागरिक नहीं हैं। वो सिर्फ भारत को जानता है। लिट्टे के आंदोलन के बाद जब श्रीलंका में गृहयुद्ध शुरू हुआ तो यनाधन के माता-पिता दरबदर हो गए। यनाधन का जन्म भारत के शरणार्थी कैंप में हुआ था। यनाधन तमिलनाडु के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले 94,069 श्रीलंकाई तमिल शरणार्थियों में से एक है। उनमें से अधिकांश तमिलनाडु के 15 जिलों में 107 शिविरों में रहते हैं।
भारत में रह रहे किसी भी श्रीलंकाई तमिल रिफ्यूजी के पास मतदान या संपत्ति का अधिकार नहीं है। उनके पास श्रीलंका में भी ये अधिकार नहीं थे या हैं। ऐसे ही लोगों की आखिरी उम्मीद सीएए थी। लेकिन मोदी सरकार के कानून ने श्रीलंकाई तमिल रिफ्यूजियों को छोड़ दिया।
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