क्या सरकार जल्द ही अवमानना को आपराधिक मामलों की श्रेणी से बाहर कर देगी और अवमानना अब अपराध नहीं माना जाएगा? इसकी संभावना इसलिए है कि सरकार की ओर से गठित एक समिति ने इसकी सिफ़ारिश की है। भारत दुनिया के उन चुनिंदा देशों में है, जहाँ अवमानना को अपराध माना जाता है।
दरअसल विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में पहले से नीचे आने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की बदनामी होने के बाद सरकार ने इस ओर ध्यान दिया और एक समिति का गठन किया। उस समिति ने कई सुझाव दिए हैं जिनमें यह भी कहा गया है कि अवमानना को अपराध की श्रेणी में न रखा जाए।
निशाने पर हैं पत्रकार?
याद दिला दें कि सरकार की आलोचना करने वालों पर अवमानना का मामला दर्ज करने की प्रवृत्ति पिछले दिनों बढ़ी हैं। सरकार से असहमति रखने वालों और उसकी नीतियों की आलोचना करने वाले लोगों, खास कर पत्रकारों, को निशाने पर लिया जाता है और उन पर आनन फानन में अवमानना का मामला लगा दिया जाता है।
समिति ने यह भी सिफ़ारिश की है कि मीडिया में छपी किसी ख़बर, तसवीर, कार्टून या विचार छापे जाने की वजह से एफ़आईआर दर्ज करने से पहले भारतीय प्रेस परिषद की अनुमति लेना ज़रूरी कर दिया जाए।
सरकार की ओर से गठित समिति ने जो सिफ़ारिशें की हैं, उनमें यह भी कहा गया है कि मीडिया से जुड़े पुराने, बेकार हो चुके और औपनिवेशिक क़ानूनों की समीक्षा की जानी चाहिए।
समिति की सिफ़ारिशों का विरोध
'द वायर' ने एक ख़बर में कहा है कि 15 सदस्यों की इस समिति के एक सदस्य व मशहूर पत्रकार पी. साईनाथ ने सिफारिश के कई बिन्दुओं पर आपत्ति जताई है और उसके ख़िलाफ़ एक 'डिसेंट नोट' या 'असहमति पत्र' भी दिया है। उनका कहना है कि प्रेस की स्वतंत्रता में सुधार करने के लिए जो ज़रूरी बातें हैं, वे इस सिफ़ारिश में शामिल नहीं की गई हैं।
सरकार को सौंपी गई रिपोर्ट में कॉरपोरेट मीडिया घरानों की ज़िम्मेदारी तय नहीं की गई है और पत्रकारों को मनमर्जी से नौकरी से निकालने और उन पर दबाव डाल कर उनसे ज़बरन इस्तीफ़ा लिखवाने जैसे मुद्दों पर समिति चुप है।
साईनाथ ने कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ख़तरा है और सरकार से असहमित रखने वाले पत्रकारों के लिए अघोषित आपातकाल की स्थिति पैदा हो गई है। प्रेस की आज़ादी को बचाने के लिए ज़मीनी स्तर पर कुछ भी नहीं कहा गया है।
इंटरनेट बंद क्यों?
बता दें कि भारत में मीडिया की आज़ादी को लेकर कई बार चिंता जताई गई है। मीडिया व पत्रकारों से जुड़े 52 नियम हैं। मामूली बातों पर भी पत्रकारों पर मामला थोप दिया जाता है और कई बार उन्हें झूठे मामलों में फँसा दिया जाता है। कश्मीर में स्थिति ख़ास तौर पर बुरी है। लेकिन समिति ने जो रिपोर्ट सौंपी है, उसमें इन बातों की कोई चर्चा नहीं की गई है, यह ज़रूर कहा गया है कि पत्रकारों की सुरक्षा के लिए क्या सकारात्मक काम किया जा सकता है।
पी. साईनाथ ने अपने असहमति पत्र में इंटरनेट बंद करने का मुद्दा उठाया है और कहा है कि इंटरनेट बंद किए जाने के आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व मानवाधिकार से जुड़े प्रभाव हैं, जिनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है।
साईनाथ ने यह भी कहा है कि लॉकडाउन लगाते समय प्रेस को आवश्यक सेवा के तहत रखा गया। इसके बावजूद 22 मामलों में पत्रकारों को गिरफ़्तार किया गया, नौ मामलों में उन्हें नोटिस दिया गया और 22 मामलों में उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की गईं।
राजद्रोह पर चुप्पी क्यों?
दिलचस्प बात यह है कि समिति की रिपोर्ट में 'सेंसरशिप', 'राजद्रोह', 'एफ़आईआर', जैसे शब्द ही नही हैं।
साईनाथ ने अपने असहमति पत्र में ज़ोर देकर कहा है कि कप्पन सिद्दीक़ी जैसे तमाम पत्रकारों को जेल से रिहा किया जाना चाहिए और पत्रकारों के ख़िलाफ़ दर्ज कराए गए एफ़आईआर वापस लिए जाने चाहिए। उन्होंने यह भी कहा है कि ब्रिटिश जमाने के कई क़ानूनों का इस्तेमाल कर पत्रकारों को झूठे मामलों में फंसाने का काम बंद किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा है कि पत्रकारों पर थोपे गए मामलों से निपटने के लिए एक संगठन होना चाहिए, जिससे पत्रकारों को क़ानूनी मदद मिले।
याद दिला दें कि विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2020 में भारत 142वें स्थान पर है। कुल 180 देशों के सूचकांक में पाकिस्तान 145वें स्थान पर है, यानी भारत का स्थान पाकिस्तान से थोड़ा ही ऊपर है। साल 2006 में इस सूचकांक में भारत का स्थान 106 था। यह सूचकांक पेरिस स्थित रिपोर्टस सान्स बोर्डर्स आरएसएफ़ तैयार करता है।
अपनी राय बतायें