हर रोज़ भेदभाव और अपमान झेलते रहे दलितों को हाथरस मामले ने किस हद तक झकझोर दिया है, इसका इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इस घटना के बाद 236 दलितों ने बौद्ध धर्म अपना लिया है। वह भी एनसीआर में ही।
धर्म परिवर्तन करने वाले के हवाले से 'द इंडियन एक्सप्रेस' ने यह रिपोर्ट दी है। बौद्ध धर्म अपनाने वाले पवन वाल्मीकि ने कहा कि वह, उनके परिवार और कई पड़ोसियों ने 14 अक्टूबर को बौद्ध धर्म अपना लिया। उन्होंने कहा कि करेरा के 236 लोग डॉ. भीमराव आंबेडकर के भाई के पड़पोते राजरतन आंबेडकर की उपस्थिति में बौद्ध धर्म ग्रहण किया। उनका कहना है कि वे पीढ़ियों से ऐसा भेदभाव और अपमान सहते आए हैं, लेकिन हाथरस मामले ने उनको हिलाकर रख दिया। इस मामले में सरकारी मशीनरी के रवैये ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी।
पिछले महीने जब हाथरस में दलित युवती के साथ गैंगरेप की वारदात हुई तो शुरुआत में मुक़दमा दर्ज नहीं किया गया। पीड़िता के इलाज के उचित इंतज़ाम नहीं हुए। जब उसे दिल्ली के सफदरगंज अस्पताल लाया गया तब तक देर हो गई और पीड़िता की मौत हो गई। चार सवर्णों पर गैंगरेप का आरोप लगा। पुलिस ने परिवार वालों की ग़ैर मौजूदगी में रातोरात उसका अंतिम संस्कार कर दिया। परिवार वालों को चेहरा तक नहीं देखने दिया गया। परिवार ने आरोप लगाया कि उसपर दबाव डाला जा रहा है। आरोपियों के पक्ष में सर्वर्णों की बैठकें हुईं। अब तो पीड़िता का परिवार हाथरस के अपने गाँव को छोड़ना चाहता है। कोई अपना घर छोड़ने को मजबूर क्यों हो सकता है?
इस पूरे मामले में दलित को दबाने के आरोप लगाए जा रहे हैं। दलितों के साथ उत्पीड़न और इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने पर उनकी आवाज़ को दबाने के आरोप लगाए जाते रहे हैं। ऐसा सरकारी रिपोर्टों में भी पुष्ट होता है। दलित के उत्पीड़न पर 2018 में एक रिपोर्ट आई थी। उस रिपोर्ट में 2007 से 2017 के बीच दलितों के उत्पीड़न की स्थिति बताई गई थी।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के आँकड़े बताते हैं कि 2007-2017 के दौरान दलित उत्पीड़न के मामले 66 फ़ीसदी बढ़ गए थे। 2017 में रोज़ाना देश भर में छह दलित महिलाओं से दुष्कर्म के मामले दर्ज किए गए। यह संख्या 2007 की तुलना में दोगुनी थी। उस रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर 15 मिनट में दलितों के साथ आपराधिक घटनाएँ हुईं। 2006 में दलितों के ख़िलाफ़ अपराधों के कुल 27,070 मामले सामने आए थे जो 2016 में बढ़कर 40,801 मामले दर्ज किए गए।
दलिद उत्पीड़न के ये तो वे आँकड़े हैं जो दर्ज किए जाते हैं। हर रोज़ अनगिनत ऐसे मामले आते हैं जो थाने तक पहुँच ही नहीं पाते। यदि थाने तक पहुँचते भी हैं तो दबंगों के दबाव में शायद ही रिपोर्ट दर्ज की जाती होगी।
थानों की स्थिति सबको पता है। एक सामान्य व्यक्ति को भी अपराध की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए किस स्थिति से गुजरना पड़ता है।
उत्पीड़न से हटकर अब भेदभाव और अपमान की बात ही करें तो अधिकतर सवर्ण अभी भी दलितों को अक्सर उनको जाति सूचक शब्दों से बुलाते हैं। जाति सूचक गालियाँ दिए जाने के मामले भी आते रहे हैं। अभी भी दलितों से छुआछूत जैसी दकियानूसी मानसिकता रखी जाती है। यह सिर्फ़ गाँवों की बात ही नहीं है बल्कि शहरों में भी यह सामंती मानसिकता बैठी हुई है। अच्छे-खासे पढ़े लिखे लोगों में भी। दिल्ली-एनसीआर के ग़ाज़ियाबाद जैसे शहर में ही।
नौकरी में भेदभाव
14 अक्टूबर को बौद्ध धर्म अपनाने वाले पवन वाल्मीकि भी ऐसे भेदभाव की आपबीती सुनाते हैं। 'द इंडियन एक्सप्रेस' से बातचीत में ग़ाज़ियाबाद के करेरा गाँव में रहने वाले पवन कहते हैं कि वह ग़ाज़ियाबाद में एक लग्ज़री अपार्टमेंट कॉम्पलेक्स में चपरासी की नौकरी के लिए गए थे। लेकिन अनुसूचित जाति का उपनाम 'वाल्मीकि' ही काफ़ी था। नौकरी देने वाले ने कहा कि वह सिर्फ़ सफ़ाई का काम कर सकता है। पवन ने कहा, 'मैंने सफ़ाई के काम के लिए आवेदन नहीं किया (लेकिन) मैंने नौकरी की क्योंकि मुझे पैसे की ज़रूरत थी। हालाँकि, मैंने भेदभाव को पहचान लिया। हम पीढ़ियों से इसका सामना कर रहे हैं।'
रिपोर्ट के अनुसार, पवन की 45 वर्षीय माँ सुनीता घरों में काम करती हैं। उन्होंने जब एक घर के मालिक से एक गिलास पानी माँगा तो उन्होंने बड़े ही अनमने ढंग से स्टील के एक गिलास में पानी दे दिया और कहा कि सिर्फ़ इसी का इस्तेमाल करना।
सुनीता कहती हैं, 'यह रसोई के एक कोने में रखा गया था, मेरे उपयोग के लिए एक तरफ़ चिह्नित किया गया था - रसोई में जाने वाले सभी लोग यह जानते थे कि मैं वाल्मीकि हूँ...।' वह कहती हैं,
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मेरे पिता के साथ भेदभाव किया गया था, मेरे साथ भी हुआ, अब मेरे बच्चे और उनके बच्चे हैं... यह कब रुकेगा? हम कब आगे बढ़ेंगे?
सुनीता, घरों में सफ़ाई का काम करने वाली महिला
इनमें 65 वर्षीय इंदर राम भी शामिल हैं। उन्होंने कहा, '19 साल की दलित महिला के साथ हाथरस में जो हुआ उसके बाद हमने धर्मपरिवर्तन का फ़ैसला किया। बौद्ध धर्म में कोई जाति नहीं है; कोई भी ठाकुर या वाल्मीकि नहीं है। हर कोई एक इंसान है, हर कोई सिर्फ़ एक बौद्ध है।' 50 वर्षीय कमलेश कहते हैं कि हममें से अधिकतर लोगों के लिए हाथरस की घटना आख़िरकार फ़ैसले लेने वाला साबित हुई।
70 वर्षीय श्रीचंद ने कहा कि जब भी देश में दलित पर अत्याचार होता है, हमें अपने बच्चों के लिए डर लगने लगता है। पवन ने कहा, 'हमने पहले भी धर्म बदलने के बारे में सोचा था लेकिन इस (हाथरस) घटना ने हमें हिला दिया - जिस तरह से राज्य की मशीनरी पीड़ित परिवार की मदद कर रही है, जिस तरह से उसका 2.30 बजे अंतिम संस्कार किया गया था।' पवन ने कहा कि वह नहीं चाहते कि जो उनके साथ भेदभाव हो रहा है वह उनके बच्चों के साथ भी हो और इसलिए उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। वही धर्म जिसे बाबा साहब आंबेडकर ने अपना लिया था।
बाबा साहब डॉ. आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को महाराष्ट्र के नागपुर में आयोजित धर्मांतरण कार्यक्रम में बौद्ध धर्म अपनाया था। इस धर्मांतरण समारोह में बाबा साहब के 3,80,000 अनुयायियों ने भी हिन्दू धर्म त्यागकर बौद्ध धर्म अपनाया था।
यह उनका दो दशक पुराना वादा था जिसे उन्होंने उस दिन पूरा किया था। अक्टूबर 1935 में येवला में डिप्रेस्ड क्लासेज के प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए बाबा साहब ने कहा था-
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मेरा दुर्भाग्य है कि मैं एक हिन्दू अस्पृश्य के रूप में पैदा हुआ। मैं इस तथ्य को नहीं बदल सकता। मगर मैं ऐलान करता हूँ कि ऐसे हेय और अपमानजनक हालात में जीने से इनकार करना मेरी शक्ति के भीतर है। मैं दृढ़तापूर्वक आपको यह आश्वासन देता हूँ कि मैं एक हिन्दू के रूप में नहीं मरूँगा।
बाबा साहब डॉ. आंबेडकर
लेकिन बौद्ध धर्म अपनाने के बाद बाबा साहब ने कहा था-
‘असमानता और उत्पीड़न के प्रतीक, अपने प्राचीन धर्म को त्यागकर आज मेरा पुनर्जन्म हुआ है। अवतरण के दर्शन में मेरा कोई विश्वास नहीं है, यह दावा सरासर ग़लत और शातिराना होगा कि बुद्ध भी विष्णु के अवतार थे। मैं किसी हिन्दू देवी-देवता का भक्त नहीं हूँ। आइंदा मैं कोई श्राद्ध नहीं करूंगा। मैं बुद्ध के बताए अष्टमार्ग का दृढ़ता से पालन करूंगा। बौद्ध धर्म ही सच्चा धर्म है और मैं ज्ञान, सद्मार्ग और करुणा के तीन सिद्धांतों के प्रकाश में जीवनयापन करूंगा।’
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