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कोरोना : तांडव इन स्लो मोशन

कोरोना का पूरी दुनिया में मचा तांडव अभिशाप है, वरदान है, या चेतावनी, समूची मानवता इस निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास कर रही है। कारण है कि कोरोना ने जहाँ मानव के लिए समस्या उत्पन्न की है, प्रकृति के लिए वरदान भी सिद्ध हो रही है।

क्या है कोरोना?

कोरोना वायरस न जीवाणु है, न कीटाणु, वह बस एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म विषाणु है। यह हमारे रसोई के डब्बे में पड़े हुए उस चने के सूखे दाने की तरह है जो महीनों तक डब्बे में बंद भी रह सकता है, तो पानी में भिंगो देने पर कुछ ही घंटों में अंकुरित भी हो सकता है। 
कोरोना भी अनुकूल स्थिति पाते ही अबाध गति से बढ़ता है। मगर जैसे चने के दाने को भून देने से उसकी अंकुरित होने की क्षमता समाप्त हो जाती है, वैसे ही कोरोना वायरस भी साबुन के झाग से स्पर्श होते ही विखंडित होकर अपनी शक्ति खो बैठता है।  सूर्य की रश्मि पड़ने पर भी यह कुछ ही मिनटों में निस्तेज हो जाता है।

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कोरोना की रफ़्तार

सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार 90% संक्रमण बंद वातावरण में लंबे संसर्ग से फैलता है। कोरोना की संक्रमण क्षमता 1.2.25 है जो कि सामान्य नजला जुकाम के 1.1 का दुगुना है। अर्थात एक संक्रमित व्यक्ति औसतन दो से अधिक नए लोगों को संक्रमित करता है। औसतन 80% लोगों का कुछ न बिगाड़ने वाला यह वायरस 20% लोगों को लम्बे समय तक अस्पताल में रहने को मजबूर कर रहा है। विश्व भर में कोरोना रोगियों में से करीब 5% की मौत हो रही है। 
यदि कोरोना विश्व भर में निर्बाध गति से फ़ैल जाय तो भारत में 26 करोड़ लोगों को अस्पताल की ज़रूरत और विश्व भर में क़रीब 35 करोड़ मौत होने की आशंका है।
कोरोना के भय से 80% मानवता आज घरों में दुबकी हुई है। हर व्यक्ति को अपने बौनेपन का एहसास हो रहा है। एहसास हो रहा है अपने अस्तित्व की महत्वहीनता का। आवश्यकता और चाहत के बीच का अंतर स्पष्ट होता जा रहा है।  जीवन में बुनियादी वस्तुओं बनाम विलासी वस्तुओं का भान अब मनुष्य बेहतर कर पा रहा है। ‘कर लेंगे दुनिया मुट्ठी में’ का दम्भ कितना खोखला था यह भी स्पष्ट होते जा रहा है।

क्रूर मजाक

कोरोना ने हर व्यक्ति को उसकी अधिकतम शारीरिक परिधि का भी एहसास दिला दिया है। पर जो असंख्य लोग घरों में नहीं है, उनके साथ कोरोना ने क्रूर मजाक भी किया है। उन्हें अपनी सारी विपत्तियों को स्वयं ही झेलने पर मजबूर भी कर दिया है।
कोरोना के भय से भारत में ऐसे 4 करोड़ के आसपास श्रमिक महानगरों से अपने अपने गृह राज्यों की ओर औंधा पलायन कर रहे हैं। प्रधानमंत्री द्वारा चार घंटों के अंदर लागू होनेवाली औचक लॉकडाउन के चलते शहरी श्रमिकों ने शहरों में बिना आमदनी के नारकीय जीवन व्यतीत करने की मजबूरी से बेहतर अपने अपने गृह राज्यों की ओर पलायन का विकल्प चुना है।
20 लाख करोड़ का आर्थिक पैकेज भी इस औंधे पलायन को नहीं रोक पायेगा क्योंकि कोरोना से पहले जो जनमानस सुविधा को प्राथमिकता बनाये हुए था, कोरोना के भय से अब सुरक्षा उसकी प्राथमिकता बन गई है।
भारत का औसत नागरिक कोरोना से स्थायी निदान मिलने तक केवल अपने परिवार के रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य जैसी मूल सुरक्षा पर ध्यान देगा और सुविधा की चीजों से दूर रहेगा।  

रुक सकता था पलायन?

यह औंधा पलायन तभी रुक सकता था अगर 24 मार्च को लॉकडाउन के साथ ही भारत सरकार यह घोषणा भी कर देती कि घरों में बंद रहने के एवज में बिना आमदनी के घर चलाने हेतु भारत सरकार हर वोटर को न्यूनतम गुजारा भत्ता 178 रुपये प्रतिदिन मुहैया कराएगी।
जापान अपने हर नागरिक को 930 डॉलर कोरोना भत्ता दे रहा है। कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, इटली, आयरलैंड, मलेशिया, फ्रांस, जर्मनी आदि भी इसी तर्ज पर अपने देशवासियों को यूनिवर्सल बेसिक इनकम दे रहे हैं ताकि जनमानस आतंकित होकर उन्मादी निर्णय न लेने लग जाए।

साइड इफेक्ट्स

इस औंधा पलायन का भौतिक असर यह होगा कि शहरों के इंफ्रास्ट्रक्चर के काम लंबित होंगे। दूसरी और कोरोना के चलते आम जनमानस में जो बुनियादी वस्तुओं का महत्त्व बढ़कर महत्वाकांक्षा घटी है, उसके चलते खेती के उत्पादों की कीमत में उछाल आना स्वाभाविक है।
किसान को अपनी लागत का बेहतर रिटर्न मिलना शुरू होगा। आजीविका तथा निवास स्थान में दूरी घटेगी जिसके चलते आवागमन की आवश्यकता कम होगी।

चीन होगा कमज़ोर?

फ़िलहाल यह लग रहा है कि सामरिक दृष्टि से भविष्य में चीन थोड़ा कमज़ोर तथा अमेरिका अधिक मजबूत होकर उभरेगा। वर्तमान चीन में जो सस्ता श्रम प्रदान करने की क्षमता है, वह अब खिसक कर पूर्वी एशिया के मलेशिया, फिलीपींस, ताईवान, वियतनाम, थाईलैंड जैसे घनी आबादी वाले देशों की ओर जाएगा जिसकी शुरुआत हो चुकी है।
चीन से जो उत्पादन खिसकेगा, उसकी भारत में बड़े स्तर पर आने की संभावना कम है क्योंकि वर्तमान भारत का मानव संसाधन निपुण श्रमिक या ‘स्किल्ड लेबर’ कम है।
एक और महत्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि चीन की तानाशाही की ओर झुकी शासन व्यवस्था कोरोना मामले में बदनाम हो चुकी है तथा कोई भी विश्वस्तरीय उत्पादक इतनी जल्दी फिर किसी तानाशाही व्यवस्था में निवेश करने से बचेगा। पिछले कुछ वर्षों में विश्व स्तर पर भारत की छवि पारदर्शी लोकतंत्र की कम और एक ‘बेनेवोलेंट डिक्टेटरशिप’ की अधिक बनी है।   

क्या किया सरकार ने?

कोरोना से बचने के लिए भारत सरकार ने पहला प्रशासनिक कदम 12 मार्च 2020 को लिया जब उसने पूरे भारत में 1897 का एपिडेमिक्स एक्ट लागू कर दिया। इस क़ानून के तहत महामारी के दौरान हर ज़िला अपने आप में स्वायत्त इकाई माना जाता है और ज़िलाधिकारी को महामारी से अपने ज़िलावासियों को बचाने के लिए कोई भी कदम उठाने की छूट होती है। ऐसी विकेन्द्रीकृत व्यवस्था के लागू होते ही कार्यपालिका सर्वोपरि हो जाती है जिस पर विधायिका का वर्चस्व घट जाता है। 
इस क़ानून के लागू होते ही असर यह हुआ कि जिन जिन जिलों में समझदार ज़िलाधिकारी थे, वे अपने बढ़े हुए अधिकार की स्थिति में कानूनी दंड एवं बदनामी की संभावना को भाँप गए।

विकेंद्रीकरण के फ़ायदे

ऐसे सभी समझदार ज़िलाधिकारियों ने विधायिका के राजनीति प्रेरित हस्तक्षेप को दरकिनार करते हुए अपने अपने ज़िलों में कड़े कदम उठाने शुरू कर दिए। कई ज़िलाधिकािरियों ने ज़िला सील कर दिया, कई ने बार, होटल, भीड़ इकट्ठा होने जैसे क्रियाओं पर तुरंत रोक लगा दी। 

उदाहरण के तौर पर 20 मार्च को ही तमिलनाडु के उन ज़िलों ने सड़क यातायात सील कर दिया जो ज़िले पड़ोसी राज्यों से सटे थे। 13 मार्च को ही कर्नाटक ने लॉकडाउन घोषित कर धारा 144 लगा दी। केरल ने अपना पहला क्वरेन्टाइन 12 मार्च को ही कासरगोड ज़िले में कर दिया था।
इस विकेन्द्रीकृत व्यवस्था का परिणाम आज 60 दिनों बाद देखा जा सकता है कि भारत के 200 से अधिक ज़िलों में कोरोना के एक भी मामले नहीं हैं। उन सभी ज़िलों में जहाँ त्वरित कार्रवाई हुई, कोरोना के अपेक्षाकृत कम मामले स्पष्ट दिख रहे हैं।

व्यक्तिकेंद्रित निर्भरता

भारतीय जनमानस की दुविधा यह है कि पिछले 6 वर्षों से वह विकेन्द्रित व्यवस्था के स्थान पर व्यक्तिकेंद्रित निर्भरता में अधिक निवेश किये हुए है। इसका नतीजा यह देखने में आया कि मार्च के प्रारम्भ में जब कोरोना का आयात चरम पर था, तब चुनिंदा जिलों की छोड़कर बाकी भारत में कोरोना से बचाव के कदम या तो उठाये नहीं गए या फिर ज़िलाधिकारी द्वारा उठाये कदमों को उनके राजनैतिक आकाओं का आशीर्वाद नहीं प्राप्त हुआ।
नतीजतन 24 मार्च को बढ़ती हुई महामारी को रोकने के लिए स्वयं प्रधानमंत्री को देश को सम्बोधित कर एक ऐसे लॉकडाउन की औपचारिक घोषणा करनी पड़ी जो 12 मार्च से लागू ही थी।
हड़बड़ी के चलते कई व्यावहारिक पहलू छूट गए, जैसे ग़रीब, बेघर, बेरोज़गार, श्रमिकों का ठौर-ठिकाना क्या होगा। इसी हड़बड़ निर्णय के कारण आज तक करीब डेढ़ महीनों से 4 करोड़ लोगों का घरवापसी पलायन नहीं रुक पा रहा है।

वैज्ञानिक पहलू की उपेक्षा

दूसरा वैज्ञानिक पहलू जो प्रधानमंत्री के ध्यान से हट गया वह यह कि कोरोना का चरित्र मियादी न होकर बेमियादी होता है जो देर सवेर अनुकूल वातावरण मिलते ही फूट पड़ता है। फरवरी से ही दुनिया के मूर्धन्य विशेषज्ञ राय दे रहे थे कि लॉकडाउन समाधान न होकर अपरिहार्य को विलंबित करने की युक्ति भर है जिसमें चुराए हुए लम्बे कालखंड का उपयोग नई स्वास्थ्य सेवाओं की व्यवस्था निर्माण में लगाना चाहिए, जिससे अंततोगत्वा जब महामारी बढ़ेगी तब हर एक रोगी को समुचित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हो सके। 

न जड़, न चैतन्य

कोरोना के सामने दुनिया भर की सभी सत्ताएं इसीलिए भी हतप्रभ हैं क्योंकि कोरोना न तो जड़ है, न ही चैतन्य। न तो कोरोना शासन की नीतियों को जड़ की भाँति स्वीकार कर रहा है, न ही वह मनुष्यों की तरह क्रिया-प्रतिक्रिया के खेल में शासन को समय की गुंजाइश दे रहा है।
बस कोरोना की इसी निरपेक्षता के चलते दुनिया भर के शासकों की घिग्घी बंध गई है। वायरस एक वैज्ञानिक समस्या है जिसका वैज्ञानिक समाधान ही संभव है। जिन जिन शासन सत्ताओं ने इस सत्य को पहचानते हुए वायरस का राजनैतिक नहीं, अपितु विशुद्ध वैज्ञानिक समाधान निकाला, वो वायरस को अपेक्षाकृत काबू में रखे हुए हैं।
कोरिया हो या केरल या ताइवान, जिन्होंने वैज्ञानिक रणनीति अपनाई वो वायरस से बच रहे हैं। कोरिया बिना लॉकडाउन किये राष्ट्रीय चुनाव तक करवा रहा है, तो केरल ने संक्रमितों की संख्या को 500 से घटाकर 50 से नीचे ला दिया है

वायरस का तांडव

ताइवान ने अपने यहाँ स्टेडियम में बेसबॉल प्रतियोगिता शुरू करवा दी है। दूसरी तरफ गुजरात हो या इंग्लैंड या फिर अमेरिका, जिसने भी बड़बोलापन, राजनैतिक बयानबाजी, दोष दर्शन, अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की जिद की, उसे वायरस का भयंकरतम तांडव झेलना पड़ रहा है।

विश्व भर में जिस प्रशासन ने भी कोरोना वायरस को खोजने में आक्रामक टेस्ट+ट्रेस+आइसोलेट की नीति अपनाई है, वहाँ संक्रमण धीरे-धीरे कम हो गया है। टेस्ट अर्थात अधिकतम जनता की कोरोना जाँच।

संक्रमण नियंत्रण कैसे?

कोरोना टेस्टिंग के मामले में यह अनुपात 2% का है। प्रति सौ टेस्ट, कोरोना पाज़िटिव की संख्या 2% से यदि नीचे है, तथा प्रशासन दैनिक टेस्टों की संख्या भी संक्रमण बढ़ने की औसत से बढ़ा रहा हो तो संक्रमण नियंत्रण में माना जा सकता है।
वर्तमान में केरल, कर्नाटक, आदि रोज़ टेस्ट बढ़ा भी रहे हैं, पाजिटिव संख्या 2/100 से नीचे भी है, जिससे यह माना जा रहा है कि यहाँ संक्रमण काबू में है। महाराष्ट्र, दिल्ली आदि हालांकि रोज़ टेस्ट बढ़ा रहे हैं। पर वहाँ पाजिटिव की संख्या 4/100 से अधिक होने के चलते इन राज्यों में संक्रमण बेतरतीब बढ़त लिए हुए है।

कोरोना का डर

गुजरात, बंगाल आदि में हालांकि पॉजिटिव की संख्या 2/100 से कम है, पर चूंकि यहाँ टेस्ट ही कम हो रहे हैं, इसीलिए निकट भविष्य में यहाँ अचानक बहुत बड़ा संक्रमण फूटने की संभावना है।
ट्रेस माने हर एक संक्रमित रोगी के संपर्क एवं संभावित संपर्क में आये हुए लोगों की जल्द शिनाख़्त एवं आइसोलेट यानी उनके एकांतवास की व्यवस्था। संक्रमण से फैलने वाले रोगों में प्रशासन जितनी जल्द संभावित संक्रमितों को अलग कर उनके एकांतवास की व्यवस्था कर देता है, आगे आने वाली संक्रमण की कड़ी उतनी जल्दी टूट जाती है। 

प्रशिक्षण की ज़रूरत

इस अभियान में प्रशासन को पुलिस, सरकारी नौकर, स्थानीय निकायों के कर्मचारी आदि की सेना को प्रशिक्षित कर तैयार रखना होता है जो क्षेत्र में हर नए संक्रमित से संपर्क स्थापित करे, उससे गहन पूछताछ कर उसके संपर्क में आये लोग चाहे वे जो हों, जहाँ हों, उनकी शिनाख़्त हो।
आइसोलेट अर्थात शिनाख़्त किये गए लोगों को दो हफ़्ते तक क्वरेन्टाइन में रख दे और तय समय बीतने के बाद उनकी जाँच कर असंक्रमित पाने पर ही उन्हें एकांतवास से मुक्ति दे। केरल या कोरिया प्रति संक्रमित व्यक्ति 500 से अधिक संपर्कित लोगों का क्वरेन्टाइन कर रहा है जबकि कर्नाटक केवल 100 का और गुजरात, उत्तर प्रदेश, ब्रिटेन या अमेरिका तो इसका ब्योरा देने में तरह विफल है। 
जिस भी राष्ट्र, राज्य, ज़िला, नगर, गाँव या मोहल्ले के प्रशासन ने टेस्ट+ट्रेस+आइसोलेट पर पूरा जोर देकर अपने सारे मानव एवं भौतिक संसाधन टीटीआई पर झोंक दिए, वहाँ कोरोना काबू में आ जाता है।

कोरोना के बाद?

कोरोना के बाद के भारत की तसवीर धुंधली है। 21 मार्च को जनता कर्फ्यू के दिन जब भारत में कुल 250 कोरोना केस थे उस दिन जिस सरकार ने कोरोना के ख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा की थी वही सरकार 12 मई को 4,000 केस प्रतिदिन जब हैं, तब कोरोना के साथ जीने की नसीहत दे रही है। मार्च में सामान्य चल रहे जिस देश को एक वायरस ने ठिठका कर रोक दिया, मई आते आते उसी वायरस से निजात पाए बगैर ही हम विश्वगुरु बनने के सपने बुन रहे हैं।

ख़ुद लड़ना होगा

बिना वायरस से पिंड छुड़ाए स्थिति कैसे सामान्य होगी इस विरोधाभासी यक्ष प्रश्न के जवाब में आत्मनिर्भरता के नारे ने 130 करोड़ लोगों को सकते में भले डाल रखा हो, पर इस का मतलब स्पष्ट है। कोरोना के सामने शासन ने सरेंडर कर दिया है और जनता को कोरोना से अब स्वयं लड़ना है।  

इस लड़ाई में सफलता तभी मिलेगी, हम सब ज़िंदा तभी बचेंगे, जब हम प्रशासनिक दृष्टि से भारत को एक राष्ट्र के स्थान पर छोटी-छोटी ईकाइयों के रूप में देखना शुरू करें। विकेन्द्रित व्यवस्था में हर इकाई अपने आप में स्वायत्त और अपने कार्य क्षेत्र के विषयों में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र होती है। 
12 मार्च 2020 को लागू महामारी क़ानून 1897 के अनुरूप यदि भारतीय शासन व्यवस्था स्थानीय इकाइयों को कोरोना से लड़ने की सम्पूर्ण स्वायत्तता दे दे, और स्वयं केवल विश्वस्तरीय कोरोना सम्बन्धी जानकारियों को नागरिकों को तुरंत व्यापक रूप से देने भर का काम और बीमार लोगों के स्तरीय इलाज की व्यवस्था भर कर दे तो भारत वर्षाऋतु के अंत तक कोरोना के मामलों में बहुत हद तक कमी ला सकता है। 

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सिद्धार्थ शर्मा
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