यह महज इत्तेफ़ाक नहीं था कि तीन राज्यों में सरकार बनाने के बाद कांग्रेस के शपथग्रहण समारोह में गले की नस खिंच जाने के चलते मायावती नहीं गईं। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने पार्टी की बैठक का बहाना बनाया और राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी ने आख़िरी मौक़े पर जहाज में न बैठने का इरादा कर लिया।
चेन्नई में डीएमके प्रमुख एम. के. स्टालिन के राहुल गाँधी को विपक्षी गठबंधन का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार प्रस्तावित करने के बाद पहली प्रतिक्रिया विपक्षी दलों में से अखिलेश यादव की रही। अखिलेश ने अभी इस पर कोई सहमति बनने से इनकार किया। मायावती तो पहले ही इस विचार मात्र से किनारा किए बैठी हैं। राजस्थान में कांग्रेस के साथ गठबंधन कर विधानसभा चुनाव लड़ने वाले रालोद ने उत्तर प्रदेश में इसे गठबंधन में शामिल करने को लेकर चुप्पी साध ली है।
कांग्रेस के लिए सपा तैयार, बसपा नहीं
उत्तर प्रदेश में 2017 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के साथ मिल कर लड़ने वाले सपा मुखिया अखिलेश यादव जहाँ उसे गठबंधन का हिस्सा बनाना चाहते हैं और अपने हिस्से की कुछ सीटों की कुर्बानी देने को तैयार हैं, वहीं मायावती इसके बिलकुल ख़िलाफ़ हैं। मध्य प्रदेश में कांग्रेस से 50 सीटों की माँग करने वालीं मायावती उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बमुश्किल 5 सीटें देने पर राजी हो सकी हैं। इनमें भी अमेठी, रायबरेली जैसी कांग्रेस की परंपरागत सीटें छोड़ वाराणसी (जहाँ कांग्रेस को मोदी से मुक़ाबला करना होगा), इलाहाबाद और लखनऊ जैसी सीटें शामिल हैं। इन सभी सीटों को भाजपा के लिए बहुत आसान समझा जाता है।
कांग्रेस माँग रही ज़्यादा सीटें
कांग्रेस गठबंधन से 2009 के फ़ॉर्मूले पर सीटें माँग रही है जिसके तहत उसे कम-से-कम उस बार की जीती 22 सीटें व 9 सीटें जहाँ वह दूसरे स्थान पर रही थी, चाहिए ही चाहिए। कांग्रेस लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद, कानपुर, मेरठ, मुरादाबाद, गाज़ियाबाद, अलीगढ़, झाँसी, सहारनपुर व बरेली की शहरी सीटों के अलावा अमेठी व रायबरेली पर दावा कर रही है।
साथ ही उसे बलरामपुर, बहराइच, गोंडा, डुमरियागंज, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, फ़रुर्खाबाद, महराजगंज और पडरौना जैसी ग्रामीण सीटें भी चाहिए। कांग्रेस नेताओं का मानना है कि बदली हुई परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश की कम से कम 25 से 30 सीटों पर उसकी स्थिति मजबूत रहेगी।
आत्मविश्वास से लबरेज़ है कांग्रेस
तीन प्रदेशों में सपा-बसपा के दबावों को दरकिनार कर मैदान में अकेले उतरने वाली कांग्रेस को भाजपा की हार ने उत्साहित किया है। साथ ही, इन क्षेत्रीय दलों के कुछ ख़ास न कर पाने से भी उसकी हौसला अफ़जाई हुई है। तीन राज्यों में जहाँ सपा को मध्य प्रदेश की इक़लौती सीट के अलावा कुछ नहीं मिला, वहीं बसपा तीनों सूबों में महज़ 10 सीटें जीत सकी है।
जख़्मी दिल पर मरहम रखने को बसपा भले ही दावा कर रही है कि उसे पहले के मुक़ाबले ज़्यादा वोट मिले पर उसका एक बड़ा कारण ज़्यादा सीटों पर लड़ना, छत्तीसगढ़ में गठबंधन, मतदान फ़ीसद का बढ़ना और राजस्थान में बहुकोणीय संघर्ष भी रहा है। कुल जमा नतीजों ने बसपा को केवल कागजी संजीवनी ही दी है।
सपा-बसपा के कई नेताओं का मानना है कि अब कम-से-कम उत्तर प्रदेश में गठबंधन में कांग्रेस को न लेना घाटे का सौदा होगा बल्कि भाजपा को हाशिए पर समेटने के लिए ऐसा करना ज़रूरी भी होगा। अगर कांग्रेस को सम्मानजनक तरीके से गठबंधन में शामिल न किया गया तो उसका अकेले या रालोद, पीस पार्टी जैसे छोटे दलों के साथ गठबंधन कर मैदान में उतरना सपा-बसपा के मंसूबों पर पानी फेर सकता है।
कांग्रेस को जहाँ तीनों राज्यों में अल्पसंख्यकों का भरपूर साथ मिला है, वहीं दलित एक्ट में संशोधन से नाराज सवर्ण मतदाता भी इसके ख़ेमे में आया है। शहरी सीटों पर पहले से अल्पसंख्यक मतों पर कांग्रेस की दावेदारी रही है और उत्तर प्रदेश में इस तरह की सीटों की तादाद एक दर्ज़न से ज़्यादा है। राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस ताज़ा हालात में उत्तर प्रदेश की 25 से 30 सीटों पर अपनी मजबूत दावेदारी रखेगी। दरअसल, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद उत्तर प्रदेश में गठबंधन के रास्ते में मुश्किलें बढ़ी हैं।
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