अंतरिक्ष एजेंसियां बहुत दूर तक सोच रही हैं। चांद पर मिशन कामयाब होने पर वहां से मंगल ग्रह का मिशन चलाना आसान हो जाएगा। अगर पानी की पुष्टि होती है तो वहां लोगों की कॉलोनी बसाई जा सकती है, खनिजों का खनन हो सकता है। बहुत सारे देशों में तो चांद पर रहने के लिए लोगों ने बुकिंग तक कराई हुई है। तमाम प्राइवेट कंपनियों की नजरें चंद्रमा पर मिलने वाले खनिज पर है।
चांद पर पानी की कहानी
रॉयटर्स के मुताबिक यह कहानी 1960 के दशक की शुरुआत की है। पहली अपोलो लैंडिंग से पहले, वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया था कि चांद पर पानी हो सकता है। 1960 के दशक के अंत और 1970 के दशक की शुरुआत में अपोलो क्रू ने नमूनों का जो विश्लेषण किया, उससे वहां इसकी पुष्टि नहीं हो सकी। बताया गया कि सब कुछ ड्राई है।
2008 में ब्राउन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने नई तकनीक के साथ अपोलो द्वारा भेजे गए उन नमूनों का दोबारा निरीक्षण किया और हाइड्रोजन पाया। 2009 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के चंद्रयान-1 की जांच के दौरान नासा के एक उपकरण से चंद्रमा की सतह पर पानी का पता लगाया।
रॉयटर्स के मुताबिक 2008 में ही नासा के एक अन्य जांच दल ने, जो दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचा, चंद्रमा की सतह के नीचे पानी की बर्फ का दावा किया। नासा के पहले के मिशन, 1998 के लूनर प्रॉस्पेक्टर में इस बात के प्रमाण मिले थे कि पानी में बर्फ की सबसे अधिक उपलब्धि दक्षिणी ध्रुव के उन गड्ढों में है। इस बार चंद्रयान 3 शायद उस रहस्य से और पर्दा उठाए।
रॉयटर्स के मुताबिक 1967 की संयुक्त राष्ट्र बाह्य अंतरिक्ष संधि किसी भी देश को चंद्रमा पर मालिकाना हक का दावा करने से रोकती है। लेकिन ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो कमर्शल ऑपरेशन को रोक देगा। अमेरिका ने चंद्रमा की खोज और उसके संसाधनों के इस्तेमाल के लिए सिद्धांतों को लेकर आर्टेमिस समझौता तैयार किया था। जिस पर 27 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं। लेकिन चीन और रूस ने हस्ताक्षर नहीं किये हैं।
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