हाल में सरकार ने ही कहा था कि पिछले एक साल में सवा दो लाख भारतीयों ने नागरिकता छोड़ दी। यानी वे किसी दूसरे देश में बस गए। अब एक सर्वे में सामने आया है कि अगले दो साल में बड़ी संख्या में भारतीय दूसरे देश में बसना चाहते हैं। सर्वे के अनुसार दूसरे देश में बसने की चाहत रखने वाले भारतीयों की संख्या बाक़ी देशों की तुलना में कहीं ज़्यादा है। आख़िर भारतीय दूसरे देश में क्यों बसना चाहते हैं और उन्हें क्या भारत में कोई दिक्कत है?
इन सवालों का जवाब बाद में पहले यह जान लें कि सर्वे की रिपोर्ट में क्या कहा गया है। एक रियल एस्टेट परामर्श फर्म सीबीआरई साउथ एशिया प्राइवेट द्वारा यह सर्वेक्षण किया गया है। इसके अनुसार, अगले दो साल में भारतीय दुनिया के बाक़ी लोगों की तुलना में दूसरे देश में जाने का मज़बूत इरादा रखते हैं। सर्वेक्षण में शामिल 16% लोग पिछले दो वर्षों में विदेश जा चुके हैं, जबकि अन्य 17% अगले दो वर्षों में बसने की योजना बना रहे हैं।
सर्वेक्षण में विश्व स्तर पर 20,000 से अधिक लोगों को चुना गया था। इकॉनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार इन लोगों की राय के आधार पर यह सर्वेक्षण रिपोर्ट को तैयार किया गया है। इसमें कहा गया है कि एशिया पैसिफिक यानी एपीएसी से सर्वेक्षण में शामिल होने वालों में से 7% तो विदेश में बस भी चुके हैं और वैश्विक स्तर पर यह आँकड़ा 6% है। रिपोर्ट के अनुसार सर्वेक्षण मे शामिल एपीएसी और वैश्विक दोनों से लगभग 10% लोग अगले दो वर्षों में दूसरे देश में बसने की योजना बना रहे हैं।
सर्वेक्षण में गाँवों से शहरों में बसने, घर खरीदने या किराए पर रहने जैसे मुद्दों पर भी राय जानी गई है। लेकिन सबसे चौंकाने वाले दावे विदेश में बसने को लेकर है। ऐसा इसलिए कि भारत में आर्थिक तरक्की, दुनिया भर में देश की साख बढ़ने, 'विश्वगुरु' की राह पर आगे बढ़ने जैसे न जाने कितने ही दावे किए जा रहे हैं।
भारतीयों के नागरिकता छोड़ने की ख़बर भारत सरकार ने ही दी है, तो इस पर विवाद की गुंजाइश कम ही है। दरअसल, संसद में सरकार से इस बारे में सवाल पूछा गया था।
राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने नागरिकता छोड़ने वाले भारतीयों की वर्षवार संख्या बताई। जयशंकर ने कहा था कि 2015 में अपनी भारतीय नागरिकता त्यागने वाले भारतीयों की संख्या 1,31,489 थी, जबकि 2016 में 1,41,603 लोगों ने और 2017 में 1,33,049 लोगों ने नागरिकता छोड़ी। 2018 में यह संख्या 1,34,561 थी, जबकि 2019 में 1,44,017 और 2020 में 85,256 और 2021 में 1,63,370 ने अपनी नागरिकता छोड़ी थी।
जयशंकर ने कहा कि नागरिकता छोड़ने वालों का आँकड़ा 2011 में 1,22,819 था, जबकि 2012 में यह 1,20,923, 2013 में 1,31,405 और 2014 में 1,29,328 था। इस तरह 2011 के बाद से अपनी भारतीय नागरिकता छोड़ने वाले भारतीयों की कुल संख्या 16,63,440 हो गई है। बता दें कि 2020 में नागरिकता छोड़ने वालों की संख्या पिछले एक दशक में सबसे कम रही। यह वही साल था जब कोरोना महामारी का काल था और दुनिया भर में तबाही मची थी।
नरेंद्र मोदी 2014 में पहली बार प्रधानमंत्री बने थे और फिर 2019 के चुनाव में भी उन्होंने जीत बराकरार रखी। प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में दुनिया भर में भारत की साख बढ़ने का लगातार दावा किया जाता रहा है।
बीजेपी सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने पिछले साल कांग्रेस नेता राहुल गांधी की विदेश यात्रा की आलोचना करते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 18-18 घंटे काम करके देश को विश्वगुरु बनाने का काम कर रहे हैं। खुद प्रधानमंत्री मोदी भारत को 'विश्वगुरु' बनाने का सपना देख चुके हैं और गृहमंत्री अमित शाह तो उनके जन्मदिन पर इसके लिए तारीफ़ भी कर चुके हैं।
लेकिन क्या प्रधानमंत्री का सपना पिछले 9 सालों में पूरा होता दिख रहा है? अब सवाल है कि आख़िर भारतीय इतनी बड़ी संख्या में नागरिकता क्यों छोड़ रहे हैं?
पिछले साल जुलाई में संसद में एक सवाल के जवाब में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने संसद को बताया था कि विदेश मंत्रालय के अनुसार भारतीय नागरिकों ने अपने व्यक्तिगत कारणों से नागरिकता छोड़ी। यह व्यक्तिगत कारण आख़िर क्या है? क्या पढ़ाई और नौकरी की मजबूरी? क्या सिर्फ़ इसके लिए कोई नागरिकता छोड़ता है? क्या कुछ वर्ष पहले का वह विवाद आपने सुना था जिसमें एक जानी-मानी शख्सियत ने असहिष्णुता के माहौल को लेकर कह दिया था कि 'देश में उन्हें डर लगता है'? या मौजूदा समय में ऐसी चर्चा करते किसी को सुना है? क्या सरकार से असहमति रखने वाले लोगों से विदेशों में बसने के बारे में चर्चा करते आपने सुना है?
ये चर्चाएँ आम तौर पर उन लोगों में तेज हुई हैं जो सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की गिरफ़्तारी, ऑल्ट न्यूज़ के सह संस्थापक मोहम्मद ज़ुबैर की गिरफ़्तारी, आदिवासियों के लिए काम करने वाले स्टेन स्वामी के जेल में निधन या ऐसे ही दूसरे एक्टिविस्टों पर कार्रवाई और सांप्रदायिक नफ़रत फैलाए जाने पर चिंताएँ जताते रहे हैं। हालाँकि, सड़कों की ख़राब हालत, यातायात जाम, भ्रष्टाचार जैसे मामलों से खीझे लोग भी अक्सर विदेशों में बस जाने की बात करते रहे हैं।
लेकिन जो सबसे बड़ी बात इसमें निकलकर आती है वह वह मुद्दा है जो कुछ साल पहले ही भारत में काफ़ी चर्चा में रहा था। 2015 में आमिर ख़ान ने असहिष्णुता को लेकर एक बयान दिया था और कहा था कि उनकी तत्कालीन पत्नी किरण राव को भारत में रहने से डर लगता है।
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आमिर ने कहा था, 'मैं जब घर पर किरण के साथ बात करता हूं, वह कहती हैं कि क्या हमें भारत से बाहर चले जाना चाहिए? किरण का यह बयान देना एक दुखद एवं बड़ा बयान है। उन्हें अपने बच्चे की चिंता है। उन्हें भय है कि हमारे आसपास कैसा माहौल होगा। उन्हें हर दिन समाचार पत्र खोलने में डर लगता है।' आमिर खान ने उन लोगों का समर्थन किया था, जो असहिष्णुता के खिलाफ अपने पुरस्कार लौटा रहे थे। आमिर ने कहा था, 'रचनात्मक लोगों के लिए उनका पुरस्कार लौटाना अपना असंतोष या निराशा व्यक्त करने के तरीकों में से एक है।'
अभिनेता के इस बयान पर जमकर हंगामा हुआ था। बीजेपी नेताओं और उनके समर्थकों ने उनपर निशाना साधा था। मनोज तिवारी ने कहा था कि आमिर खान में अगर जरा भी देशभक्ति है, तो अपने बयान पर माफी मांगें। दिग्गज अभिनेता अनुपम खेर ने ट्विटर पर लिखा था, 'प्रिय आमिर खान, क्या आपने कभी किरण से यह पूछा कि वह किस देश जाना चाहती हैं? क्या आपने उन्हें बताया कि इस देश ने आपको आमिर खान बनाया है। क्या आपने किरण को यह बताया है कि आपने देश में इससे भी बुरे दौर को देखा है, लेकिन कभी देश छोड़ने का विचार आपके मन में नहीं आया।' इस घटना के बाद आमिर को 'इनक्रेडिबल इंडिया' के ब्रांड एंबेसडर पद से हटा दिया गया था।
2015 की इस घटना के बाद शायद ही किसी बड़े अभिनेता का इस तरह का बयान आया हो। बड़ी-बड़ी हस्तियों ने ऐसे विवादित मुद्दों पर अधिकतर बार चुप्पी साधना ही बेहतर समझा। नसरुद्दीन शाह जैसे कलाकारों ने जब कभी कुछ बोला भी तो उस पर काफ़ी ज़्यादा विवाद हुआ। यानी ऐसे मामलों में सार्वजनिक रूप से कुछ बोले जाने पर सामान्य तौर पर चुप्पी है। अब कोई ज़्यादा कुछ बोल क्यों नहीं रहा है? क्या इस सवाल का जवाब भारतीयों के नागरिकता छोड़ने वाली सरकार की ही इस ताज़ा रिपोर्ट में मिलता है?
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