सीएजी का कहना है कि कोल इंडिया के कोयले का औसत दाम 1,028 रुपये प्रति टन था।
- स्वरूप का कहना है कि कोयले की क़ीमत 400 रुपये प्रति टन से 4,000 रुपये प्रति टन हो सकती है। यह उसकी क्वालिटी पर निर्भर करता है। सीएजी ने जो क़ीमत निकाली, वह सिर्फ़ अच्छी क्वालिटी के कोयले की ही होती है।
सीएजी ने माना है कि कोयला निकालने में औसत 583 रुपये प्रति टन का ख़र्च बैठता है। इसमें वित्तीय ख़र्च 150 रुपए प्रति टन जोड़ दिया जाए तो औसत मुनाफ़ा प्रति टन 295 रुपये बैठता है।
- पूर्व कोयला सचिव का कहना है कि अलग-अलग खदानों से कोयला निकालने का अलग-अलग ख़र्च होता है। इसका औसत नहीं हो सकता। इसके अलावा सीएजी ने कोयला के परिवहन ख़र्च और स्ट्रिपिंग रेशियो का ध्यान नहीं रखा। स्ट्रिपिंग रेशियो का मतलब होता है कि कितने टन सामान निकालने से उसमें कितना कोयला मिला। यह अलग-अलग खदानों में अलग-अलग होता है।
सीएजी ने कोयले का दाम और उस पर होने वाले ख़र्च के आधार पर यह तय किया था कि सरकार को प्रति टन 295 रुपए का फ़ायदा होता। खनन लायक कोयले का भंडार 6,282 मिलियन टन था और इस तरह देश को 1,80,000 करोड़ रुपए का लाभ हो सकता था, जो उसे नहीं हुआ, वह फ़ायदा निजी कंपनियाँ ले उड़ीं।
- स्वरूप का तर्क है कि यदि नुक़सान हुआ भी है तो उसका आकलन औसत के आधार पर नहीं कर सकते। हर ब्लॉक का अलग हिसाब हो सकता है। वे यह मानते हैं कि कुछ कोल ब्लॉक में वाकई बहुत मुनाफ़ा हुआ होगा। पर ऐसा हर ब्लॉक में हुआ होगा, यह नही कह सकते।
सवाल यह है कि यदि कोयले में इतना मुनाफ़ा नहीं हुआ तो साल 2015 में हुई 31 खदानों की नीलामी से 1.96 लाख करोड़ रुपए सरकार को कैसे मिले?
- पूर्व कोयला सचिव का कहना है कि अलग-अलग ब्लॉक में दिलचस्पी की अलग-अलग वजह हो सकती है। सरकार के मुताबिक़, इन ब्लॉकों से सालाना 5.60 करोड़ टन कोयला निकलना चाहिए था, पर सिर्फ़ 1.60 करोड़ टन कोयला निकल रहा है। कुछ खदानों में तो उत्पादन अब तक शुरू ही नहीं हुआ है। स्वरूप का तर्क है कि अगली नीलामी 2016 में हुई और उसके लिए 9 ब्लॉक रखे गए थे, पर किसी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। वे अब तक यूं ही पड़े हुए हैं।
सरकार को कोयला ब्लॉक आबंटन की वजह से नुक़सान निश्चित रूप से हुआ है।
- पूर्व कोयला सचिव नुक़सान के आकलन को खारिज करते हुए तर्क देते हैं कि अभी भी 120 ब्लॉक पड़े हुए हैं। सीएजी के 295 रुपये प्रति टन मुनाफ़े के आधार पर तो इन खदानों में 3.13 लाख करोड़ रुपये फँसे पड़े हैं। सरकार इनकी नीलामी क्यों नहीं करती?
विनोद राय अपनी किताब में सवाल उठाते हैं कि क्या सीएजी को कोयला नीलामी की जाँच नहीं करनी चाहिए या क्या उसे संसद के सामने नहीं लाना चाहिए?
- स्वरूप का कहना है कि कोयला नीलामी में ग़लतियाँ हुई थीं, उनकी जाँच होनी चाहिए और संसद को उसकी जानकारी भी देनी चाहिए थी। पर उसे जिस तरह प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर सार्वजनिक किया गया, वह ग़लत था। राय ने एक अनुचित पंरपरा की नींव डाल दी। अब हर सीएजी ‘विनोद राय’ बनना चाहेगा, जो अच्छी बात नहीं है।
There was indeed a lot of wrong in the allocation coal blocks but the manner in which it was presented by the CAG led to devastating consequences on governance. There was no need to play to the gallery. Part of my forthcoming book "Un-Civil Servant" https://t.co/cl5I8G2gwr pic.twitter.com/OcLegT3j1X
— Anil Swarup (@swarup58) December 20, 2018
- अफ़सर किसी भी फ़ाइल पर फ़ैसला लेने से बचने लगे, उन्हें यह डर सताने लगा कि सीएजी की ऑडिट में वे फँस जाएंगे। इससे सरकार का कामकाज बुरी तरह प्रभावित हुआ।
- सीएजी ने पूरी जाँच के बाद भी किसी पर ज़िम्मेदारी नहीं डाली। तत्कालीन कोयला सचिव हरीश चंद्र गुप्ता जैसे अफ़सरों को इसका नतीजा भुगतना पड़ा।
- कोयला ब्लॉक की नीलामी के लिए जो लोग वाकई ज़िम्मेदार थे, वे पूरी तरह बच निकले।
- बाद की नीलामी में पारदर्शिता बरती गई, पर वह सीएजी की वजह से नहीं बरती गई। वह सरकार की वजह से बरती गई, इसका श्रेय सीएजी को देना ग़लत है।
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