क्या केंद्र सरकार बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया को भी नियंत्रित करना चाहती है? आख़िर इसमें संशोधन के विवादित मसौदे का इतना विरोध क्यों हुआ? क्यों बीजेपी के सांसद ही इसके ख़िलाफ़ खड़े हो गए? इस मसौदा विधेयक का इतना विरोध हुआ कि इसे वापस लेना पड़ा।
दरअसल, बार काउंसिल क़ानून में संशोधन करने की कोशिशों को केंद्र को झटका लगा है। केंद्र ने अधिवक्ता अधिनियम, 1961 में संशोधन करने के लिए मसौदा विधेयक को सार्वजनिक किया था। इस मसौदे के अनुसार बार काउंसिल में भी सरकार द्वारा सदस्य नियुक्त किए जाने, काउंसिल को निर्देश देने, काम के बहिष्कार के रूप में वकीलों के विरोध पर पाबंदी लगाने जैसे उपाए किए गए थे। केंद्र के इस रवैये को बार काउंसिल के काम में दखल देने के रूप में देखा गया और इसका जमकर विरोध हुआ।
केंद्र के इस मसौदा विधेयक पर बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने तो आपत्ति जताई ही, वकीलों ने हड़ताल भी की। इस मसौदे पर कितना विवाद हुआ, यह इससे समझा जा सकता है कि विधेयक को 28 फ़रवरी तक परामर्श व आपत्तियों के लिए खुला रखा गया था, लेकिन इससे पहले ही इसे वापस लेना पड़ा।
ख़ुद बीजेपी के ही सांसद ने भी इस मसौदे का विरोध किया। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार इसी हफ़्ते बीजेपी सांसद और बार काउंसिल ऑफ़ इंडिया यानी बीसीआई के अध्यक्ष मनन कुमार मिश्रा ने केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल को पत्र लिखकर इस मसौदे की कड़ी आलोचना की। उन्होंने कहा कि मसौदा विधेयक बीसीआई की स्वायत्तता को ख़तरे में डालता है।
मसौदा विधेयक में ऐसे प्रावधान थे जो सरकार को बार काउंसिल ऑफ इंडिया में तीन सदस्यों को नामित करने, बीसीआई को निर्देश जारी करने और विदेशी वकीलों और फर्मों के लिए नियम बनाने की अनुमति देते।
मसौदा विधेयक में विदेशी कानूनी फर्मों और कॉर्पोरेट संस्थाओं के साथ काम करने वाले वकीलों को शामिल करने के लिए लीगल प्रैक्टिशनर की नयी परिभाषा गढ़ी गई थी। मसौदा संशोधन में अदालतों के काम से बहिष्कार या इससे दूर रहने पर रोक लगाने वाली एक नई धारा जोड़ी गई थी।
अंग्रेज़ी अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार इस धारा में कहा गया था, 'वकीलों का कोई भी संघ या संघ का कोई भी सदस्य या कोई भी वकील, व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से अदालतों के काम या अदालत से बहिष्कार नहीं करेगा या इससे दूर नहीं रहेगा और अदालत परिसर में किसी भी तरह की बाधा डालने का आह्वान नहीं करेगा।'
बता दें कि 13 फरवरी को जारी अपने नोटिस में मंत्रालय ने कहा था कि वह क़ानूनी मामलों में मौजूदा चुनौतियों से निपटने और देश के विकास की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अधिवक्ता अधिनियम, 1961 में संशोधन करने का प्रस्ताव कर रहा है। इसने कहा था कि इन संशोधनों का मक़सद क़ानूनी पेशे और क़ानूनी शिक्षा को वैश्विक स्तर के बेहतरीन स्टैंडर्ड पर लाना है। इसमें कहा गया था कि इसका मक़सद यह भी है कि वकीलों को तेजी से बदलती दुनिया की मांगों को पूरा करने के लिए तैयार किए जाए और कानूनी शिक्षा में सुधार लाया जाए। नोटिस में कहा गया था कि अंतिम लक्ष्य यह है कि क़ानूनी पेशा एक न्यायपूर्ण और समतावादी समाज और विकसित राष्ट्र बनाने में योगदान दे।
बहरहाल, बड़े पैमाने पर इसका विरोध होने के बाद केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्रालय ने शनिवार को 13 फरवरी को प्रकाशित अधिवक्ता (संशोधन) विधेयक, 2025 के मसौदे को वापस ले लिया। मंत्रालय ने कहा कि मिले सुझावों और चिंताओं को देखते हुए इस प्रक्रिया को ख़त्म करने का निर्णय लिया गया है। इसने कहा है कि इसे इससे जुड़े लोगों के साथ परामर्श के लिए नए सिरे से इसमें सुधार किया जाएगा।
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