क्या स्वतंत्र पत्रकारिता के नाम पर किसी चैनल या पत्रकार को झूठी ख़बर चलाने या लिखने का अधिकार होना चाहिए? क्या महज टीआरपी के लिए या अख़बार का सर्कुलेशन बढ़ाने के लिए झूठी ख़बर परोसने का अधिकार होना चाहिए? और क्या ऐसी झूठी ख़बर को यूँ ही चलने दिया जाना चाहिए? ख़ासतौर पर वह ख़बर जिससे समाज में तनाव फ़ैले और दो समुदायों के बीच दंगे की नौबत आ जाए?
मुलायम सरकार ने चलाई थी गोलियाँ
विरोध इतना उग्र हो गया था कि इसको रोकने के लिए मुलायम सिंह की सरकार ने भीड़ पर गोलियाँ चलाने का आदेश दिया था। आधिकारिक तौर पर पुलिस की गोलीबारी से 16 कारसेवकों की जान गई थी और कई लोग गंभीर रूप से घायल हो गए थे। बाद में वीएचपी ने मारे गए लोगों की सूची जारी की थी। जिसमें यह दावा किया गया था कि कुल 59 लोगों की पुलिस की गोली से मौत हुई थी। उस वक़्त कारसेवकों की मौत पर जमकर हंगामा हुआ था।
मीडिया के एक तबक़े ने मरने वाले कारसेवकों की संख्या 100 से ज़्यादा होने का दावा किया था। इस संबंध में फ़्रंटलाइन पत्रिका ने एक ख़बर छापी थी कि वीएचपी ने जो सूची जारी की थी उनमें से काफ़ी लोग जिंदा थे और कुछ तो कारसेवा के लिए गए ही नहीं थे।
झूठा साबित हुआ वीएचपी का दावा
फ़्रंटलाइन में ख़बर के छपने के बाद पूरे देश में हंगामा मच गया और वीएचपी का दावा झूठा साबित हुआ। दिलचस्प बात यह है कि वीएचपी ने कभी भी इस ख़बर का खंडन नहीं किया और न ही फ़्रंटलाइन की ख़बर को झूठा साबित करने की कोशिश की। यह माना जा सकता है कि मुलायम सिंह की सरकार ने मरने वालों की संख्या आधिकारिक तौर पर कम बताई हो लेकिन फ़्रंटलाइन की ख़बर के बाद यह भी सच साबित हुआ कि जिस तरह से वीएचपी ने 3 गुने से ज़्यादा लोगों के मरने की बात कही थी, वह भी सच नहीं था और न ही मीडिया के एक तबक़े का दावा सच साबित हुआ कि सैकड़ों की संख्या में कारसेवकों की जान पुलिस की गोली से गई थी। यहाँ आपको बता दें कि ऐसे अख़बारों के ख़िलाफ़ प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया में शिकायत की गई थी जिनमें से दो अख़बारों के ख़िलाफ़ प्रेस काउंसिल ने स्ट्रिक्चर (सख़्त टिप्पणी) पास किया था।
ऐसे में तकरीबन 28 साल बाद रिपब्लिक भारत का ये ख़बर चलाना या दिखाना कि मुलायम सिंह सरकार की गोली से सैकड़ों लोग मारे गए और इस गोलीबारी को हिंदुओं का नरसंहार बताना कितना जायज है? रिपब्लिक भारत की ख़बर में यह दावा किया गया है कि उस वक़्त के (अक्टूबर-नवंबर 1990) अयोध्या में रामजन्म भूमि थाने के इंचार्ज वीबी सिंह का उन्होंने स्टिंग ऑपरेशन किया है और ख़बर में ऐसा जताया गया है कि मानो वह पूरे घटनाक्रम के प्रत्यक्ष गवाह हों।
एसएसपी के दफ़्तर में था रीडर
हक़ीक़त यह है कि वीबी सिंह उस वक़्त राम जन्मभूमि थाने का इंचार्ज नहीं था और उस वक़्त वह एसएसपी के दफ़्तर में रीडर/पेशकार था। दिलचस्प बात यह है कि रिपब्लिक भारत के स्टिंग में वीबी सिंह ने ख़ुद यह बात कही कि उस वक़्त वह एसएसपी के दफ़्तर में रीडर था। जबकि रिपब्लिक भारत का रिपोर्टर बार-बार उसे थाना इंचार्ज (एसएचओ) बताने पर तुला रहा। देखिए, वह खु़द कह रहा है कि मैं एसएसपी के दफ़्तर में रीडर था।
एक और दिलचस्प बात यह है कि 1990 में जब अयोध्या गोलीकांड हुआ तब यहाँ पर राम जन्मभूमि थाना ही नहीं था। यह थाना 1991 में बना। ऐसे में रिपब्लिक भारत का वीबी सिंह को 1990 में इस थाने का एसएचओ बताना हास्यास्पद मूर्खता है।
रबर की गोलियाँ चली थीं
स्टिंग ऑपरेशन में वीबी सिंह कहीं भी मरने वालों की संख्या सैकड़ों-हज़ारों में नहीं बताता। वह यह ज़रूर कहता है कि काफ़ी लोग मारे गए थे। उसने यह भी कहा है कि पहले रबर की गोलियाँ चलाई गईं थीं। अयोध्या को कवर कर चुके कई वरिष्ठ पत्रकारों का कहना है कि अयोध्या में तमाम ऐसे लोग मिल जाते हैं जो घटना को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं।
मृतकों का नाम, पता नहीं बताता चैनल
रिपब्लिक भारत इस घटना को बार-बार हिंदू नरसंहार कहता है लेकिन चैनल मरने वालों का नाम, पता नहीं बताता और न ही चैनल ने इतनी बड़ी संख्या में मरने वालों का दावा करने के बाद किसी एक परिवार से भी बातचीत की। यानी पूरी ख़बर का आधार एक व्यक्ति का बयान है जिसमें वह गोल-मोल बातें कर रहा है।
रिपब्लिक भारत सिर्फ़ यहीं पर नहीं रुकता वह इस घटना की तुलना जलियावाला बाग में हुए नरसंहार से करता है जिसमें अंग्रेजों की गोली से सैकड़ों लोग मारे गए थे और फिर चैनल यह साबित करने की कोशिश करता है कि मुलायम सिंह ने जानबूझकर हिंदुओं का नरसंहार करवाया।
जाँच में भी नहीं उठे सवाल
रिपब्लिक भारत यह भी कहता है कि इस पूरे मामले की जाँच पड़ताल फिर से होनी चाहिए। यहाँ यह बता दें कि अयोध्या गोलीकांड की प्रशासनिक जाँच हो चुकी है जिसमें मरने वालों की संख्या को लेकर सवाल नहीं खड़ा किया गया। उत्तर प्रदेश और केंद्र में कई बार बीजेपी की सरकारें बनीं, इन सरकारों ने कभी भी अयोध्या गोलीकांड की जाँच नहीं कराई।
रिपब्लिक भारत पर इस ख़बर के चलने के फ़ौरन बाद भारतीय जनता पार्टी ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस की और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पूरे मामले की जाँच की बात कही।
हैरानी की बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मौजूदा प्रमुख सचिव नृपेंद्र मिश्र आई. ए. एस, जब कारसेवकों पर गोली चली थी तब वह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह के सचिव थे और प्रदेश में नौकरशाही के सबसे ताक़तवर पद पर थे। रिपब्लिक भारत ने नृपेंद्र मिश्र से बात करने की जहमत तक नहीं उठाई।
यूपी में ही जिंदा मिले 5 शख़्स
‘सत्य हिंदी’ ने फ़्रंटलाइन की वह रिपोर्ट निकाली जिसमें 59 कारसेवकों के मरने के वीएचपी के दावों को ग़लत साबित किया था। यह ख़बर फ़्रंटलाइन के लिए शीतल पी. सिंह और वेंकिटेश रामाकृष्णन ने लंबी पड़ताल के बाद की थी। इसमें सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में ही 5 ऐसे लोगों को खोज निकाला था, जो जिंदा थे और जिन्हें वीएचपी ने मुलायम सरकार की गोली से मरा हुआ घोषित कर रखा था।
ख़बर को नहीं दी चुनौती
वीएचपी की सूची में एक नाम ऐसा भी था जो कारसेवकों पर गोली चलने के 17 साल पहले ही स्वर्ग सिधार चुका था। फ़्रंटलाइन में ख़बर छपने के बाद वीएचपी ने कभी भी इस ख़बर का खंडन नहीं किया और न ही ख़बर की सत्यता को चुनौती देने की कोशिश की। अगर फ़्रंटलाइन की ख़बर ग़लत होती तो वीएचपी चुप नहीं बैठती। ख़बर को छपे हुए 28 साल हो गए हैं और आज तक कहीं से इस ख़बर पर अंगुली नहीं उठी।
'सत्य हिंदी' आपके सामने वह पूरी रिपोर्ट रख रहा है और यह सवाल करता है कि क्या ऐसी ख़बर चलानी चाहिए जिसका कोई आधार नहीं है और न ही जिसको साबित करने का कोई दूसरा जरिया चैनल के पास है।
फ़्रंटलाइन की रिपोर्ट छुपा गया चैनल
दिलचस्प बात यह है कि चैनल के एक संवाददाता ने एक दूसरे पत्रकार के जरिये शीतल पी. सिंह से संपर्क किया था और उनसे फ़्रंटलाइन की रिपोर्ट मँगवाई। हैरानी की बात यह है कि चैनल ने अपनी रिपोर्ट में फ़्रंटलाइन की रिपोर्ट और उसमें छपे तथ्यों का कोई जिक़्र नहीं किया।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि यह रिपोर्ट मँगवाई क्यों और उसका जिक़्र क्यों नहीं किया। लेकिन इससे यह ज़रूर साबित होता है कि फ़्रंटलाइन की इस रिपोर्ट की जानकारी चैनल को पूरी तरह से थी। 'सत्य हिंदी' आपके सामने फ़्रंटलाइन की पूरी रिपोर्ट रख रहा है ताकि आप ख़ुद अयोध्या गोलीकांड की सच्चाई से रुबरु हो सकें।
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