अदालत ने यह भी कहा कि सभी हाई कोर्ट के लिए यह संदेश है कि वे 'व्यक्तिगत आज़ादी' की सुरक्षा को बरकरार रखने के लिए अपने न्यायिक अधिकारों का प्रयोग करें। क्योंकि बॉम्बे हाई कोर्ट ने अर्णब की जमानत याचिका को खारिज कर दिया था।
सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद बुद्धिजीवियों ने जेलों में बंद कुछ लोगों का जिक्र किया है और पूरे सम्मान के साथ अदालत से पूछा है कि क्या इन लोगों की भी कोई 'व्यक्तिगत आज़ादी' है या नहीं और अगर है तो उन्हें इससे क्यों वंचित रखा गया है।
इनमें पहला मामला दिल्ली के एक पत्रकार सिद्दीक़ी कप्पन का है। 41 साल के कप्पन को कुछ दिन पहले हाथरस की बलात्कार पीड़िता के गांव जाते वक्त गिरफ़्तार कर लिया गया था। उत्तर प्रदेश पुलिस ने उन पर बेहद ख़तरनाक क़ानून यूएपीए लगा दिया था। कप्पन एक महीने से ज़्यादा वक्त से जेल में हैं और उनकी रिहाई के लिए उनके वकीलों ने भी सुप्रीम कोर्ट का रूख़ किया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनसे सही अदालत में जाने के लिए कहा।
सामाजिक कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज भी यूएपीए के तहत पिछले 806 दिन से जेल में हैं। अदालत सितंबर महीने में उनकी जमानत याचिका पर सुनवाई से इनकार कर चुकी है।
बेहद ख़राब स्थिति 79 साल के वरवर राव की है। राव को भी यूएपीए के तहत गिरफ़्तार किया गया है और वह भी 806 दिन से जेल में हैं। राव का परिवार अदालत से कह चुका है कि उनकी स्थिति ऐसी है कि वह ख़ुद टॉयलेट तक नहीं जा सकते लेकिन बावजूद इसके उन्हें जमानत नहीं मिली है।
वरवर राव की तबीयत इतनी ख़राब है कि वह बिस्तर पर ही पेशाब करते हैं, इसलिए उन्हें डायपर पहनाने की ज़रूरत पड़ती है और पेशाब की थैली लगानी पड़ी है।
दूसरी ओर, आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले 83 साल के स्टेन स्वामी को भी यूएपीए के तहत गिरफ़्तार किया गया है और वह 34 दिन से जेल में हैं। स्टेन स्वामी गंभीर पार्किंसन रोग से पीड़ित हैं और इस वजह से अपने हाथों से उठाकर कुछ खा-पी नहीं सकते। इसलिए उनकी ओर से पानी पीने के लिए स्ट्रा के इस्तेमाल की इजाजत अदालत से मांगी गई थी लेकिन हाई कोर्ट ने इस पर फ़ैसला करने के लिए 21 दिन का वक़्त लिया है। स्टेन स्वामी और वरवर राव एक ही जेल में हैं।
इसी तरह आसिफ़ सुल्तान 808 दिनों से जेल में हैं, यूएपीए के तहत गिरफ़्तार उमर खालिद 48 दिनों से जेल में हैं। पत्रकार प्रशांत कनौजिया को 80 दिन तक जेल में रहना पड़ा। क्या इन सब लोगों के लिए 'व्यक्तिगत आज़ादी' के कोई मायने नहीं हैं या भारतीय संविधान में अर्णब गोस्वामी के लिए कोई विशेष व्यवस्था है, जो दूसरे लोगों के लिए नहीं है।
इसी तरह से जेएनयू के छात्र शरजील इमाम, जामिया के छात्र मीरान हैदर, इशरत जहां, खालिद सैफ़ी, देवांगना कलिता, नताशा नरवाल में से कुछ लोग जेल में है और कुछ को लंबे वक्त तक जेल में रहना पड़ा। क्या इनके लिए 'व्यक्तिगत आज़ादी' का कोई अधिकार नहीं है।
‘सुप्रीम कोर्ट को अधिकार नहीं’
अर्णब को सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमानत देने को लेकर पूछे जाने पर वरिष्ठ वकील आरएम बगई बिफर पड़ते हैं। बगई कहते हैं कि शीर्ष अदालत ने ऐसा आदेश पास किया है, जिसके लिए कानून के प्रावधानों में कोई जगह नहीं है।
बगई ने कहा कि जमानत देने की ताक़त क़ानून के तहत हाई कोर्ट और सेशन कोर्ट को है, बावजूद इसके सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी। वह कहते हैं, इससे पूरे देश में ग़लत संदेश गया है और इस मामले में हाई कोर्ट का आदेश पूरी तरह सही था।
बगई ने सवाल उठाया कि, ‘'व्यक्तिगत आज़ादी' का यह अधिकार वरवर राव और स्टेन स्वामी के लिए लागू क्यों नहीं होता। इन दोनों की बेहद ख़राब हालत पर सुप्रीम कोर्ट का दिल क्यों नहीं पिघलता।’
बगई कहते हैं कि अपने 50 साल के वकालत के करियर में उन्होंने ऐसा आदेश पहली बार देखा है और इससे उन्हें बेहद पीड़ा हुई है। उनके मुताबिक़, यह न्यायिक इतिहास में काला दिन रहा।
अर्णब ने इससे पहले अपनी रिहाई के लिए बॉम्बे हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था। लेकिन हाई कोर्ट ने कहा था कि अगर अर्णब को इस मामले में अंतरिम राहत दे दी जाए तो फिर हर कोई सेशन कोर्ट को छोड़ कर हाई कोर्ट का रुख करने लगेगा। कोर्ट ने उनके वकीलों को सेशन कोर्ट जाने के लिए कहा था और वरिष्ठ वकील बगई के मुताबिक़ यह सही फ़ैसला था।
बीजेपी के लिए सिर्फ़ अर्णब ही पत्रकार?
अर्णब गोस्वामी के मामले में देश के गृह मंत्री से लेकर बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष तक ने ताबड़तोड़ ट्वीट किए और अर्णब की गिरफ़्तारी को पत्रकारिता पर हमला बताया। जबकि अर्णब की गिरफ़्तारी दो लोगों की आत्महत्या के मामले में पीड़ित परिवार द्वारा न्याय दिलाने के लिए पुलिस से की गई अपील के बाद हुई थी।
बीजेपी ने अर्णब की गिरफ़्तारी को राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया लेकिन इससे पहले कई पत्रकारों पर फर्जी मुक़दमे लादे गए, इन पर वह मुंह सिले रही। इनमें सिद्दीक़ी कप्पन से लेकर पत्रकार प्रशांत कनौजिया, मणिपुरी पत्रकार वांगखेम, गुजरात के पत्रकार धवल पटेल उत्तराखंड के पत्रकार उमेश कुमार के मामले में कुछ नहीं बोली। वांगखेम, पटेल और उमेश के ख़िलाफ़ तो राजद्रोह का मुक़दमा तक लगा दिया गया।
तुरंत सुनवाई क्यों?
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने कोर्ट के महासचिव को पत्र लिखकर अर्णब गोस्वामी की रिहाई की याचिका पर तुरंत सुनवाई किए जाने का विरोध किया था।
दुष्यंत दवे ने पत्र में लिखा था, ‘एक ओर जहां हज़ारों लोग उनके मामलों की सुनवाई न होने के कारण जेलों में पड़े हैं, वहीं दूसरी ओर एक प्रभावशाली व्यक्ति की याचिका को एक ही दिन में सुनवाई के लिए लिस्ट कर लिया गया।’ दवे ने लिखा है कि गोस्वामी को विशेष सुविधा दी जाती है जबकि आम भारतीय परेशान होने के लिए मजबूर हैं।
सुप्रीम कोर्ट न्याय की सर्वोच्च संस्था है और उसकी गरिमा का देश का हर व्यक्ति सम्मान करता है। लेकिन उससे इतना तो पूछा जा सकता है कि 'व्यक्तिगत आज़ादी' का जो अधिकार अर्णब गोस्वामी को हासिल है, वो वरवर राव, स्टेन स्वामी, उमर खालिद और अन्य लोगों को हासिल क्यों नहीं है।
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