अर्णब गोस्वामी 4 नवंबर के बाद से जेल में हैं। अगर सबकुछ ठीक रहा तो वह शुक्रवार यानी 13 नवंबर या उससे पहले जेल से बाहर आ सकते हैं। धनतेरस न सही दिवाली घर और दफ्तर में मना सकते हैं। मगर, अर्णब गोस्वामी की रिहाई पहले भी संभव हो सकती थी। धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने जैसे मामले में सेशन कोर्ट से ज़मानत मिल सकती थी। मुंबई हाई कोर्ट ने अंतरिम ज़मानत की याचिका खारिज करते हुए अर्णब गोस्वामी को सेशन कोर्ट में जाने को कहा और यह साफ़ कर दिया कि परंपरा तोड़कर उन्हें नहीं सुना जा सकता।
आख़िर मुंबई हाई कोर्ट से ऐसी अपेक्षा क्यों की गयी कि वह परंपरा तोड़कर अर्णब गोस्वामी को ज़मानत दे देगी? जो रास्ता आसान था, वह क्यों नहीं चुना गया?
चार अहम सवाल
इन सवालों के आलोक में चार अहम सवाल पैदा हो रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या अर्णब गोस्वामी को सही क़ानूनी सलाह नहीं मिली? दूसरा बड़ा सवाल है कि क्या हरीश साल्वे जैसे नामचीन वकील से भी ग़लती हो गयी? तीसरा और अहम सवाल है कि क्या इन ‘ग़लतियों’ के पीछे राजनीतिक फ़ायदे की साज़िश रही? चौथा सवाल तीसरे से जुड़ा है कि क्या अर्णब गोस्वामी का राजनीतिक इस्तेमाल किया जा रहा है?
अर्णब गोस्वामी और दो अन्य लोगों पर आत्महत्या के लिए उकसाने के मामले में मुंबई हाई कोर्ट ने पीड़ित परिवार के अधिकार को अधिक अहमियत दी और कहा कि सिर्फ़ इसलिए यह केस दोबारा नहीं खोलने की दलील सही नहीं हो सकती क्योंकि इसे बंद किया जा चुका है। इस मामले में पीड़ित परिवार को केस बंद करने से पहले बताया तक नहीं गया था और राज्य सरकार को पीड़ित परिवार की अपील पर केस दोबारा शुरू करने का पूरा अधिकार है।
2018 में अन्वय नाइक और उनकी माँ ने सुसाइड नोट में अर्णब समेत तीन लोगों पर काम कराने और बकाया रकम नहीं देने का आरोप लगाते हुए उन्हें आत्महत्या का ज़िम्मेदार ठहराया था। इस केस को 2019 में बंद कर दिया गया था।
महंगे वकील हैं हरीश साल्वे
हरीश साल्वे सॉलिसिटर जनरल रह चुके हैं। वे देश के सबसे महंगे वकीलों में शुमार हैं। साल्वे मुकेश अंबानी, रतन टाटा, आईटीसी होटल, वोडाफोन समेत हिट एंड रन केस में सलमान ख़ान का केस लड़ चुके हैं। इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में कुलभूषण जाधव की फांसी की सज़ा पर रोक लगवाने का श्रेय भी उन्हें हासिल है। इसके बदले में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के निधन के बाद उनकी बेटी ने साल्वे को एक रुपये की फीस चुकायी थी।
दो साल पहले ईसाई धर्म अपना चुके हरीश साल्वे ने 65 साल की उम्र में इसी 29 अक्टूबर को 56 वर्षीय ब्रिटिश कलाकार कैरोलीना से लंदन में दूसरी शादी रचायी है। शादी के बाद यह पहला हाई प्रोफ़ाइल मुक़दमा है, जो वे लड़ रहे हैं।
बहरहाल, पहले और दूसरे सवाल की वजह पर आते हैं। 4 नवंबर के बाद से 5 दिन का वक़्त मुंबई हाई कोर्ट में ‘बर्बाद’ किया गया। वह भी एक ऐसे समय में जब सुप्रीम कोर्ट में छुट्टियाँ चल रही हैं। मतलब ये कि हाई कोर्ट से आगे सुप्रीम कोर्ट जाने का भी विकल्प नहीं था।
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प्राथमिकता में नहीं थी रिहाई?
महत्वपूर्ण यह भी है कि मुंबई हाई कोर्ट ने सुनवाई के दौरान ही यह बात कह दी थी कि उन्हें फ़ैसला देने में वक़्त ज़रूर लग सकता है लेकिन सेशन कोर्ट जाने का रास्ता अब भी खुला हुआ है। फिर भी आगे तीन दिन तक इंतज़ार किया गया। क्या हरीश साल्वे जैसे नामचीन वकील मुंबई हाई कोर्ट की सलाह का मतलब नहीं समझ रहे थे या फिर उनकी प्राथमिकता में अर्णब गोस्वामी की रिहाई थी ही नहीं?
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हाई कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रकाश तिवारी का कहना है कि ‘अर्णब गोस्वामी को हाई कोर्ट से राहत तभी मिल सकती थी जब उनके पास कोई विकल्प नहीं होता। मगर, उनके पास सेशन कोर्ट में जाने का विकल्प था।’ हालाँकि प्रकाश तिवारी ने एक बंद हो चुके केस को दोबारा खोलने के तरीक़े पर भी सवाल उठाए और कहा कि इसका फ़ायदा अर्णब गोस्वामी को मिलना चाहिए।
बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका क्यों?
फिर भी, कम से कम बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका लेकर मुंबई हाई कोर्ट में जाने का रास्ता तो अर्णब गोस्वामी की रिहाई का रास्ता क़तई नहीं था। बंदी प्रत्यक्षीकरण उन मामलों में दायर की जाती है जिसमें अभियुक्त के बारे में घरवालों को कुछ भी नहीं बताया जाता है और अभियुक्त को अदालत में भी पेश नहीं किया जाता। मगर, अर्णब के मामले में न्यायिक हिरासत मिलते ही बंदी प्रत्यक्षीकरण का आधार ख़त्म हो जाता है। यह आधार तभी ज़िंदा हो सकता है अगर यह साबित कर दिया जाए कि गिरफ्तारी ही नहीं, न्यायिक हिरासत भी अवैध है। मगर, इसे साबित करने में वक़्त लगता है। ऐसे में फिर वही सवाल सामने आ जाता है कि क्या बचाव पक्ष के वकील के पास अर्णब गोस्वामी की रिहाई की प्राथमिकता से भी बड़ी कोई बात हो सकती है?
सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार के वकील रह चुके संदीप दुबे भी इस बात को मानते हैं कि अर्णब गोस्वामी के केस में पहले सेशन कोर्ट का रुख किया जाना चाहिए था। मगर, हरीश साल्वे से हुई ‘ग़लती’ से जुड़े प्रश्न पर उनका कहना था कि ‘ऐसा कई बार हो जाता है।’
इसी तरह हरीश साल्वे की ओर से अर्णब गोस्वामी के लिए बढ़ाई गयी याचिका पर व्यक्तिगत टिप्पणी नहीं करने की बात कहते हुए वकील अरुणेश शुक्ला कहते हैं कि ‘ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट से जमानत नहीं मिलने पर आगे का रास्ता सेशन कोर्ट ही होता है।’ अरुणेश शुक्ला वही वकील हैं जिन्होंने मथुरा मंदिर परिसर में अतिक्रमण को हटाने और मथुरा को मुक्त करने की याचिका दायर कर रखी है।
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अर्णब के बहाने चुनावी सियासत!
अब तीसरे और चौथे सवाल पर आएँ तो यह जानना ज़रूरी होगा कि अर्णब गोस्वामी को जेल से बाहर निकालने में जो प्रक्रियात्मक ग़लती हुई है उसका फ़ायदा किसे मिला है? अर्णब जेल में हैं। केंद्र सरकार में गृह मंत्री समेत तमाम मंत्री और बीजेपी के नेताओं ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया जतायी और पत्रकारिता के लिए उठ खड़े होने की बात कही। इन नेताओं ने इमरजेंसी की भी याद दिलायी और कहा कि शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी की महाराष्ट्र सरकार ने इसकी याद ताज़ा कर दी है।
बिहार में तीसरे चरण का चुनाव, मध्य प्रदेश में विधानसभा की 28 सीट और यूपी में 7 सीटों समेत पूरे देश में उपचुनाव भी इसी दौरान हुए। उन चुनावों में भी अर्णब गोस्वामी के मुद्दे को बीजेपी ने कांग्रेस पर हमला करने के लिए उठाया। स्पष्ट है कि अर्णब गोस्वामी की न्यायिक हिरासत का राजनीतिक इस्तेमाल हुआ।
अर्णब की गिरफ़्तारी पर देखिए वीडियो-
राज्यपाल की भूमिका पर सवाल
यह बात भी महत्वपूर्ण है कि राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने इस मामले में महाराष्ट्र के गृह मंत्री से बात की और न्यायिक हिरासत में अर्णब गोस्वामी की सेहत और सुरक्षा को लेकर चिंता जताई। उन्होंने परिवार से मिलने देने की गृह मंत्री को हिदायत दी। ऐसे में सवाल उठता है कि न्यायिक हिरासत में लिए गये किसी व्यक्ति के लिए राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर बैठे हुए व्यक्ति का ये क़दम उचित है?
इस प्रश्न के जवाब में वकील संदीप दुबे का कहना है कि ऐसे मामले में अगर संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन होता है तो राज्यपाल गृह मंत्रालय को निर्देश दे सकते हैं। मगर, उन्होंने ऐसा न कर केवल अर्णब गोस्वामी के ‘स्वास्थ्य और सुरक्षा को लेकर चिंता’ जताई और कहा कि ‘अर्णब गोस्वामी से मिलने और उनसे बात करने की इजाजत परिवार को दी जाए।’
दुबे का कहना है कि जो बोर्ड अर्णब गोस्वामी के स्वास्थ्य और उनकी सुरक्षा की देखरेख कर रहा है वह गृह मंत्रालय के मातहत है। इसलिए राज्यपाल गृह मंत्रालय को इस मामले को देखने के लिए कह सकते हैं। राज्यपाल की अर्णब को न्यायिक हिरासत के दौरान परिवार से मिलने देने संबंधी हिदायत पर वकील संदीप दुबे कहते हैं कि हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कोविड-19 के दौरान जेल के भीतर मुलाक़ात को लेकर हर राज्य में अलग-अलग गाइडलाइन्स हैं।
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कोविड-19 की महामारी शुरू होने के वक़्त मार्च महीने तक महाराष्ट्र की जेलों में कैदियों की क्षमता 24,030 के मुक़ाबले 36,700 थी यानी क्षमता से 52 फ़ीसदी ज़्यादा। महाराष्ट्र की सरकार ने क़रीब 17 हज़ार कैदियों को कोविड काल में रिहा किया ताकि जेलों में महामारी न फैले। इसके तहत जेल में मुलाक़ात को लेकर भी नियम सख़्त किए गये थे।
ज़ाहिर है कि न्यायिक हिरासत में मौजूद अर्णब गोस्वामी के लिए परिजनों से मिलना और मुश्किल हो चुका था और जेल प्रशासन के पास इसके लिए पर्याप्त कारण थे। मगर, राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने महाराष्ट्र के गृह मंत्री से बात करते समय इन कारणों की भी अनदेखी की।
अर्णब गोस्वामी की जेल से रिहाई जल्द सुनिश्चित करने के लिए जो क़दम उठाए जाने थे वो नहीं उठाए गये। इसके बजाए इस पर राजनीति हुई। राज्यपाल तक भी सीमा से बाहर जाकर मौखिक निर्देश देते दिखे, जबकि उनके पास स्पष्ट निर्देश देने का अधिकार था।
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