दिल्ली दंगों के बाद भारत के शहरों में नए किस्म का रंगभेद उभरने और अलग-अलग समुदायों के लोगों के अलग-अलग कस्बों में रहने की प्रवृत्ति बढ़ने की आशंका है। मुसलमानों को अब अपनी पसंद के घर ढूंढने में ख़ासी दिक्क़तों का सामना करना होगा। मानवाधिकार विशेषज्ञों ने यह आशंका जताई है।
टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने पूर्व संयुक्त राष्ट्र आवासन दूत मिलन कोठारी को उद्धृत करते हुए यह ख़बर दी है।
कोठारी ने थॉमसन रॉयटर्स फ़ांउडेशन को कहा, 'राजनीतिक कारणों से और पूर्व-नियोजित तरीके से अलग-अलग श्रेणियों के लोगों को शहरों में अलग-अलग रहने की प्रवृत्ति से शहरों में रंगभेद को बढ़ावा मिलता है। ऐसे में ग़रीबों के रंगभेद का शिकार होने की आशंका और बढ़ जाती है।'
कोठारी ने कहा, 'दंगों के बाद शहरों में लोगों को दड़बों में रहने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है क्योंकि उनमें डर और असुरक्षा बढ़ जाती है। कई बार तो सरकार ख़ुद इसे बढ़ावा देती है और इस तरह के अलगाव को सहयोग करती है।'
उन्होंने आशंका जताई कि दिल्ली में रहने वाले 2 करोड़ लोग अपने पहले की तुलना में अधिक तेजी से अलग-थलग होंगे, उनमें मेल मिलाप कम होगा और वे अपने-अपने दड़बों में सिमटे होंगे।
कोठारी ने दुनिया के दूसरे देशों का हवाला देते हुए कहा कि 2016 के रियो ओलंपिक खेलों के बाद उस शहर में अलग-अलग समुदायों के लोग अपने-अपने दड़बों में सिमट गए थे। ऐसा ही दिल्ली में 2010 के कॉमनवेल्थ खेलों के बाद हुआ था।
शहरों का दड़बाकरण
एक अध्ययन में पाया गया कि दिल्ली में लोग धर्म विशेष और राज्य विशेष के लोगों को भाड़े पर घर देने से कतराने लगे। खाने-पीने के अलग आदतों के लोगों के साथ भी यह दिक्क़त आई। अहमदाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर दर्शनी महादेविया ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया से कहा कि 1992-93 में मुंबई में हुए दंगों के बाद मुसलमान मिली-जुली आबादी वाले इलाक़ों से निकल कर शहर के बाहर के इलाक़ों में जा बसे। वे इलाक़े मुसलिम-बहुल क्षेत्रों में तब्दील हो गए। ऐसा ही अहमदाबाद में 2002 के दंगों के बाद हुआ था। उन्होंने कहा,
'मुसलमान, ख़ास कर ग़रीब, उन इलाक़ों में जा बसे जहाँ सिर्फ़ मुसलमान रहते थे और इसकी वजह यह थी कि वे वहां सुरक्षित महसूस करते थे। इस तरह का अलगाव राजनीतिक दलों के लिए मुफ़ीद है क्योंकि इससे सांप्रदायिक आग सुलगती रहती है।'
गुजरात और महाराष्ट्र में पाया गया कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ही, अपने घर-मकान अपने धर्म के लोगों को बेचने लगे।
यह भी पाया गया कि इन इलाक़ों में आबादी घनी हो गई, घर मिलना मुश्किल हो गया, दूसरी सुविधाएं कम हो गईं, इसके बावजूद लोग वहीं रहना पसंद करने लगे।
ऐसे में लोगों के पास यह संकट खड़ा हुआ कि वे सुविधाओं से लैस बेहतर जगह रहें या अपने-अपने दड़बों में ही सिमिटे रहें, पर लोगों ने अपने इलाक़ों में ही रहना पसंद किया। दिल्ली में भी ऐसा ही कुछ होने से इनकार नहीं किया जा सकता है।
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