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दक्षिण में फिर हिंदी विरोधी आंदोलन भड़कने का डर

शिक्षा नीति बनाने के लिए एनडीए सरकार की गठित समिति की सिफ़ारिशों को लेकर दक्षिण से विरोधी सुर उठने शुरू हो गए हैं।तमिलनाडु और कर्नाटक से विरोधी स्वर ज़्यादा प्रखर और मुखर हैं। इन दोनों दक्षिणी राज्यों में भाषायी आंदोलन से जुड़े प्रमुख संगठनों ने एलान किया है कि वे हिंदी को थोपे जाने के हर प्रयास का पूरी ताक़त के साथ विरोध करेंगे। कुछ संगठनों ने कहा है कि चाहे जो हो जाय वे हिंदी को स्कूली शिक्षा में 'अनिवार्य' होने नहीं देंगे। 

1930 के दशक में तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करने वाली द्रविड़ कड़गम (डीके) पार्टी के मौजूदा अध्यक्ष के. वीरमणि ने 'सत्य हिंदी' से बातचीत में कहा कि अगर केंद्र सरकार ने इस बार स्कूली बच्चों पर हिंदी थोपने की कोशिश की तो तमिलनाडु में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) स्कूलों को हमेशा बंद करवाने के लिए आंदोलन किया जाएगा। वहीं कर्नाटक में भाषायी आंदोलन की अगुवाई करने वाले संगठनों - ‘कन्नड़ रक्षण वेदिके’ और ‘कन्नड़ रक्षण वेदिके स्वाभिमाना बना’ ने भी कहा कि हिंदी थोपने की कोशिश को किसी हाल में कामयाब नहीं होने दिया जाएगा। कन्नड़ रक्षण वेदिके स्वाभिमाना बना के मुखिया कृष्णे गौड़ा ने 'सत्य हिंदी' से बातचीत में कहा कि केंद्र एक बार फिर ग़लती कर रही है। हिंदी थोपने की कोशिश उग्र आंदोलन को न्योता देना है। लगता है कि पिछले आंदोलनों से केंद्र सरकार ने सबक नहीं सीखा है। कन्नड़ रक्षण वेदिके के नेता प्रवीण शेट्टी ने कहा कि हिंदी को जब 'ऑप्शनल' करने का विकल्प है तो उसे 'कंपल्सरी' करने की क्या ज़रूरत है। 'कंपल्सरी' करने की कोशिश को ज़ोर-ज़बरदस्ती समझा जाएगा और इसका जनता विरोध करेगी।

  • तमिलनाडु और कर्नाटक से उठी इन आवाज़ों से साफ़ है कि केंद्र सरकार अगर देशभर में त्रिभाषा व्यवस्था लागू करने की कोशिश करती है तो इन दो राज्यों में हिंदी विरोधी आंदोलन शुरू होगा।

ग़ौरतलब है कि नयी शिक्षा नीति बनाने के लिए गठित के. कस्तूरीरंगन समिति ने रिपोर्ट तैयार कर ली है। बताया जाता है कि रिपोर्ट में देशभर में तीन भाषा व्यवस्था को लागू करने और हर राज्य में आठवीं कक्षा तक हिंदी अनिवार्य करने की सिफ़ारिश की गई है, हालांकि केंद्रीय मानव विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने इससे इनकार किया है। लेकिन, अगर यह सिफ़ारिश लागू करने की बात भी केंद्र सरकार कहती है तो तमिलनाडु और कर्नाटक में हिंदी विरोधी आंदोलन की चिंगारी के भड़कने का ख़तरा है।

द्रविड़ आंदोलन और हिंदी विरोधी आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाने वाले वीरमणि ने कहा, "तमिलनाडु की जनता में हिंदी विरोधी ख़ून है और वह हिंदी थोपने और संस्कृतकरण की हर कोशिश का विरोध करती आई है और विरोध करती रहेगी।"

बड़ी बात यह है कि तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन का इतिहास बहुत पुराना है। साल 1937 में जब मद्रास प्रान्त में इंडियन नेशनल कांग्रेस की सरकार बनी थी और सरकार के मुखिया चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने हिंदी को अनिवार्य करने की कोशिश की थी तब द्रविड़ आंदोलन के नेता 'पेरियार' के नेतृत्व में हिंदी विरोधी आंदोलन हुआ था। आंदोलन इतना तीव्र और प्रभावशाली था कि सरकार को झुकना पड़ा था। इसके बाद 50 और  60 के दशकों में भी जब हिंदी को थोपने की कोशिश की गयी तब भी जमकर आंदोलन हुआ। कई जगह हिंसा भी हुई। हिंसा में कुछ लोगों की जान भी गयी। तमिलनाडु ने हमेशा ही हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रस्ताव का भी विरोध किया है। राजनीति के जानकारों का कहना है कि तमिलनाडु में पहली ग़ैर-कांग्रेसी सरकार बनने का कारण भी द्रविड़ आंदोलन ही था। तमिलनाडु की सभी द्रविड़ पार्टियाँ शुरू से ही हिंदी को अनिवार्य करने की कोशिश का विरोध करती रही हैं। पेरियार, अन्ना दुराई, एमजीआर, करुणानिधि, जयललिता जैसे सभी नेताओं ने तमिलनाडु में हिंदी को अनिवार्य किये जाने का विरोध किया है। द्रविड़ पार्टियों का हिंदी विरोध इतना तीव्र है कि इन पार्टियों ने तमिलनाडु में राजमार्ग पर लगने वाले साइन बोर्ड/ दिशा-निर्देश पट्टिकाओं पर हिंदी में लिखे जाने का विरोध किया है। 

तमिलनाडु जैसी ही स्थिति कर्नाटक में है। हालत यह है कि कुछ संगठनों ने राजधानी बेंगलुरु में मेट्रो रेल स्टेशनों पर जहाँ कहीं हिंदी में लिखा था उसे मिटा दिया। हिंदी में घोषणाओं को बंद करा दिया।

केरल, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में स्थिति अलग क्यों?

ऐसे में यह साफ़ दिखाई देता है कि अगर एक बार फिर सभी राज्यों में स्कूलों में हिंदी सीखने को अनिवार्य किया गया तो तमिलनाडु और कर्नाटक में विरोध होगा। लेकिन दक्षिण के तीन राज्यों - केरल, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में स्थिति अलग है। यहाँ पहले से ही स्कूलों में बच्चों को हिंदी सिखाई जा रही है। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि हिंदी पट्टी के राज्यों में अपना जनाधार मज़बूत करने के मक़सद से बीजेपी ने एक बार फिर हिंदी अनिवार्यता का मुद्दा उछालने की कोशिश की है। लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि बीजेपी मौजूदा समय में दक्षिण के लोगों, वह भी ख़ासकर तमिलनाडु और कर्नाटक जैसे बड़े राज्यों की जनता को नाराज़ नहीं करेगी। और तो और, दक्षिण में कर्नाटक से ही उसे सबसे ज़्यादा लोकसभा सीटों की उम्मीद है। बहरहाल, इतना तय है कि अगर केंद्र सरकार कस्तूरीरंगन की सिफ़ारिशों को मान लेती है तो हिंदी भी एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनेगा।

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क़मर वहीद नक़वी
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