केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि भारत के अलग-अलग राज्यों के लोगों को एक दूसरे के साथ हिंदी में बातचीत करनी चाहिए ना कि अंग्रेजी में। अमित शाह इससे पहले भी पूरे देश की एक भाषा हिंदी होने की बात कह चुके हैं और तब इसे लेकर देश के कई राज्यों में काफी विरोध हुआ था।
अमित शाह ने संसदीय भाषा समिति की 37 वीं बैठक में कहा, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फैसला किया है कि सरकार चलाने का माध्यम राजभाषा होनी चाहिए और इससे निश्चित रूप से हिंदी की अहमियत बढ़ेगी। अब वक्त आ गया है कि राजभाषा को हमारे देश की एकता का अहम हिस्सा बनाया जाए।”
गृह मंत्री ने कहा कि जब ऐसे राज्यों के लोग जो अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं, वे आपस में बात करते हैं तो यह बातचीत भारत की भाषा में होनी चाहिए।
हालांकि अमित शाह ने अपने बयान को साफ करते हुए कहा कि हिंदी को अंग्रेजी के विकल्प के तौर पर लिया जाना चाहिए ना कि स्थानीय भाषाओं के। उन्होंने यह भी कहा कि हिंदी को बाकी भाषाओं के शब्दों को शामिल करके इसे और लचीला बनाया जाना चाहिए।
शाह के इस बयान के बाद ट्विटर पर #stopHindiImposition ट्रेंड हुआ और लोगों ने कहा कि भारत में 22 आधिकारिक भाषाएं हैं और हिंदी उनमें से एक है। कुछ यूजर्स ने कहा कि भारत की कोई भी राष्ट्रीय भाषा नहीं है।
गृह मंत्रालय के मुताबिक, अब कैबिनेट का 70 फीसद एजेंडा हिंदी में तैयार किया जाता है।
पहले भी दिया था बयान
साल 2019 में अमित शाह ने एक ट्वीट में कहा था कि आज देश को एकता के दौर में बांधने का काम अगर कोई एक भाषा कर सकती है तो वह सबसे ज्यादा बोले जाने वाली हिंदी भाषा ही है। हालांकि शाह ने कहा था कि भारत अलग-अलग भाषाओं का देश है और हर भाषा का अपना महत्व है। लेकिन उनके इस ट्वीट के बाद दक्षिण के राज्यों और पश्चिम बंगाल में भी प्रतिक्रिया हुई थी।
तब इस ट्वीट को लेकर बीजेपी शासित कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने कहा था कि कर्नाटक में कन्नड़ प्रधान भाषा है और हम कभी भी इसकी अहमियत से समझौता नहीं करेंगे। जबकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा था कि हम कई भाषाएं सीख सकते हैं लेकिन हमें अपनी मातृभाषा को कभी नहीं भूलना चाहिए।
वामपंथी नेता सीताराम येचुरी ने कहा था कि हिंदी को देशभर में थोपे जाने का विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है और संघ की विचारधारा एक राष्ट्र एक भाषा और एक संस्कृति की है जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने भी शाह के बयान की आलोचना की थी।
इसके बाद हिंदी दिवस के दिन स्थानीय कन्नड़ संगठनों ने इसका विरोध करते हुए बेंगलुरु में प्रदर्शन भी किया था।
हिंदी विरोधी आंदोलन
बता दें कि तमिलनाडु में हिंदी विरोधी आंदोलन का बहुत पुराना इतिहास रहा है। साल 1937 में जब मद्रास प्रान्त में इंडियन नेशनल कांग्रेस की सरकार बनी थी और सरकार के मुखिया चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने हिंदी को अनिवार्य करने की कोशिश की थी लेकिन तब द्रविड़ आंदोलन के नेता 'पेरियार' के नेतृत्व में हिंदी विरोधी आंदोलन हुआ था।
यह आंदोलन इतना तीव्र और प्रभावशाली था कि सरकार को झुकना पड़ा था। इसके बाद 50 और 60 के दशकों में भी जब हिंदी को थोपने की कोशिश की गयी तब भी जमकर आंदोलन हुआ था और हिंसा भी हुई थी।
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