एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स (एडीआर) ने चुनावी बॉन्ड यानी इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री पर तुरन्त रोक लगाने का आदेश देने की गुहार सुप्रीम कोर्ट से की है। इसने अदालत में दायर याचिका में कहा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री पर रोक नहीं लगी तो पाँच राज्यों में चुनाव के ठीक पहले फ़र्जी (शेल) कंपनियों के ज़रिए राजनीतिक पार्टियों को पैसे दिए जाएंगे।
मशहूर वकील प्रशांत भूषण ने वित्त अधिनियम 2017 के उस प्रावधान का विरोध किया था कि इलेक्टोरल बॉन्ड पर खरीदने वाले व्यक्ति या कंपनी का नाम नहीं होगा। उन्होंने इसे चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी।
एडीआर ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि पहले की याचिका के लंबित पड़े होने के मद्देनज़र वह सरकार को आदेश दे कि वह इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री के लिए नया विन्डो न खोले, यानी अभी उसकी बिक्री न करे।
याचिका में कहा गया है,
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"इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम ने राजनीतिक दलों को कॉरपोरेट चंदे के लिए असीमित दरवाजे खोल दिए हैं, देशी ही नहीं, विदेश कंपनियाँ भी पार्टियों को चंदा दे सकती हैं, जिससे देश के लोकतंत्र पर गंभीर असर पड़ सकते हैं।"
सुप्रीम कोर्ट में दायर एडीआर की याचिका का अंश
क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड?
इलेक्टोरल बॉन्ड दरअसल एक तरह का फ़ाइनेंशियल इंस्ट्रूमेंट यानी वित्तीय साधन है, जिससे कोई किसी दल को चंदा दे सकता है।
- यह प्रॉमिसरी नोट की तरह होता है और बियरर चेक की तरह इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। यानी, जो पार्टी इसे बैंक में जमा करा देगी, उसके खाते में ही यह पैसा जमा कर दिया जाएगा।
- इलेक्टोरल बॉन्ड्स 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, 1 लाख रुपये, 10 लाख रुपये और 1 करोड़ रुपये का लिया जा सकता है।
- इसे कोई भी नागरिक या कंपनी स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से ख़रीद सकता है, उसे अपने प्रमाणित खाते से इसका भुगतान करना होगा।
- लेकिन उसका नाम-पता कहीं दर्ज़ नहीं होगा। वह किस पार्टी को यह बॉन्ड दे रहा है, इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं होगा।
- यह 15 दिनों तक वैध रहेगा। हर साल जनवरी, अप्रैल, जून और अक्टूबर में बैंक इसे देना शुरू करेगा और 30 दिनों तक दे सकेगा।
पारदर्शिता का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन
अमेरिका, ब्रिटेन, स्वीडन जैसे देशों में राजनीतिक चंदा देने वाले को अपनी पहचान को सार्वजनिक करना होता है। भारत की जन प्रतिनिधि क़ानून की धारा 29 सी के अनुसार, 20,000 रुपये से ज़्यादा चंदे की जानकारी चुनाव आयोग को देनी होगी।
लेकिन, वित्तीय अधिनियम 2017 के क्लॉज़ 135 और 136 के तहत इलेक्टोरल बॉन्ड को इसके बाहर रखा गया है।
यह व्यवस्था भी की गई है कि राजनीतिक दलों की ओर से चुनाव आयोग को दिए गए अपने आमदनी-ख़र्च के हिसाब किताब में इलेक्टोरल बॉन्ड्स की जानकारी देना अनिवार्य नहीं है।
काले धन को बढ़ावा
इलेक्टोरल बॉन्ड काले धन को बढ़ावा दे सकता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। कंपनीज़ एक्ट की धारा 182 के तहत यह व्यवस्था की गई थी कि कोई कंपनी अपने सालाना मुनाफ़ा के 7.5 प्रतिशत से अधिक का चंदा नहीं दे सकती।
लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड को इससे बाहर रखा गया है।
इसका नतीजा यह होगा कि बेनामी या शेल कंपनी के ज़रिए पैसे दिए जा सकेंगे। शेल कंपनियों के पास काला धन होता है। इस तरह बड़े आराम से काला धन चंदे के रूप में राजनीतिक दलों को दिया जा सकता है और किसी को पता भी नहीं चलेगा।
फ़ॉरन रेगुलेशन कंट्रीब्यूशन एक्ट में संशोधन कर ऐसा बदलाव किया गया है कि जिन भारतीय कंपनियों में विदेशी कंपनियों का बहुमत शेयर हो, वह आसानी से भारत के राजनीतिक दलों को चंदा दे सके।
विदेशी कंपनियाँ अपने तरीके से भारतीय पार्टियों को प्रभावित कर सकेंगी और बाद में एक तरह से भारतीय राजनीति को अपने हिसाब से मोड़ सकेंगी। इसका असर यह होगा कि भारतीय सरकार पर विदेशी कॉरपोरेट जगत का कब्ज़ा हो जाएगा।
क्या है मक़सद?
मक़सद साफ है, बीजेपी चाहती है कि राजनीतिक दलों को और उसे ख़ास रूप से गुपचुप पैसे मिलें, किसी को पता न चले, जो पैसा दे उसका भी नाम सामने न आए और किस वजह से उसे पैसे दिए गए हैं, इसका भी खुलासा न हो।
लेकिन यह सवाल भी उठता है कि दूसरी राजनीतिक पार्टियों का क्या रवैया था? सबसे बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस ने थोड़ी बहुत सुगबुगाहट तो दिखाई, पर उसने कोई मुखर विरोध नहीं किया। और तो और, वामपंथी दल भी इस पर खामोश रहे।
साफ़ है, तमाम राजनीतिक दल कारपोरेट जगत से पैसे चाहते हैं, भले ही काला धन ही क्यों न हो। शुचिता का दावा करने वाले, दूसरों से अलग होने का दावा करने वाले और पूंजी को तमाम बुराइयों की जड़ बताने वाले, सभी इस पर चुप हैं।
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