नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने वाले लोगों का डर बेवजह नहीं है। भले ही मोदी सरकार लाख बार कहे कि इस क़ानून से किसी की नागरिकता नहीं जाएगी। लेकिन नागरिकता जाने की बात ही रूह कंपा देने वाली है और शायद इसीलिये लाखों लोग इस क़ानून को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। एनडीटीवी के मुताबिक़, असम में रहने वाली 50 साल की एक महिला जाबेदा बेगम दिन-रात अपनी नागरिकता साबित करने की लड़ाई लड़ रही है। जाबेदा की ख़बर पढ़कर आप सोचने को मजबूर होंगे कि आख़िर शाहीन बाग़ की महिलाएं इतनी ठंड में भी धरने से क्यों नहीं उठीं।
जाबेदा को अपने परिवार के खाने-पीने का भी इंतजाम करना है क्योंकि उनके पति रेजाक अली बीमारी के कारण बिस्तर पर हैं। जाबेदा गुवाहाटी से 100 किमी. दूर बक्सा जिले के गोयाबारी गाँव में रहती हैं। जाबेदा को असम के फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल के द्वारा विदेशी घोषित कर दिया गया है।
जाबेदा ने ख़ुद को भारतीय नागरिक साबित करने के लिये गुवाहाटी हाई कोर्ट में लड़ाई लड़ी लेकिन वह हार गई। सुप्रीम कोर्ट उसकी पहुंच से बहुत दूर है। इस दंपति की तीन बेटियां थीं। एक की मौत दुर्घटना में हो गयी, दूसरी लड़की लापता है और सबसे छोटी अस्मिना 5वीं कक्षा में पढ़ती है। जाबेदा अस्मिना के भविष्य को लेकर परेशान रहती हैं। उनकी मुश्किलें इसलिये ज़्यादा हैं क्योंकि जो कुछ भी वह कमाती हैं, उसका बहुत बड़ा हिस्सा क़ानूनी लड़ाई लड़ने में ख़र्च हो जाता है और इस वजह से कई बार अस्मिना को भूखे ही सोना पड़ता है। जाबेदा एनडीटीवी से कहती हैं, ‘मुझे इस बात की चिंता है कि मेरे बाद उनका क्या होगा। मेरी सारी उम्मीदें ख़त्म हो चुकी हैं।’
जाबेदा रोते हुए कहती हैं, ‘मेरे पास जो कुछ था, मैंने ख़र्च कर दिया। अब मेरे पास क़ानूनी लड़ाई लड़ने के लिये संसाधन नहीं हैं।’
एनडीटीवी के मुताबिक़, जाबेदा ने ट्रिब्यूनल के सामने 15 दस्तावेज जमा किये हैं। इनमें उसके पिता जाबेद अली की 1966, 1970, 1971 की वोटर लिस्ट भी है। ट्रिब्यूनल का कहना है कि वह अपने पिता से अपने संबंध का कोई संतोषजनक सबूत पेश नहीं कर पाई। जाबेदा के पास जन्म प्रमाण पत्र नहीं था, इसलिये उसने अपने गाँव के प्रधान से बनवाया हुआ एक प्रमाण पत्र पेश किया, जिसमें उसके माता-पिता और जन्म स्थान लिखा था। लेकिन इसे ट्रिब्यूनल और अदालत ने स्वीकार ही नहीं किया। जाबेदा के माता-पिता उनकी जमीन ब्रहमपुत्र नदी के कटाव में आने के कारण हाजो से बक्सा आ गये थे।
एनडीटीवी के मुताबिक़, गाँव के प्रधान गोलक कलिता कहते हैं, ‘मुझे गवाह के रूप में बुलाया गया था। मैंने उन्हें बताया कि मैं उसे जानता हूं। उसके क़ानूनी रूप से निवासी होने का साक्ष्य दिया। हम लोगों को स्थायी निवासी होने का सर्टिफ़िकेट भी देते हैं, विशेष रूप से ऐसी महिलाओं को जो शादी के बाद गाँव से बाहर चली जाती हैं।’
जाबेदा और उनके पति का नाम एनआरसी में भी नहीं था। उन्होंने वोट भी नहीं दिया था क्योंकि दोनों का नाम संदेहास्पद मतदाताओं की सूची में था। संदेहास्पद मतदाताओं की सूची में उन लोगों के नाम शामिल हैं जिनके पास अपनी नागरिकता साबित करने के लिये दस्तावेज़ नहीं हैं।
जाबेदा बेग़म के पास तीन बीघा ज़मीन थी जिसे उन्होंने क़ानूनी लड़ाई लड़ने के लिये बेच दिया और अब वह 150 रुपये दिहाड़ी की नौकरी करती हैं। उनके पति रेजक अली कहते हैं, ‘हमारी उम्मीद ख़त्म हो चुकी है और मौत बहुत क़रीब है।’
जाबेदा ही अकेली नहीं
ऐसा नहीं है कि यह केवल जाबेदा की कहानी है। 19 लाख लोग एनआरसी में आने से बाहर रह गये हैं और ये लोग अपनी नागरिकता साबित करने के लिये जद्दोजहद कर रहे हैं। ऐसा ही मामला ताउम्र सेना में रहकर देश की सेवा करने वाले मुहम्मद सनाउल्लाह का भी है। सनाउल्लाह और उनके परिवार पर अवैध तरीक़े से भारत में रहने का आरोप लगा था इसके बाद सनाउल्लाह को डिंटेशन सेंटर में भेज दिया गया था। सनाउल्लाह आज भी ख़ुद को भारतीय साबित करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। सनाउल्लाह के अलावा देश के 5वें राष्ट्रपति फख़रूद्दीन अली अहमद के परिवार के 4 सदस्यों के नाम भी एनआरसी की सूची से बाहर हैं।
घुट-घुटकर मरना मजबूरी
ऐसी स्थिति में आप क्या कहेंगे। लोग अपनी जीवन भर की कमाई, जमा-पूँजी लगाकर दिन-रात सिर्फ़ यह साबित करने में जुटे हैं कि वे भारत के नागरिक हैं। जो लोग अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पायेंगे उन्हें डिटेंशन कैंप में भेज दिया जायेगा। इसे लेकर भी केंद्र सरकार का झूठ सामने आ चुका है। प्रधानमंत्री मोदी के यह कहने पर कि डिटेंशन सेंटर की बात झूठ है लोगों ने उन्हें फ़ेसबुक पर दिखाया कि मोदी जी, असम के गोलपाड़ा में डिटेंशन सेंटर बन रहा है। नागरिकता साबित कर पाने में फ़ेल लाखों लोग डिटेंशन कैंप में नारकीय जिंदगी जीने को मजबूर होंगे। लेकिन सरकार के पास सिर्फ़ दावे हैं और पीड़ित लोगों के पास घुट-घुटकर मरने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है।
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