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स्वायत्तता के नाम पर बेइमानियों के अड्डे बन गए विश्वविद्यालय

विश्व के किसी भी असमानता वाले समाज में एक ऐसा समूह बन जाता है, जो एक गिरोह बनाकर हर सुख-सुविधाओं पर कब्जा कर लेता है। भारत में कुछ जाति विशेष के लोगों का मलाई पर आरक्षण रहा है, वहीं, बहुसंख्य आबादी के लिए जातीय आधार पर निम्न कहे जाने वाले और कम कमाई वाले कामों को आरक्षित कर दिया गया, जिसमें श्रम ज़्यादा लगता है और पैसे व सम्मान कम मिलता है।

इस आरक्षण का परिणाम यह हुआ कि देश की 85 प्रतिशत से ज़्यादा आबादी शासन-प्रशासन से वंचित रह गई। उसे यह अहसास ही नहीं होता था कि यह देश उनका भी है। तमाम विदेशी आक्रमणकारी आते, भारत को लूटकर चले जाते। उसकी वजह यह थी कि देश में एक जाति विशेष को सैन्य कार्य सौंपा गया था और एक जाति विशेष के लोग पुरोहित बनकर उनको सलाह देते थे। 
पठन-पाठन पर एक जाति विशेष का कब्जा रहा, वही शोध और शिक्षा का काम करते थे और देश की क़रीब 85 प्रतिशत आबादी को जातीय आधार पर पढ़ने-लिखने से रोक दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत में कभी कोई बेहतर शोध नहीं हुआ और भारत आज ज्ञान-विज्ञान में पूरी तरह से भीख पर निर्भर है।
अंग्रेजों के दौर में इस स्वतः स्फूर्त सामाजिक आरक्षण को तोड़कर सबको हिस्सेदारी देने की कवायद हुई, जिससे भारत में रह रही हजारों जातियों को शासन-प्रशासन, शिक्षण संस्थानों व जितनी भी मलाईदार जगहें हैं, वहाँ मौक़ा मिल सके।

पहले जैसा ही आरक्षण 

देश स्वतंत्र होने के बाद अनुसूचित जाति एवं जनजाति का आरक्षण पूर्ववत रखा गया, जैसा अंग्रेजों के काल में था। अंग्रेजों ने आबादी के आधार पर अनुसूचित जाति को 15 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति को 7.5 प्रतिशत आरक्षण दिया था। इसी के साथ देश के स्वतंत्र होने पर संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में यह प्रावधान डाला गया कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को शासन-सत्ता में उचित प्रतिनिधित्व देने के लिए सरकार प्रावधान कर सकती है।

यह व्यवस्था मूल संविधान में नहीं थी, बल्कि संविधान लागू होने के बाद 1951 में पहले संवैधानिक संशोधन से इसे लागू किया गया। यह एक स्पष्टीकरण था, जिसमें साफ़ किया गया कि अगर सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को अलग से जगह दी जाती है तो यह संविधान में नागरिकों को दिए गए समता के अधिकार का उल्लंघन नहीं होगा।

1950 से ही लागू है आरक्षण 

अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण 1950 से ही लागू है। वहीं, अन्य पिछड़े वर्ग को केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में आरक्षण 2008 में कांग्रेस के शासन काल में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह के प्रयासों से मिला था। हालाँकि तमाम राज्यों ने पहले से ही शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान कर रखा था।  

नहीं पूरा हुआ स्वायत्तता का मक़सद

पूरी दुनिया में विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता मिली हुई है। स्वाभाविक है कि भारत में भी विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता दी गई थी। इसका मक़सद तो यह था कि गुरु जी लोग मुक्त होकर पढ़ाएँ और चूँकि सरकार विश्वविद्यालयों को धन देती है, इसके चलते उनके ऊपर दबाव न बना सके। 

शिक्षकों ने बेहतर पढ़ाई कराने, बेहतर शोध कराने के लिए मिली स्वायत्तता की ताक़त का पूरा इस्तेमाल इसलिए किया कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग विश्वविद्यालयों में किसी भी हाल में मास्टर न बनने पाएँ।

अभी इसके ठीक-ठीक आँकड़े नहीं मिल पा रहे हैं। लेकिन ज़्यादातर विश्वविद्यालयों की परिषद ने आरक्षण को मंजूरी ही नहीं दी। इस तरह से संविधान में व्यवस्था होने के बावजूद विश्वविद्यालयों में आरक्षण लागू नहीं हुआ। 

आरक्षण को नहीं दी मंजूरी

बार-बार सवाल उठता है कि 1950 से ही 22.5 प्रतिशत सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए उपलब्ध हैं तो उसके बावजूद किसी भी विश्वविद्यालय में 22.5 प्रतिशत अध्यापक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के क्यों नहीं हैं?  इसकी एक वजह यह है कि विश्वविद्यालयों की परिषदों ने आरक्षण लागू करने को मंजूरी ही नहीं दी थी।

देवगौड़ा सरकार बनने पर आई तेज़ी

मुख्य रूप से 1996 में एच. डी. देवगौड़ा सरकार बनने पर विश्वविद्यालयों में आरक्षण देने की प्रक्रिया में तेज़ी आई। तब पिछड़ों, दलितों के तमाम छोटे-छोटे दलों से मिलकर तैयार किए गए गठजोड़ ने केंद्र में सत्ता संभाली थी। उस समय यूजीसी के माध्यम से विश्वविद्यालयों पर पहली बार सख़्ती की गई कि एससी, एसटी और ओबीसी को आरक्षण दिया जाए। तमाम विश्वविद्यालयों ने केंद्र सरकार के दबाव में यह प्रावधान कर दिया।

अलग-अलग रोस्टर प्रणाली बनाई 

अब समस्या यह आई कि किस तरह से आरक्षण दिया जाए? अगर किसी विभाग में एक पद है, या 4 पद हैं तो वह किस वर्ग को दिया जाए। इसके समाधान के लिए सभी विश्वविद्यालयों ने अलग-अलग रोस्टर प्रणाली बनाई थी। कहीं इसे 10 प्वाइंट रोस्टर कहा गया, कहीं 20 प्वाइंट रोस्टर कहा गया तो कहीं 13 प्वाइंट रोस्टर कहा गया।

क्या है 13 प्वाइंट रोस्टर?

पहले समझने की कोशिश करते हैं कि 13 प्वाइंट रोस्टर होता क्या है। 13 प्वाइंट रोस्टर में यह होगा कि 1, 2, 3, 5, 6, 9 नंबर के पद सामान्य रहेंगे। उसके बाद 4, 8 और 12 नंबर के पद ओबीसी के रहेंगे और 7 नंबर का पद अनुसूचित जाति और 14वाँ पद अनुसूचित जनजाति के लिए रहेगा। अगर विभाग में 4 पद हैं और सभी पदों पर सामान्य वर्ग के लोग बैठे हैं तो इसमें से अगर कोई एक आदमी सेवानिवृत्त होगा तो वह पद पिछड़े वर्ग के लिए निकाला जाएगा। 

इस तरह से जब यह भर्ती प्रक्रिया 7वें नंबर तक पहुँचेगी तो अनुसूचित जाति के अभ्यर्थी को जगह दी जाएगी और 14वाँ पद निकलने पर अनुसूचित जनजाति के अभ्यर्थी को मौक़ा दिया जाएगा।

उसके बाद 15वाँ पद सामान्य वर्ग के लिए जाएगा। इस प्रक्रिया में नौकरी पाने में कई साल या दशक लग सकते हैं, तब जाकर आरक्षित वर्ग का नंबर आता है। यह व्यवस्था उस साल से कैलकुलेट होती है, जब विश्वविद्यालय ने आरक्षण को मंजूरी दी होती है। यानी अगर किसी विश्वविद्यालय ने 2005 में आरक्षण को मंजूरी दी है तो उसका आधार वर्ष 2005 माना जाएगा। भर्ती के लिए ओबीसी को चौथे और एससी को 7वें और एसटी को 14वें नंबर के पद की वैकेंसी निकलने का इंतज़ार करना होगा।

व्यवस्था में हैं तमाम विसंगतियाँ

इस व्यवस्था में तमाम विसंगतियाँ पाई गईं। उदाहरण के लिए अगर अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 प्रतिशत आरक्षण है और उसके लिए 14वीं सीट आरक्षित की जाती है, तो उसका यह कोटा कभी पूरा नहीं होता। इसी तरह से इस 13 प्वाइंट के रोस्टर में अनुसूचित जाति का  15 प्रतिशत और पिछड़े वर्ग का 27 प्रतिशत कोटा भरने की कोई गुंजाइश नहीं थी।

यह विसंगतियाँ सामने आने पर कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग-1) सरकार के कार्यकाल में डीओपीटी (https://dopt.gov.in/) मंत्रालय ने 2005 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) (https://www.ugc.ac.in/hindi/)  को पत्र भेजकर विसंगतियाँ दूर करने को कहा। यूजीसी के तत्कालीन चेयरमैन वी. एन. राजशेखरन पिल्लई ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक प्रफे़सर राव साहब काले की अध्यक्षता में 3 सदस्यों की समिति बनाई, जिसे भर्ती के लिए फ़ॉर्मूला देना था। इस समिति में क़ानूनविद प्रफे़सर जोस वर्गीज और यूजीसी के तत्कालीन सचिव डॉ. आर. के. चौहान शामिल थे।

200 प्वाइंट के रोस्टर की सिफ़ारिश 

समिति ने तमाम रोस्टरों और आरक्षण क्रमों को समाप्त कर 200 प्वाइंट का रोस्टर बनाने की सिफ़ारिश की, जिसे विश्वविद्यालयों को लागू करना था। इसमें आरक्षण की रोस्टर प्रणाली को लेकर आर. के. सब्बरवाल बनाम पंजाब राज्य (https://indiankanoon.org/doc/1871744/) मामले में उच्चतम न्यायालय की पीठ के 1995 के फ़ैसले को आधार बनाया गया था। राव साहब काले ने तमाम विसंगतियों पर ‘इंडियन हायर एजुकेशन-अ पर्सपेक्टिव फ़्रॉम द मार्जिन’ नाम से एक किताब भी लिखी है, जिसमें उन्होंने बहुत कुछ साफ़ किया है।

समिति की सिफ़ारिश स्वीकार होने के बाद से विश्वविद्यालयों को 200 प्वाइंट का रोस्टर लागू करना था। इसके माध्यम से सभी आरक्षित वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व देने की कवायद की गई थी। इस रोस्टर को विश्वविद्यालयों ने क़रीब-क़रीब खारिज कर दिया।

तमाम विश्वविद्यालयों ने दशकों तक नियुक्तियाँ रोके रखीं और केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने पर थोक भाव में वैकेंसी निकालनी शुरू की, तब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फ़ैसले को आधार बनाकर यूजीसी ने विश्वविद्यालय स्तर पर रोस्टर लागू करने के बजाय विभागीय रोस्टर की अधिसूचना जारी कर दी।

(अगले हिस्से में पढ़ें कि क्या है 200 प्वाइंट रोस्टर और विश्वविद्यालय स्तर पर यह रोस्टर न लागू कर विभाग स्तर पर रोस्टर लागू करने से क्या मुसीबत टूट पड़ी है)।

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प्रीति सिंह
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