दिल्ली से सटे फरीदाबाद में स्थित खोरी गांव में रहने वाले लोगों पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की ऐसी मार पड़ी है कि वे बेघर होकर सड़क पर आ गए हैं। भयंकर गर्मी, धूप, बरसात में वे बीते पांच महीने से सड़क पर ही हैं। क्या है पूरा मामला, इसे विस्तार से समझते हैं।
खोरी गांव की कहानी उन लोगों की है, जो रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली आए थे। उसी तरह, जिस तरह लाखों लोग हर साल आते हैं। मेहनत-मज़दूरी करके फरीदाबाद के खोरी गांव में उन्होंने ज़मीन का छोटा सा टुकड़ा ले लिया। खून-पसीने की मेहनत से इकट्ठा किए रुपयों से यहां छोटे-छोटे कमरे बनाए और जिंदगी की गाड़ी जैसे-तैसे चलने लगी।
लेकिन शायद इनकी किस्मत में सुकून और दो वक़्त की चैन की रोटी नहीं लिखी थी। फरवरी, 2020 में सुप्रीम कोर्ट का आदेश आ गया कि यह गांव अरावली के जंगलों की ज़मीन पर बसा है और यहां किए गए निर्माण अवैध हैं, इसलिए इन्हें ध्वस्त कर दिया जाए।
दिल पर हाथ रखकर देखिए कि महीने में 10-20 हज़ार कमाने वाले लोगों के ‘सपनों के घर’ के सामने बुलडोजर खड़ा हो और वे लोग अगर विरोध करें तो उन्हें क़ाबू में करने के लिए बड़ा सरकारी अमला वहां तैनात हो तो उन पर क्या गुजर रही होगी।
सरकारी अमले की क्या ग़लती, उन्हें तो शीर्ष अदालत के हुक़्म को तामील करवाना है। लेकिन सरकारों की तो है क्योंकि इस मामले में सबसे बड़ा सवाल यही है कि जब इस गांव में लोग बस रहे थे, ज़मीनें ख़रीदी जा रही थीं, ज़रूरी सुविधाएं दी जा रही थीं तब ये सरकारें कहां सोई हुई थीं। क्योंकि ये सुविधाएं सरकारी विभागों ने ही इन लोगों को दी थी।
नेताओं को कोसते गांव वाले
गांव के लोग वहां पहुंचे मीडियाकर्मियों को अपना दुख बताते हुए कहते हैं कि नेताओं ने ही उनके घरों में बिजली-पानी का कनेक्शन दिया, सड़क पहुंचाई और बाक़ी ज़रूरी इंतजाम किए। लेकिन आज उन नेताओं की शक्ल दिखना मुश्किल हो गया है। वे बताते हैं कि ये गांव कोई एक-दो दिन में नहीं बल्कि 20 साल में बसा है।
लोग कहते हैं कि वे यहां फ्री में नहीं रह रहे थे। उन्होंने प्रॉपर्टी डीलरों को पैसे देकर ज़मीन ख़रीदी थी। वे रोते हुए कहते हैं कि वे अब कहां जाएंगे।
पूरी तरह बेबस
छोटे-छोटे बच्चे, महिलाएं, बुजुर्ग, पुरूष सभी धूप-बरसात में अपने ‘सपनों के घर’ को मलबे में तब्दील होते देख रहे हैं। उनके पास कोई ठौर-ठिकाना नहीं है कि किसके वहां रात गुजारें। कोई परिचित रखेगा भी तो आख़िर कितने दिन, क्योंकि ग़रीब का परिचित संभवत: कोई ग़रीब ही होगा, जिसके पास ख़ुद की छोटी सी खोली होगी, ऐसे में वह चाहकर भी इनकी मदद नहीं कर पाएगा।
नेता-भू माफ़ियाओं का खेल
महानगरों में नेता भू माफ़ियाओं के साथ मिलकर इस तरह का ‘खेल’ करते रहते हैं। बाहर से रोजी-रोटी कमाने आए लोगों को वे वोटर बना देते हैं, जिससे चुनाव में उनसे वोट लिए जा सकें। बदले में उन्हें बिजली-पानी का कनेक्शन सहित छोटी-मोटी बुनियादी सुविधाएं दे देते हैं। महानगरों में कमाने-खाने के बहुत काम हैं, इसलिए लोग यहां टिक भी जाते हैं।
लेकिन जो मुसीबत खोरी गांव के लोगों के सामने आई है, उससे वे कैसे बाहर निकलेंगे क्योंकि घर-बार सब ख़त्म हो चुका है। लगभग पूरी जमा-पूंजी स्वाहा हो चुकी है। अब किसके घर जाएं, क्या ख़ुद खाएं, क्या परिजनों को खिलाएं, ये सोच-सोचकर उनकी जान निकल रही है।
पुरजोर विरोध भी किया
‘सपनों के घर’ को तोड़े जाने का पुरजोर विरोध यहां के लोगों ने किया। लेकिन उन्हें पुलिस की लाठियां खानी पड़ीं। इसके ख़िलाफ़ महापंचायत भी हुई लेकिन प्रशासन ने किसी की बात नहीं सुनी। ‘सपनों का घर’ यहां पर इसलिए लिखा गया है क्योंकि महानगर में छोटा सा घर भी बना पाना किसी ग़रीब के लिए सपना ही होता है।
सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी, 2020 में इन घरों को गिराने का निर्देश दिया था और अप्रैल से गिराने की कार्रवाई शुरू कर दी गई थी। खोरी गांव में ये मकान अरावली के जंगलों की ज़मीन पर बने हुए थे। यहां 150 एकड़ में लगभग 6,600 मकान बने हुए थे।
अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा है कि अरावली जंगल की ज़मीन पर बने सभी निर्माणों को ध्वस्त कर दिया जाए। अदालत ने आदेश दिया है कि इन सभी को 23 अगस्त से पहले गिरा दिया जाए। गिराने का काम फरीदाबाद नगर निगम की ओर से किया जा रहा है। नगर निगम ने शीर्ष अदालत को बताया कि 80 फ़ीसदी घरों को गिराया जा चुका है और डेडलाइन से पहले वह यह काम पूरा कर लेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को इस मामले में सुनवाई के दौरान हरियाणा सरकार को तीन हफ़्ते का वक़्त दिया है और कहा है कि वह यहां रहने वाले लोगों के पुनर्वास का फ़ाइनल प्लान उसके सामने रखे।
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