आख़िरकार गुजरात कांग्रेस में खाम (KHAM) थ्योरी के चलते एक प्रदेश अध्यक्ष के होते हुए 4 कार्यकारी अध्यक्षों की नियुक्ति का सिलसिला शुरू हो ही गया। जिसकी शुरुआत हार्दिक पटेल को कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर नियुक्त करने से हुई है। आगे आने वाले दिनों में 3 और कार्यकारी अध्यक्ष बनाये जायेंगे जिसमें 1 दलित, 1 ओबीसी (ठाकोर या फिर कोली) और 1 क्षत्रिय जाति से होगा।
खाम थ्योरी 1985 में पूर्व मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी ने ईजाद की थी। जिसमें K माने क्षत्रिय, H माने हरिजन, A माने आदिवासी और M माने मुसलिम मतों को मिलाकर सत्ता हासिल करने की रणनीति बनाई गई थी और यह काफी सफल भी रही थी। इस थ्योरी के चलते माधव सिंह सोलंकी ने गुजरात विधानसभा में कांग्रेस को 149 सीटों पर जीत दिलाई थी जो अब तक की सबसे बड़ी जीत मानी जाती है। जिसे 14 साल मुख्यमंत्री रहते हुए और तीन चुनाव जीतने के बाद भी नरेंद्र मोदी नहीं तोड़ पाए थे।
इस खाम थ्योरी का प्रयोग 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव से पहले भी किया गया था पर टिकट बंटवारे में हुई धांधली के चलते कांग्रेस इस थ्योरी के प्रयोग से मिलने वाले प्रैक्टिकल रिज़ल्ट से वंचित रह गई।
अब जबकि 2020 के अंत में या फिर कोरोना के कारण 2021 के प्रथम चरण में स्थानीय निकायों के चुनाव होंगे तब पूरी तैयारी से कांग्रेस खाम थ्योरी को फिर से लागू करने का प्रयास कर रही है। लेकिन हार्दिक पटेल को प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष बनाना कांग्रेस की ज़रूरत है या एक बड़ी भूल?
2017 के विधानसभा चुनाव में जब पाटीदार आंदोलन अपने चरम पर था तब टिकटों के आवंटन में हार्दिक पटेल की खूब चली थी। ललित वसोया, ललित कागथरा, किरीट पटेल जैसे कई कांग्रेसी विधायक हार्दिक पटेल की देन हैं। लेकिन हार्दिक के दखल से कांग्रेस को फायदे से ज्यादा नुकसान हुआ, ऐसा मानने वाले कांग्रेसी कार्यकर्ता और नेताओं की गुजरात कांग्रेस में कमी नहीं है।
अहमद पटेल के हाथों में कांग्रेस
हार्दिक, अल्पेश से पहले कांग्रेस की डोर पूरी तरह से अहमद पटेल के हाथ में ही रही है। शक्ति सिंह गोहिल, सिद्धार्थ पटेल, अर्जुन मोढवाडिया जैसे कांग्रेसी नेताओं के अपने-अपने खेमे भले ही रहे हों लेकिन वो गुटबाजी सिर्फ गुजरात तक सीमित थी। इन सब नेताओं के नेता एक ही थे और अभी भी हैं, वो हैं अहमद पटेल।
हार्दिक क्योंकि पाटीदार आंदोलन से बने हुए युवा नेता हैं इसलिए उन्होंने कभी ना तो अहमद पटेल को अपना गुरु माना और ना ही गुजरात कांग्रेस के किसी अन्य नेता को।
पाटीदार वोट नहीं दिला सके हार्दिक
हार्दिक का अगर पाटीदार समाज पर प्रभाव होता तो कांग्रेस को 26 में से कम से कम 6 से 7 सीटें ज़रूर मिलतीं। क्योंकि गुजरात में अहमदाबाद पूर्व के मतक्षेत्र में पाटीदार मतों का प्रतिशत 15 है। 17% पाटीदार मत अमरेली में हैं। 18% पाटीदार मत गांधीनगर सीट में हैं। 16% आणंद, 12% खेड़ा, 30% मेहसाणा, 21% सुरेन्द्रनगर, सूरत में 25% और वड़ोदरा में12% वोट पाटीदारों के हैं।
इसके अलावा जामनगर, जूनागढ़ जैसी लोकसभा सीटों पर भी पाटीदारों के वोट काफी निर्णायक साबित होते हैं लेकिन हार्दिक के स्टार प्रचारक रहते हुए एक भी लोकसभा सीट कांग्रेस नहीं जीत पाई।
गुजरात कांग्रेस के एक बड़े पाटीदार नेता ने ‘सत्य हिन्दी’ से कहा कि किस आधार पर कांग्रेस आलाकमान इस तरह के फ़ैसले ले रहा है, ये बात समझ से बाहर है। गुजरात में कांग्रेस पिछले 25 सालों से सत्ता से बाहर है लेकिन 2015 में कांग्रेस ने 31 जिला पंचायतों के चुनाव में अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन किया था। लेकिन फरवरी, 2020 में जिला और तालुक़ा पंचायतों की 33 सीटों पर उपचुनाव हुए और उसमें बीजेपी ने 29 पर कब्ज़ा जमा लिया। हार्दिक पटेल एक भी जिला पंचायत, तालुका पंचायत पर अपना प्रभाव नहीं दिखा पाये।
गुजरात कांग्रेस के एक बड़े ओबीसी नेता ने ‘सत्य हिन्दी’ से कहा कि 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे कुछ ऐसे थे कि पिछले 22 सालों में 60 सीटों के आंकड़े से कभी आगे नहीं जाने वाली कांग्रेस पार्टी 77 सीटों तक पहुंच गई थी। अगर टिकट आवंटन सही ढंग से हुआ होता तो हो सकता था कि कांग्रेस गुजरात में सरकार बना लेती।
टिकट बंटवारे में हार्दिक का दख़ल
2017 में पाटीदार आंदोलन, ओबीसी आंदोलन और दलित आंदोलन के चलते बीजेपी की रुपाणी सरकार बड़ी मुश्किल में थी और सत्ता वापसी करना लगभग नामुमकिन सा नज़र आ रहा था। कांग्रेस के लिए ये सत्ता प्राप्त करने का सबसे सुनहरा मौका था लेकिन कांग्रेस फिर से चूक गई। कैसे? वो ऐसे कि टिकटों के बंटवारे में सौराष्ट्र और सूरत में हार्दिक पटेल का काफी बड़ा दखल रहा।
सब जानते हैं कि सौराष्ट्र में पाटीदारों से भी ज्यादा वोट ओबीसी के कोली समाज के हैं। कम से कम 15 सीटें सौराष्ट्र में थीं जहां पर पाटीदार की जगह कोली समाज के उम्मीदवार को टिकट दिया जाता तो कांग्रेस के जीतने की संभावना बढ़ जाती। लेकिन हुआ क्या?
चुनाव करीब आये और तब हार्दिक के ही करीबी आंदोलनकारी दिनेश बांभणिया और दूसरे साथियों ने तत्कालीन कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष भरतसिंह सोलंकी के अहमदाबाद स्थित घर पर देर रात को धावा बोला। इसका नतीजा ये हुआ कि चार टिकटों को बदलना पड़ा।
गुजरात कांग्रेस का ओबीसी नेतृत्व हार्दिक के कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष बनने पर कोई राय नहीं देना चाहता लेकिन अगर आने वाले चुनावों में भी टिकटों के बंटवारे को लेकर हार्दिक की वजह से ओबीसी समाज अतिक्रमित महसूस करेगा तो वो चुप नहीं बैठेगा।
इन स्थितियों को देखते हुए ये लग रहा है कि हो सकता है कि हार्दिक को गुजरात कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया जाना कांग्रेस की ज़रूरत कम हो और भूल ज्यादा।
अपनी राय बतायें