रस्सी जल गई मगर ऐंठ नहीं गई। तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार जिस तरह से व्यवहार कर रही है, यह मुहावरा उसे सटीक ढंग से प्रतिबिंबित करता है। एकतरफा फ़ैसले लेने और सर्वज्ञ होने का अहंकार उनमें ज्यों का त्यों है। किसानों से संवाद का रास्ता दस दिन बाद भी उन्होंने नहीं खोला है।
कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर अचानक प्रकट होकर किसानों से घर लौट जाने के लिए ज़रूर कह रहे हैं, मगर उनके चेहरे पर भी सरकार की हठधर्मिता पढ़ी जा सकती है। इतने बड़े आंदोलन का सामना करने के बाद किसी का भी सत्ता का मद उतर जाना चाहिए, मगर ये परिवर्तन सरकार में दिख ही नहीं रहा है।
तोमर किसानों को ऐसे संबोधित कर रहे हैं मानो वे उनकी प्रजा हों। वे अपील नहीं कर रहे हैं बल्कि ये दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि किसान बेवज़ह ज़िद पर अड़े हुए हैं। अंदाज़-ए-बयाँ ये है कि अरे भाई जिल्ले इलाही ने जब इतनी दिलदारी दिखा दी है तो उन्हें आँखें दिखाने की ज़ुर्रत कैसे कर रहे हो।
ऐसा लगता है कि बीजेपी की मानसिकता में राजशाही काबिज़ है। सत्तर साल तक लोकतंत्र में रहते हुए भी उसने लोकशाही का कोई पाठ नहीं पढ़ा है। इसीलिए वह सौ साल पहले यूरोप से आयातित विचारों पर आधारित राजनीति के आधार पर देश को सामंत-युग में ले जाने की कोशिश कर रही है। मगर जनता कमोबेश लोकतंत्र की दिशा में क़दम बढ़ा चुकी है। वह बार-बार जता चुकी है कि उसे अहंकारी शासक बर्दाश्त नहीं हैं।
सीधी सी बात थी कि कानून वापसी के तुरंत बाद प्रधानमंत्री किसान नेताओं को बुलाते, उन्हें आश्वस्त करते और आगे का रोड मैप उनसे साझा करते। इससे आपसी विश्वास की बहाली होती। किसानों की शंकाएं दूर होतीं और अगर वे संतुष्ट हो जाते तो आंदोलन छोड़कर समाधान की प्रक्रिया में शामिल हो जाते।
लेकिन एक तो एकल नेतृत्व और निरंकुश व्यक्तित्व वाली इस सरकार में इस तरह की लोकतांत्रिक संस्कृति ही नहीं है। गवर्नेंस के इस गुजरात मॉडल में जब मंत्रिमंडलीय सहयोगियों से ही विचार-विमर्श न किया जाता हो तो किसानों को किस खेत की मूली समझा जाता होगा।
उन्हें तो अनपढ़, गँवार और अपना हित न समझने वाला सरकार पहले ही मान चुकी है। मोदी ने अपने टीवी प्रसारण में ये कहकर कि हम उन्हें समझा नहीं सके, इन्हीं भावों को व्यक्त किया था।
गवर्नेंस के ऐसे मॉडल में चुनौतियों को छल और बल से निपटने की रणनीति आज़माई जाती है। गोलमोल बातें की जाती हैं, आँखें दिखाई जाती हैं। इसीलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को वैधानिक दर्ज़ा देने के सवाल पर हम पिछले एक साल से बस यही सुनते आ रहे हैं कि एमएसपी है और रहेगी। उसे क़ानूनी रूप देने के बारे में कोई वादा सरकार नहीं कर रही है।
याद कीजिए प्रधानमंत्री मोदी सीएए-एनआरसी, चीन के साथ सीमा विवाद और आरक्षण के मुद्दों पर भी इसी तरह के अर्धसत्य बोलते रहे हैं। लेकिन सबको पता है कि उन्होंने झूठ बोला था। इसीलिए उनकी विश्वसनीयता पर गहरे सवाल हैं। अंधभक्तों की बात और है। वे तो उनके झूठ को भी प्रसाद की तरह ग्रहण करते हैं।
दूसरा यह भी लगता है कि मोदी ने घोषणा करते समय भी आंदोलन की ताक़त का ठीक-ठीक आकलन नहीं किया था। उन्हें लगा होगा कि उनकी आकाशवाणी सुनकर किसान कृतज्ञता के सागर में डूब जाएंगे और तुरंत तंबू-कनात उखाड़कर घर लौट जाएंगे या कम से कम आंदोलन तो विभाजित हो ही जाएगा।
मगर सचाई ये थी, और है कि किसान आंदोलन काले क़ानूनों की वापसी से कहीं आगे बढ़ चुका था। एमएसपी को वैधानिक दर्ज़ा और बिजली संशोधन विधेयक की वापसी के मुद्दे शुरू में ही शामिल हो चुके थे, मगर वे लड़ाई को इससे भी आगे ले जाने की तैयारी कर चुके थे। इसलिए वे डटे हुए हैं और डटे रहेंगे।
तीसरे, हैरत नहीं होनी चाहिए कि यदि मोदीजी इस भ्रम में रहे हों कि उनकी ऐसी लोकप्रियता और आकर्षण है कि जैसे ही वे टीवी पर आकर घोषणा करेंगे किसान तालियाँ बजाएंगे और जय-जयकार करते हुए आँदोलन वापस ले लेंगे। उन्हें गोदी मीडिया और संघ की प्रोपेगंडा मशीनरी पर भी नज़ा रहा होगा। आत्ममुग्ध शासक अक्सर ऐसे भ्रम पालते हैं और फिर बड़ा झटका खाते हैं।
सच तो ये है कि मोदी का तिलिस्म अब काफी हद तक टूट चुका है। वे उनमें से कोई वादा पूरा नहीं कर पाए, जिन्हें करके सत्ता में आए थे। बल्कि सच तो ये है कि वे बार-बार फेल हुए हैं और उन्होंने समस्याओं का अंबार लगा दिया है। इसलिए जब कभी वे टीवी पर आते हैं तो लोग खुश नहीं होते, भयभीत होते हैं और टीवी संबोधन के बाद उनकी छीछालेदर शुरू हो जाती है।
चौथी बात ये नज़र आती है और जैसा कि अधिकांश लोग मानते हैं कि मोदी का ये ‘मास्टरस्ट्रोक’ चुनाव जीतने के लिए था। लेकिन चूँकि किसान आँदोलन का सही आकलन उन्होंने नहीं किया था और चुनाव के ठीक पहले ये क़दम उठाने से उनकी सत्तालोलुपता भी उजागर हुई इसलिए इसका अपेक्षित प्रभाव पड़ता भी नहीं दिख रहा है। बल्कि अगर एमएसपी आदि का मसला न सुलझा तो वे न घर के रहेंगे न घाट के।
साफ़ है कि मोदीजी की चुनाव-तपस्या में कमी रह गई है। उन्हें और साधना करनी पड़ेगी।
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