कांग्रेस ने अपने ‘नारी न्याय’ में घोषणा की है कि वर्ष 2025 से सभी केन्द्रीय सेवाओं में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा प्रदान की जाएगी। 50 प्रतिशत महिलायें कार्यक्षेत्र का परिवेश बदलकर रख देंगी।
हिंकले, कैलिफोर्निया में अमेरिकी कंपनी ‘पेसिफिक गैस एंड इलेक्ट्रिक कंपनी’(PG&E) द्वारा की गई पर्यावरण कानूनों की अनदेखी से पूरे क्षेत्र में ‘क्रोमियम’ का संदूषण हो गया, सैकड़ों लोग बीमार हुए और उन्हे कैंसर जैसी बीमारियों ने लाचार बना दिया। इसी मुद्दे पर वर्ष 2000 में एक फिल्म आई। यह फिल्म अमेरिकन ‘पैरालीगल’ एरिन ब्रोकोविच के जीवन पर आधारित थी।
ब्रोकोविच ने अपनी रिसर्च और मेहनत से 1993 में PG&E के खिलाफ पर्यावरण कानूनों के उल्लंघन का एक जबरदस्त केस तैयार किया और कंपनी को घुटनों पर ला खड़ा किया।कंपनी को पीड़ितों की मदद के लिए 333 मिलियन डॉलर का जुर्माना देना पड़ा।
एक ऐसा ही पैरालीगल किरदार 2022 में आई नेटफ्लिक्स सीरीज ‘लिंकन लॉयर’ में लॉरना क्रेन का था, वो प्रसिद्ध वकील मिकी हॉलर के लिए काम करती थी। बिना लॉरना की मदद के मिकी अपेक्षित सफलता हासिल नहीं कर सकता था। एक पैरालीगल या ये कहें कि लीगल असिस्टेंट का काम है अपने वकील को केस से संबंधित दस्तावेजों को एकत्र करके, उसे ट्रायल के लिए तैयार करना।
कांग्रेस ने आगामी लोकसभा चुनावों के लिए अपना विजन दस्तावेज, अपना मैनिफेस्टो- ‘न्यायपत्र-2024’ में महिला सशक्तिकरण के उद्देश्य से ‘नारी न्याय’ को सामने रखा है। इसके आखिरी हिस्से में पंचायत स्तर पर पैरालीगल के रूप में एक ‘अधिकार मैत्री’ की नियुक्ति की बात कही गई है।
इस पैरालीगल का काम पंचायत स्तर पर महिलाओं को उनके अधिकारों के लिए शिक्षित करना और उनके कानूनी अधिकार दिलाने में उनकी मदद करना होगा। यह वादा बेहद क्रांतिकारी है।भारत में लगभग 2.50 लाख पंचायतें हैं।
यदि हर पंचायत में एक पैरालीगल की व्यवस्था हो गई तो महिला शोषण के तमाम रास्तों को एक झटके में बंद किया जा सकेगा। कोई एक, एरिन ब्रोकोविच या लॉरना क्रेन चाहिए ही। और निश्चित ही महिला अधिकार और सशक्तिकरण अपनी रफ्तार पकड़ लेगा। कानून के माध्यम से न्याय पाने की सबसे बड़ी अड़चन स्वयं कानून की अपनी पेचीदगियाँ हैं, और एक पैरालीगल, पंचायत स्तर पर एक अनोखी ‘लीगल क्रांति’ को जन्म दे सकता है।
नारी न्याय के अंतर्गत पैरालीगल इस दस्तावेज के कई आयामों में से सिर्फ एक आयाम है। अन्य आयामों पर चर्चा भी बहुत जरूरी है। भारत में इस बात को नकारना मुश्किल है कि महिलायें परिवार की धुरी हैं। यह धुरी परिवारों की बचत पर काम करती है। यदि बचत कम होती जाए तो धुरी कमजोर पड़ जाएगी और परिवार बिखरने लगेंगे।
देश की प्रतिष्ठित वित्तीय सेवा फर्म, मोतीलाल ओसवाल, के अनुसार, भारत के परिवार इस समय एक ऐतिहासिक वित्तीय बोझ और तनाव से गुजर रहे हैं। फर्म के अनुसार, इस समय भारतीय परिवारों पर कर्ज का आंकड़ा जीडीपी के 40 प्रतिशत को पार कर गया है। जबकि परिवारों में शुद्ध बचत का आंकड़ा जीडीपी के सापेक्ष मात्र 5 प्रतिशत ही रह गया है।
स्वतंत्रता के बाद यह अब तक की सबसे बुरी हालत है। अर्थशास्त्र का प्रारम्भिक विद्यार्थी भी इस बात को जानता है कि अर्थव्यवस्था का स्वास्थ्य परिवार की बचत से जाना जाता है। और इस समय भारत की अर्थव्यवस्था एक खराब दौर से गुजर रही है। ऐसे में जब काँग्रेस यह वादा करती है कि सरकार बनने पर वो भारत के प्रत्येक गरीब परिवार को ‘महालक्ष्मी योजना’ के तहत एक लाख रुपये प्रतिवर्ष प्रदान करेगी, तब यह राहत भर देता है।
एक आँकड़े के अनुसार, 2050 तक भारत में वृद्धजनों की संख्या वर्तमान की दुगनी होकर 20.8 प्रतिशत हो जाएगी। इस वृद्ध जनसंख्या में महिलायें पुरुषों की अपेक्षा कहीं ज्यादा संख्या में होंगी। इसलिए जब यह राशि घर की सबसे बुजुर्ग महिला के खाते में जाने की बात की जाती है तब एक ही वादे में- परिवार की बचत, महिला सशक्तिकरण और बुजुर्ग महिलाओं का संरक्षण एक साथ सुनिश्चित हो जाता है।
क्या लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ‘न्याय’ को भी टाला जा सकता है? टालना तो नहीं चाहिए। जब पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों को मजबूत करने की बात आई तो 1992 में तत्कालीन काँग्रेस सरकार ने संविधान में 73वां और 74वां संशोधन करके तत्काल इसे लागू कर दिया और तमाम सुधारों के साथ महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण की सुविधा प्रदान कर दी गई।
सही समय पर लागू होने के परिणाम भी आने लगे। हालत यह है कि आज भारत में स्थानीय स्तर पर लगभग 13 लाख निर्वाचित महिला प्रतिनिधि हैं। विद्वान भी एक मत होने लगे कि “महिला सशक्तिकरण के लिए इस कानून के कई महत्वपूर्ण निहितार्थ हैं और इसने एक मूक क्रांति पैदा की है”।
लेकिन जब महिलाओं को न्याय देने की बारी राष्ट्रीय स्तर पर आई तो काँग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद विपक्ष और कई क्षेत्रीय दलों ने कानून को पारित करवाने में साथ नहीं दिया। लेकिन वर्ष 2023 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए ने राज्य विधान सभाओं और लोकसभा में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए संविधान का 106वां संशोधन किया तो उम्मीद जागी।
लेकिन जब मोदी सरकार ने इस कानून को 2029 के बाद कभी लागू करने का फैसला किया तब पूरे भारत की महिलाओं को ठगा हुआ महसूस हुआ। जब देश की संसद ने, देशभर के प्रतिनिधियों ने महिलाओं को न्याय देने के लिए कानून पर मुहर लगा दी थी तब नरेंद्र मोदी सरकार को कोई हक नहीं बनता था कि वो इस अन्याय को और दस वर्षों के लिए या तिथि के अभाव में यह कहें कि अनंत समय के लिए और जारी रखें! महिलाओं को धोखा दिया जा चुका है।
भारत की संवैधानिक स्मृति में ऐसा कोई वाकया नहीं है जब किसी संवैधानिक संशोधन को अनुपालन के लिए अनंत काल के लिए टाल दिया गया हो। संसद के निचले सदन में केवल लगभग 14 प्रतिशत सदस्य महिलाएँ हैं, जोकि वैश्विक औसत 26 प्रतिशत से काफी कम है, अमेरिका और यूरोप से तो भारत कहीं तुलना में ही नहीं है।
महिलाओं के संसद में प्रतिनिधित्व के लिहाज से भारत 185 देशों में से 141वें स्थान पर है। भारत इस मामले में पड़ोसियों-पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश से भी पीछे है। इसीलिए इस संशोधन के तत्काल अनुपालन की आवश्यकता है।
इसी संदर्भ में कांग्रेस के नारी न्याय का वादा बहुत अहम है। कांग्रेस ने कहा है कि वो मोदी सरकार द्वारा लाए गए इन कुटिल प्रावधानों को हटाकर आरक्षण फौरन लागू करेगी। कांग्रेस का वादा है कि महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण उन राज्य विधानसभाओं में भी लागू हो जाएगा जहां 2025 में विधानसभा चुनाव होने हैं, 2029 तो बहुत दूर की बात है।
मुझे नहीं पता कि भारत के प्रधानमंत्री के मन में क्या है? लेकिन जिस तरह से फौज में महिलाओं के स्थाई कमीशन को रोका जाता रहा है, बार बार बाधा डाली जाती रही है और सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद ही महिलाओं को स्थाई कमीशन दिया गया और अब महिला आरक्षण को भी टाल देना, उससे यह छवि निर्मित होती है कि वर्तमान सरकार महिलाओं को आगे आने देने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है।
केंद्र सरकार के अंतर्गत लगभग 31 लाख कर्मचारी हैं। इसमें से महिलाओं की संख्या मात्र 3 लाख 37 हजार ही है। इस तरह से देखा जाए तो महिलाओं की भागीदारी केंद्र की नौकरियों में मात्र 11प्रतिशत ही है। पुलिस की नौकरी में मात्र 12 प्रतिशत महिलायें हैं।
1951 से लेकर 2020 चुने गए सभी आईएएस अधिकारियों में से मात्र 13 प्रतिशत ही महिलायें हैं। महिलाओं की संख्या केन्द्रीय नौकरियों में बहुत कम है। इसलिए इस संख्या को राज्य व केंद्र दोनो स्तर पर बढ़ना ही चाहिए। एक नौकरीपेशा महिला किसी पुरुष से कहीं बेहतर तरीके से घर संभाल सकती है, समाज में योगदान दे सकती है।
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इससे भारतीय पुरुषों की सोच भी बदलेगी
कांग्रेस ने इस बात को समझते हुए अपने ‘नारी न्याय’ में घोषणा की है कि वर्ष 2025 से सभी केन्द्रीय सेवाओं में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा प्रदान की जाएगी। 50 प्रतिशत महिलायें कार्यक्षेत्र का परिवेश बदलकर रख देंगी। कार्यस्थल पर होने वाले यौन शोषण पर और प्रभावी रोक लग सकेगी। इसके साथ ऐसा कानून भारतीय पुरुषों के सोचने के तरीके को भी बदलने को विवश करेगा।भारतीय पुरुष बाहर निकलकर नौकरी करने वाली महिलाओं और पुरुषों के बीच काम करने वाली महिलाओं के विषय में क्या सोचता है उसे प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य तिलक और पंडिता रमाबाई के बीच के संबंधों से समझना चाहिए।
डॉ सुजाता ने अपनी पुस्तक ‘पंडिता रमाबाई’ में तिलक का एक कथन उद्धृत किया है। तिलक ने ‘केसरी’ पत्र में रमाबाई के बारे में लिखा कि “एक धोखेबाज महिला, जो ब्राह्मण पैदा हुई लेकिन अपने धर्म का त्याग करने से भी पहले शूद्र से विवाह कर लिया, अपने मालिक, अपने पति के मरते ही जिसने बेटी के साथ ईसाई धर्म अपना लिया, जो यहाँ सिर्फ डॉ भंडारकर और जस्टिस रानाडे जैसे पुरुषों को रिझाने आई है, उस महिला के जाल में अपने बंधु ‘सुधारक’ को खुद को सहर्ष फँसने देने का दृश्य देखकर रोयें या क्या करें, समझ नहीं आता। अपनी रक्षा में पंडिता रमाबाई का चिल्लाना पागल कुत्ते के रोने जैसा है।
भले ही इस घटना को लगभग 140 साल हो गए हों लेकिन यह सोच आज भी विद्यमान है। और इसमें बदलाव सिर्फ तब दिखेगा जब समाज में बड़ी संख्या में महिलायें घर से बाहर पुरुषों के बीच काम करती दिखेंगी। संभवतया यही नारी न्याय का उद्देश्य है।अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन लगातार समान काम पर समान वेतन की वकालत करता रहा है।
दक्षिणी गोलार्ध में स्थित न्यूजीलैंड तो 2020 में समान वेतन पर कानून लेकर आ गया। यूएन वीमेन, के अनुसार इस समय दुनिया भर में लैंगिक वेतन को लेकर असमानता की खाई 20 प्रतिशत से भी अधिक पहुँच चुकी है। यह एक वैश्विक चिंता है कि 2030 तक दुनिया भर में लगभग 34 करोड़ और महिलायें भीषण गरीबी की गिरफ्त में आ सकती हैं।
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में ‘समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976’ लाया गया जिसका उद्देश्य अनुच्छेद-39(डी), नीति निदेशक सिद्धांत, का अनुपालन करना था। लेकिन यह अपने उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सका है। बॉलीवुड समेत तमाम ऐसे प्राइवेट रोजगार प्रदाता हैं जो समान काम के लिए समान वेतन नहीँ प्रदान करते। इसीलिए नारी न्याय पत्र में कांग्रेस ने वादा किया है कि यह सुनिश्चित हो जाएगा कि ‘समान काम, समान वेतन’ का सिद्धांत पूरी तरह से लागू हो।
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जलवायु परिवर्तन’ भी एक यथार्थ है
जिस तरफ ‘गेम ऑफ थ्रोन्स’ में ‘व्हाइट वाकर’ एक यथार्थ था, जिसे सातों किंगडम के राजा नकारते रहे। उसी तरह ‘जलवायु परिवर्तन’ भी एक यथार्थ है। भले ही यह भारत जैसे 140 करोड़ की आबादी में दूर दूर तक चुनावी मुद्दा नहीं है लेकिन भारत दुनिया के उन देशों में से एक है जो जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले हैं।संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम(यूएनडीपी) की मानें तो जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से महिलाओं और बच्चों के मरने की संभावना पुरुषों से 14 गुना अधिक है। ऐसे में महिलाओं तक ज्यादा संख्या में रोजगार, धन और संसाधनों की पहुँच बहुत ज्यादा जरूरी है। इसलिए काँग्रेस ने अपने घोषणापत्र के माध्यम से महिला सशक्तिकरण का ‘टेक्स्ट’ जारी कर दिया है।
काँग्रेस अपमानजनक कानूनों और प्रावधानों को हटाएगी। आशा, आंगनवाड़ी, मिड-डे मील रसोइया आदि, फ्रन्टलाइन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के वेतन में योगदान को दोगुना करने का वादा कर रही है। साथ ही विवाह, उत्तराधिकार, विरासत और गोद-लेने से संबंधित कानूनों की समीक्षा के बाद उन्हे जेन्डर न्यूट्रल बनाने का वादा कर रही है। काँग्रेस का घोषणापत्र इस बात की स्वीकृति है कि महिला सशक्तिकरण, राष्ट्रीय महत्व का प्रश्न है साथ ही भारत के भविष्य की आवश्यकता है और सबसे बढ़कर यह भारत की आधी आबादी के साथ सम्पूर्ण न्याय का विचार है।
महिला सशक्तिकरण और महिला सुरक्षा को कानून और संविधान के माध्यम से ही पुष्ट करना होगा। इसे किसी वादे/भाषण या भविष्य के आश्वासन के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है।जब कबीर जैसे विद्वान, बुद्धिजीवी को नारी में बीस ‘फन’ दिख रहे थे तब आज किसी पितृसत्ता के सहारे नारी न्याय संभव नहीं हो सकेगा। सिर्फ कानून की मुहर और संविधान का संरक्षण ही एक मात्र उपाय है और कांग्रेस का ‘नारी न्याय’ पत्र इस भरोसे पर खरा उतरता दिख रहा है।
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