केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी क्या दिल्ली में बीजेपी का चेहरा हो सकती हैं। यह सवाल बीते कुछ दिनों में एमसीडी के चुनाव को लेकर आम आदमी पार्टी और बीजेपी की जंग के बीच अचानक से उठ खड़ा हुआ है। यह सवाल इसलिए उठ खड़ा हुआ है क्योंकि आम आदमी पार्टी के द्वारा एमसीडी चुनाव के मामले में केंद्र सरकार पर लगाए गए आरोपों का जवाब देने के लिए स्मृति ईरानी आगे आ रही हैं।
स्मृति ने कुछ ही सालों में बीजेपी और केंद्र की राजनीति में अपनी एक अलग पहचान बना ली है। स्मृति को बीजेपी दिल्ली में चेहरा क्यों बना सकती है इसके पीछे बहुत सारे ठोस कारण हैं।
पहली वजह यह है कि देश के तमाम राज्यों में फतह हासिल कर रही बीजेपी दिल्ली में करारी हार का घूंट पीने को मजबूर है। साल 2014 में मोदी-शाह युग के उदय के बाद से बीजेपी ने ऐसे राज्यों में भी सरकार बनाई है जहां उसकी सरकार बनने की कल्पना ही की जा सकती थी। ऐसे राज्यों में त्रिपुरा का नाम प्रमुख है।
ऐसा नहीं है कि दिल्ली में बीजेपी मजबूत नहीं है। दिल्ली के तीनों नगर निगमों में उसकी सत्ता है और 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में वह यहां की सभी 7 सीटों पर जीत हासिल कर चुकी है लेकिन दिल्ली की विधानसभा में उसे बढ़त कब मिलेगी, दिल्ली में उसकी सरकार कब बनेगी, यह सवाल बीजेपी के साथ ही संघ परिवार को भी परेशान करता है।
साल 2015 और 2020 के विधानसभा चुनाव में पूरा जोर लगाने के बाद भी बीजेपी 3 और 8 सीटों के आंकड़े तक पहुंच सकी। लेकिन शायद अब पार्टी को लगने लगा है कि यहां पर किसी बड़े चेहरे की जरूरत है जो उसके लिए चुनौती बन कर उभर रही आम आदमी पार्टी को दिल्ली तक ही सीमित कर सके।
1998 से बाहर है पार्टी
निश्चित रूप से दिल्ली की प्रचंड जीत के बाद पंजाब में भी आम आदमी पार्टी ने जैसी प्रचंड जीत हासिल की है वह बीजेपी के लिए थोड़ी चिंता का विषय जरूर है। और ऐसे में जब यहां पार्टी 1998 के बाद से सत्ता से बाहर है तो पार्टी के कार्यकर्ता भी इस बात को लेकर निराश दिखते हैं कि दिल्ली की विधानसभा में उनकी सरकार बनने का ख्वाब कहीं ख्वाब ही ना रह जाए।
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पहले शीला अब केजरीवाल
दूसरी वजह यह है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी से लोहा लेने के लिए बीजेपी को एक लोकप्रिय स्थानीय चेहरे की सख्त जरूरत है। बीते सालों में बीजेपी ने वरिष्ठ नेता विजय कुमार मल्होत्रा से लेकर हर्षवर्धन, विजय गोयल, पूर्वांचल से आने वाले मनोज तिवारी तक को अपना चेहरा बनाया है लेकिन पार्टी यहां की सत्ता में वापसी नहीं कर सकी। पहले जहां शीला दीक्षित उसकी राह का रोड़ा बनी रहीं वहीं अब अरविंद केजरीवाल उसकी मुसीबत बन गए हैं।
ऐसे में लगता है कि काफी विचार मंथन के बाद बीजेपी का नेतृत्व इस तथ्य पर पहुंचा है कि यहां स्मृति ईरानी जैसा बड़ा चेहरा ही उसकी जीत के सूखे को खत्म कर सकता है।
पंजाबी समुदाय से होना
तीसरी वजह स्मृति का स्थानीय होना है। स्मृति ईरानी (स्मृति मल्होत्रा) दिल्ली में ही पली-बढ़ी हैं और वह जिस पंजाबी समुदाय से आती हैं उसका दिल्ली की सियासत में अच्छा दखल है। स्मृति ईरानी साल 2004 में चांदनी चौक लोकसभा सीट से चुनाव लड़ चुकी हैं। हालांकि तब उन्हें हार मिली थी लेकिन वक्त बदला और कुछ ही साल में उन्होंने बीजेपी और केंद्र की राजनीति में अपनी एक अलग पहचान बना ली है।
स्मृति ईरानी के महिला होने का भी फायदा बीजेपी दिल्ली में उठा सकती है।
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केजरीवाल का लक्ष्य
दिल्ली में एमसीडी का चुनाव केवल दिल्ली की सियासत पर ही नहीं उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, झारखंड, पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों पर भी काफी असर डालता है। क्योंकि इन सभी राज्यों के मतदाता बड़ी संख्या में दिल्ली में रहते हैं। इसलिए एमसीडी का चुनाव बहुत अहम है और अरविंद केजरीवाल और उनकी सेना ने इस बार किसी भी सूरत में एमसीडी को जीतने का लक्ष्य बना लिया है।
2020 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद ही केजरीवाल इस काम में जुट गए थे। कोरोना के कारण यह काम थोड़ा सा रुका लेकिन पंजाब में प्रचंड जीत के बाद रफ्तार पकड़ गया है। बीजेपी जानती है कि इस बार चुनौती बेहद जोरदार है और आम आदमी पार्टी उससे नगर निगमों की सत्ता छीन सकती है।
ऐसे में किसी बड़े चुनावी चेहरे को केजरीवाल के सामने करना होगा और इसके लिए दिल्ली की राजनीति को बेहतर ढंग से समझने वालीं स्मृति ईरानी से अच्छा दूसरा चेहरा और कोई नहीं हो सकता।
दिल्ली में विधानसभा चुनाव होने में अभी 3 साल का वक्त है। दिल्ली बीजेपी की कमान अगर अभी से स्मृति ईरानी को मिल जाती है तो अगले 3 साल में उनके पास पार्टी को विधानसभा में मजबूत करने के लिए काफी वक्त रहेगा। स्मृति को कमान मिलने पर यह तय है कि एक जोरदार सियासी जंग राष्ट्रीय राजधानी की राजनीति में देखने को मिलेगी।
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