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अब यह सिर्फ बाज़ार का फंडा नहीं रहा कि आकर्षक पैकेजिंग करो और फिर एग्रेसिव मार्केटिंग के साथ अपना माल ग्राहकों तक पहुंचा दो। अब ये राजनीति के भी मुख्य आधार हो गए हैं। ब्रांड मोदी और ब्रांड केजरीवाल दोनों इसके बड़े उदाहरण हैं। दूसरी तरफ पैकेजिंग और मार्केटिंग की सही रणनीति न बन पाने के कारण राहुल गांधी का जो हाल हो रहा है, वह भी सभी के सामने है।
इसी पैकेजिंग और मार्केटिंग की नीति पर चलते हुए बीजेपी ने शाहीन बाग़ का खेल खेला है।
बीजेपी ने शहजाद अली और उनके साथ आए करीब 200 लोगों को पार्टी में शामिल करने के लिए बड़ा शो आयोजित किया। बताया गया कि शहजाद अली एक मुसलिम संगठन राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल के पूर्व सचिव हैं और शाहीन बाग़ के धरने में उनकी अहम भूमिका थी। इसके साथ भी जिन और लोगों को सामने लाया गया, उन्हें भी शाहीन बाग़ आन्दोलन में जुटे लोगों में से ही बताया गया।
बीजेपी इससे दो बड़े संदेश देना चाहती थी। पहला तो यह कि शाहीन बाग़ का आन्दोलन अपने आप ही टूट गया है और आन्दोलन करने वालों में ही फूट पड़ गई है। चूंकि यह आन्दोलन नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय सिटिजन रजिस्टर (एनआरसी) के ख़िलाफ़ था और इस आन्दोलन को लोकतंत्र और संविधान बचाने की एक बड़ी मुहिम के रूप में देखा गया था।
इसलिए, आन्दोलन में फूट पड़ने का यह मतलब भी लगाया जा सकता है कि देश में अब ज्यादातर लोगों को सीएए और एनआरसी से कोई विरोध नहीं है क्योंकि विरोध करने वाले ही बीजेपी में शामिल हो गए हैं।
बीजेपी की दूसरी मंशा यह जताने की रही कि भारत के मुसलमान भी अब बीजेपी के साथ आ गए हैं। यहां तक कि जो लोग कट्टर दिखाई दे रहे थे और बीजेपी को शाहीन बाग़ वाले आन्दोलन के जरिए नकार रहे थे, वे भी बीजेपी में शामिल हो रहे हैं।
बीजेपी के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता का कहना है कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मुसलमानों को सिर्फ वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं लेकिन अब मुसलिम समुदाय का भ्रम टूट गया है और इसीलिए वे बीजेपी में आ रहे हैं।
बीजेपी की इस एग्रेसिव मार्केटिंग को भला आम आदमी पार्टी कैसे बर्दाश्त कर सकती थी। इसलिए वह एक दूसरी थ्योरी लेकर सामने आ गई कि अगर शाहीन बाग़ में आन्दोलन करने वाले बीजेपी में शामिल हो रहे हैं तो फिर इसका मतलब यह है कि शाहीन बाग़ के सारे शो की स्क्रिप्ट ही बीजेपी ने लिखी थी।
आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता सौरभ भारद्वाज ने लगातार दो दिन तक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके यह कहकर बीजेपी को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की कि दिल्ली का चुनाव जीतने के लिए बीजेपी ने ही शाहीन बाग़ में आन्दोलन शुरू कराया था।
भारद्वाज के मुताबिक़, ‘बीजेपी ने ही वहां भारत विरोधी नारे लगाए थे और ऐसी रणनीति बनाई थी कि दिल्ली का चुनाव पूरी तरह से हिंदू-मुसलिम टकराव में फंस जाए। बीजेपी के नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान मुसलिम विरोधी बयान भी दिए। यह सब एक रणनीति के तहत हुआ कि प्रवेश वर्मा, अनुराग ठाकुर, कपिल मिश्रा और बाद में खुद अमित शाह शाहीन बाग़ को एक मुद्दे का रूप देकर पूरा चुनाव इसी के आसपास केंद्रित कर दें।’
सौरभ भारद्वाज ने यह दावा भी किया कि यमुनापार की कुछ सीटें बीजेपी इसी मुद्दे के कारण ही जीत पाई और जब बीजेपी दिल्ली का चुनाव हार गई तो उसने यमुनापार में दंगे करा दिए क्योंकि तब तक हिंदू-मुसलिम तनाव इतना बढ़ चुका था कि बीजेपी के लिए यह काम बड़ा आसान हो गया।
शाहीन बाग़ के धरने के पीछे बीजेपी ही थी, इस तर्क को आम आदमी पार्टी यह कहकर भी पुख्ता करती है कि जो दिल्ली पुलिस किसी धरने को तीन घंटे तक नहीं रहने देती, उसने शाहीन बाग़ की महिलाओं को 101 दिन तक क्यों नहीं हटाया।
आम आदमी पार्टी की यह थ्योरी कि शाहीन बाग़ का धरना बीजेपी ने स्पॉन्सर किया था, किसी के गले नहीं उतर सकता। वह इसलिए क्योंकि शाहीन बाग़ में धरना किसी संगठन या फिर किसी एक विचारधारा के लोगों ने शुरू नहीं किया था। करीब 100 महिलाओं ने इकट्ठे होकर इस आन्दोलन की शुरुआत की थी जो धीरे-धीरे कारवां बनता गया। हो सकता है कि यह आन्दोलन अब भी चल रहा होता, अगर कोरोना ने इसे कुंद न किया होता।
इस आन्दोलन को समर्थन देने के लिए जो लोग आए, उनमें से कोई भी बीजेपी का समर्थक नहीं कहा जा सकता और न ही कभी कल्पना की जा सकती है कि बीजेपी के इसके स्पॉन्सर होने पर वे लोग वहां आकर खड़े होते। दरअसल, उस वक्त यह भावना जोर पकड़ रही थी कि संविधान और लोकतंत्र की रक्षा करने के लिए यह आन्दोलन खड़ा किया जा रहा है। उसमें किसी के नेता बनने या फिर आन्दोलन का अगुवा बनने की भावना नहीं थी।
अन्ना आन्दोलन के समय भी लोग इसी जज्बे के साथ इकट्ठे हुए थे और आम आदमी पार्टी के नेता कैसे भूल सकते हैं कि वे भी आन्दोलन की पैदाइश हैं। यह बात और है कि बाद में उन्होंने दूसरा रास्ता चुन लिया। अगर आप रिकॉर्ड देखें तो जिन लोगों ने अन्ना आन्दोलन के लिए रामलीला मैदान बुक कराया था, वे आरएसएस के लोग थे। यह भी कहा जाता है कि उस आन्दोलन के कारण ही देश भर में कांग्रेस के ख़िलाफ़ माहौल बना और सच तो यह है कि उस आन्दोलन के कारण ही आज नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं।
अब सवाल यह उठता है कि क्या अन्ना आन्दोलन के पीछे भी बीजेपी ही थी क्योंकि इसका सारा फायदा तो बीजेपी को ही पहुंचा था।
जहां तक दिल्ली विधानसभा चुनाव में साम्प्रदायिकता को मुद्दा बनाने का सवाल है तो कुछ भी पर्दे के पीछे नहीं था। इस खुले खेल को सब पहले ही समझ गए थे। यही वजह है कि चुनाव आयोग ने प्रवेश वर्मा, कपिल मिश्रा और अनुराग ठाकुर के चुनाव प्रचार करने पर पाबंदी भी लगाई थी। इसलिए, सौरभ भारद्वाज कोई दूर की कौड़ी ढूंढकर नहीं लाए।
आम आदमी पार्टी बीजेपी पर प्रहार करते हुए यह भूल गई कि वह जाने-अनजाने उन लोगों पर शक कर रही है जो उसके खुद के वोटर हैं। लोकसभा के चुनावों में दिल्ली के मुसलिम वोटरों ने कांग्रेस को वोट दिया था और यही वजह है कि दिल्ली की सात में से पांच सीटों पर कांग्रेस नंबर दो पर आ गई थी। तब सीएम अरविंद केजरीवाल ने खुद माना था कि मुसलिम वोटर का मूड वे भांप नहीं पाए।
लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद केजरीवाल ने यह भी कहा था कि मुसलिम वोटरों ने उनसे वादा किया है कि दिल्ली के विधानसभा चुनाव में तो वे आम आदमी पार्टी को ही वोट देंगे और यह वादा उन्होंने निभाया भी।
शाहीन बाग़ इलाके में भी आम आदमी पार्टी के पक्ष में भारी वोटिंग हुई। जो लोग शाहीन बाग़ आन्दोलन में शामिल थे, वे खुद आम आदमी पार्टी के ही वोटर निकले। अगर आम आदमी पार्टी यह कहती है कि इस आन्दोलन की स्क्रिप्ट बीजेपी ने लिखी थी और आन्दोलन को बीजेपी ने ही मैनेज किया था तो फिर इसका मतलब यह हुआ कि आम आदमी पार्टी अपने ही वोटरों पर शक कर रही है और उन्हें बीजेपी का एजेंट बता रही है। इसलिए, एग्रेसिव मार्केटिंग के चक्कर में आम आदमी पार्टी के लिए यह मुद्दा बैकफायर करता नजर आ रहा है।
होना तो यह चाहिए था कि आम आदमी पार्टी इस पर होम वर्क करती और तब यह सच्चाई सामने आती कि जिस शहजाद अली को शाहीन बाग़ आन्दोलन का मुख्य सूत्रधार बनाकर पेश किया गया है, वह इस आन्दोलन में कहीं था ही नहीं। जिस संगठन का उसे पूर्व सचिव बताया गया है, उसका दिल्ली में कोई आधार ही नहीं है। यह यूपी का संगठन है और उसे बीजेपी का समर्थक ही माना जाता है।
आन्दोलन से जुड़ी महिलाएं कहती हैं कि उन्होंने शहजाद अली को कभी मंच के आसपास भी नहीं देखा। दरअसल आन्दोलन के दौरान बहुत सारे स्वयंभू वालंटियर बन गए थे और शहजाद अली भी उनमें से एक था। इसके अलावा बाकी जितने भी लोगों को बीजेपी ने शाहीन बाग़ से जुड़ा बताया, उनमें से एक भी इससे जुड़ा हुआ नहीं था।
आम आदमी पार्टी अगर तहकीकात करती तो फिर वह अपनी एग्रेसिव मार्केटिंग से बीजेपी को बेनकाब कर सकती थी लेकिन ऐसा करने के बजाय उसने जल्दबाजी में बीजेपी की इस कहानी पर ही मुहर लगा दी कि अब जो लोग बीजेपी में शामिल हुए हैं, वे सभी शाहीन बाग़ आन्दोलन से जुड़े हुए थे और इस तरह वह बीजेपी के बुने हुए जाल में फंस गई।
अब देखना यह है कि यह मामला कितना आगे जाता है। इसलिए कि शाहीन बाग़ का आन्दोलन तो खत्म हो गया है और बीजेपी को भी उससे कुछ हासिल होने वाला नहीं है लेकिन आम आदमी पार्टी ने गलत पैकेजिंग और गलत मार्केटिंग से अपना जो नुकसान कर लिया है, उसकी भरपाई वह कैसे करती है।
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