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पूर्णिमा दास
बीजेपी - जमशेदपुर पूर्व
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दिल्ली के 2028 तक क्योटो को पीछे छोड़कर दुनिया की सबसे ज़्यादा आबादी वाला शहर बनने की संभावना है और इस रिकॉर्ड पर भले ही आप गर्व करने लगें, लेकिन यह दिल्ली के लिए ख़तरनाक संकेत है। ख़तरनाक इसलिए कि मौजूदा आबादी को ही दिल्ली सह नहीं पा रही है। पीने के पानी की भारी किल्लत है। स्वास्थ्य सेवाएँ बदहाल हैं। हॉस्पिटलों में भारी भीड़ है। यातायात व्यवस्था चरमराई है। बारिश का पानी जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर देता है। और कचरे का कुप्रबंधन जैसी समस्याएँ ख़तरनाक स्तर तक हैं। ऐसे में जब दिल्ली में जनसंख्या काफ़ी बढ़ चुकी होगी, क्या दिल्ली बच पाएगी?
प्रधानमंत्री मोदी ने भी पिछले हफ़्ते लाल क़िले से अपने भाषण में जनसंख्या विस्फोट, जल संकट जैसी ऐसी ही समस्याओं और ख़तरे की ओर इशारा किया है। इस मामले में दिल्ली की स्थिति ज़्यादा चिंताजनक है। संयुक्त राष्ट्र की मई 2018 की एक रिपोर्ट कहती है कि 2028 तक दिल्ली दुनिया की सबसे ज़्यादा आबादी वाला शहर बन जाएगी। रिपोर्ट के अनुसार तब दिल्ली में 2.9 करोड़ लोग रहे थे और 2028 तक इसके 3.72 करोड़ हो जाने की संभावना है। फ़िलहाल टोक्यो में सबसे ज़्यादा 3.7 करोड़ आबादी रहती है। टोक्यो में 2020 से आबादी कम होने लगेगी और 2028 तक घटकर इसके 3.68 करोड़ तक पहुँच जाने की संभावना है।
ऐसी स्थिति में जब दिल्ली की आबादी 2.9 करोड़ से बढ़कर 3.72 करोड़ हो जाएगी तब क्या दिल्ली को संभाल पाना आसान होगा। फ़िलहाल ऐसी परिस्थितियाँ हैं जैसे पूरी व्यवस्था कभी भी ध्वस्त हो सकती है।
दिल्ली में इतनी ज़्यादा आबादी होने से लोगों को रहने के लिए घर नहीं मिला पाते हैं और बड़ी संख्या में लोगों को झोपड़पट्टी और सड़क किनारे रहने को मजबूर होना पड़ता है। कई ऐसी कॉलोनियाँ हैं जहाँ लोग छोटे-छोटे कमरे में कई-कई लोग एक साथ रहते हैं। कई रिपोर्टें ऐसी आई हैं कि राष्ट्रीय राजधानी में 20 लाख आवासों की कमी है। रिसर्च फ़र्म 'डेमोग्राफ़िया' के अनुसार, दिल्ली में 2005 से केंद्र की कई योजनाओं के तहत लगभग 43,000 घर बनाए गए जबकि हर साल लगभग 700,000 लोग यहाँ आते हैं।
‘इंडिया टुडे’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, केंद्र द्वारा पिछले साल जारी एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि देश के 111 प्रमुख शहरों में दिल्ली स्वास्थ्य के मामले में सबसे निचले पायदान पर रहा। दिल्ली में शीर्ष सरकारी हॉस्पिटलों में सैकड़ों रोगियों को छह महीने और दो साल के बाद का नंबर आता है। यह इसलिए है कि रोगियों की संख्या बढ़ी है और डॉक्टरों, बिस्तरों और उपकरणों की भारी कमी है।
आबादी बढ़ने का असर यातायात व्यवस्था पर भी पड़ा है। आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के अनुसार, दिल्ली में वाहनों की संख्या मार्च 2018 तक बढ़कर 1.09 करोड़ हो गई, जो पिछले वर्ष की तुलना में 5.81 प्रतिशत अधिक है। वाहनों की संख्या बढ़ने से यातायात जाम की समस्या तो आम बात हो गई है। सार्जनिक परिवहन व्यवस्था भी काफ़ी मज़बूत नहीं है। दिल्ली को 11,000 बसों की ज़रूरत है। मेट्रो से आसानी हुई है, लेकिन इसकी भी सीमित पहुँच है और एक बड़ी आबादी इसके किराए को वहन नहीं कर सकती है।
ज़्यादा आबादी शहर की पुलिस क़ानून-व्यवस्था को प्रभावित कर रही है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली में 95,564 पुलिस कर्मियों की स्वीकृत संख्या है, जिनमें से 10,481 पद खाली हैं।
कचरे का प्रबंधन कितना ख़राब है इसकी मिसाल गाज़ीपुर लैंडफ़िल है। कचरे का पहाड़ इतना ऊँचा होते जा रहा है कि अगले साल तक इसके ताजमहल से भी ज़्यादा ऊँचा हो जाने की संभावना है। फ़िलहाल यहा 65 मीटर ऊँचा है। कचरे की डंपिंग पर प्रतिबंध के बावजूद पहाड़ की ऊँचाई हर साल क़रीब 10 मीटर बढ़ जाती है।
गाज़ीपुर के अलावा भलस्वा और ओखला में कचरे की डंपिंग की जाती है, लेकिन यह नाकाफी है। कचरे के निस्तारण की पूरी प्रक्रिया में बदलाव की ज़रूरत है। वेस्ट-टू-एनर्जी प्लांट लगाने के लिए ज़मीन की माँग भी की जाती रही है, लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है।
अब सवाल उठता है कि जहाँ टोक्यो में आबादी कम होने के आसार हैं वहीं दिल्ली में आबादी क्यों इतनी ज़्यादा बढ़ने की संभावना है? क्या दिल्ली में जो यह आबादी बढ़ेगी वह दिल्ली की स्वाभाविक आबादी होगी? दरअसल, यह इस कारण नहीं होगा कि दिल्ली की यह स्वाभाविक जनसंख्या होगी, बल्कि इसलिए होगा कि बाहर से आकर बसने वाले लोगों की संख्या काफ़ी ज़्यादा होगी। 2001 में शहर की स्वाभाविक जनसंख्या वृद्धि 60 फ़ीसदी बढ़ी थी, जबकि बाहर से आकर बसे लोगों के कारण जनसंख्या वृद्धि 40 फ़ीसदी बढ़ी थी। दिल्ली के मास्टर प्लान-2021 की रिपोर्ट के अनुसार, 2011 में अतिरिक्त जनसंख्या में बाहरी लोगों की संख्या क़रीब 45 फ़ीसदी है और 2021 तक इसके 50 फ़ीसदी होने की संभावना है।
ऐसी रिपोर्टें आती रही हैं कि दिल्ली में आने वाले अधिकतर लोग बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और झारखंड के होते हैं। इन राज्यों में उद्योग-धंधे की हालत ख़राब है, रोज़गार के अवसर बहुत कम हैं, स्वास्थ्य सुविधाएँ बदतर हैं और शिक्षा की स्थिति भी काफ़ी ख़राब है। इन राज्यों में जनसंख्या भी काफ़ी ज़्यादा है। फिर भी इन राज्यों में स्थिति सुधरेगी तो क्या दिल्ली में पलायन कम नहीं होगा?
जनसंख्या नियंत्रण से काफ़ी हद तक स्थिति सुधर सकती है, लेकिन अन्य सुविधाओं को सुधारे बिना पलायन किस हद तक रोका जा सकता है, यह कहना मुश्किल है। और यदि दूसरे राज्यों से पलायन नहीं रुकेगा तो दिल्ली के संशाधनों पर दबाव तो रहेगा ही।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ‘2018 रिविज़न ऑफ़ वर्ल्ड अर्बनाइज़ेशन प्रोस्पेक्ट्स’ सिर्फ़ समस्या की बात नहीं करती बल्कि शहरी आबादी बढ़ने के समाधान की बात भी करती है। पूरी रिपोर्ट सतत शहरीकरण और इसके प्रबंधन पर ज़ोर देती है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि जैसा कि दुनिया का शहरीकरण जारी है, सतत विकास शहरी विकास के सफल प्रबंधन पर निर्भर करता है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कई देशों को अपनी बढ़ती शहरी आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, जिसमें आवास, परिवहन, ऊर्जा प्रणाली और अन्य बुनियादी ढाँचे के साथ-साथ रोज़गार और शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल जैसी बुनियादी सेवाएँ शामिल हैं। शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों के लोगों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए एकीकृत नीतियों की आवश्यकता है।
इन सभी रिपोर्टों को देखें तो पता चलता है कि इन चुनौतियों से निपटने के लिए जनसंख्या नियंत्रण के साथ ही सफल प्रबंधन भी ज़रूरी है।
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