ऑड-ईवन फ़ॉर्मूला दिल्ली में लागू करने के पीछे दिल्ली सरकार का क्या मक़सद है? क्या दिल्ली के मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल इस मुद्दे पर कोरी राजनीति कर रहे हैं? क्या वे प्रदूषण कम करने को लेकर वाकई गंभीर हैं? या इस बहाने वे चुनाव से पहले राजनीतिक गोल दागना चाहते हैं?
ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि इस फ़ॉर्मूले में जिन गाड़ियों को छूट दी गई है, उनसे प्रदूषण फैलाने में पीछे नहीं है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है।
ऑड-ईवन फ़ॉर्मूला के तहत दोपहिया गाड़ियों को छूट दी गई है। दिल्ली आर्थिक सर्वेक्षण 2018-19 के मुताबिक़, दिल्ली राजधानी क्षेत्र में कुल गाड़ियों की तादाद 1.09 करोड़ है। इसमें सिर्फ़ दोपहिया गाड़ियों की संख्या 70,78,428 है। कार और जीप की संख्या 32,46,637 है। यानी, 70 लाख से अधिक दोपहिया गाड़ियाँ ऑड-ईवन के बावजूद दौड़ती रहेंगी।
इसके उन गाड़ियों को भी छूट दी गई है, जिन्हें महिलाएँ चला रही होंगी या जिन में महिलाएँ होंगी। उन गाड़ियों को भी छूट मिलेगी, जिनमें 12 साल तक के बच्चे या विकलांग व्यक्ति सवार होंगे। इसके अलावा 29 तरह की गाड़ियों को ऑड-ईवन से बाहर रखा गया है।
इतने लोगों को छूट मिलने से पूरी स्कीम पर ही सवालिया निशान लग गए हैं। इन छूटों की वजह से प्रदूषण कितना कम होगा, यह सवाल उठना लाज़िमी है।
दूसरी बात यह है कि अब तक के दो बार के ऑड-ईवन से क्या मिला। क्या उससे प्रदूषण में कमी आई थी, यह सवाल पूछा जा रहा है।
पहली बार 2016 में एक से 15 जनवरी तक और फिर उसी साल 15 से 30 अप्रैल तक लागू किया गया था।
दिल्ली में जब 2016 में दो बार ऑड-ईवन लागू हुआ तो केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यानी सीपीसीबी ने प्रदूषण के स्तर के आँकड़ों का विश्लेषण किया था।
सीपीसीबी ने इसमें आईआईटी कानपुर के अध्ययन का भी ज़िक्र किया जिसमें कहा गया था कि कुल प्रदूषण का 10 फ़ीसदी प्रदूषण चारपहिया वाहनों से निकलने वाले धुएँ से होता है।
यदि सिर्फ़ 10 प्रतिशत प्रदूषण ही चारपहिया गाड़ियों की वजह से होता है तो साफ़ है कि ऑड-ईवन से कोई ख़ास फ़ायदा नहीं होगा।
इसके अलावा एक सच और है, जो ऑड-ईवन के प्रभाव को हल्का करता है।
सिस्टम ऑफ़ एयर क्वालिटी वेदर फ़ोरकास्टिंग एंड रिसर्च (एसएएफ़एआर) के अनुसार दिल्ली में 44 फ़ीसदी प्रदूषण आसपास के राज्यों में पराली जलाने के कारण है। ऑड-ईवन लागू करने से पराली जलाने पर तो कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला है।
यह भी महत्वपूर्ण है कि यह सारा सबकछ ऐसे समय हो रहा है, जब विधानसभा के चुनाव बहुत दूर नहीं है।
ऐसा लगता है कि यह सरकार का एक तरह का पीआर का काम है, यानी प्रचार के लिए किया जा रहा है, क्योंकि इससे कोई लाभ होता नहीं दिख रहा है।
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