दिल्ली में हवा ज़हरीली है और इसके असर को कम करने के लिए सरकार ने ऑड-ईवन फ़ॉर्मूला लागू कर दिया है। ख़राब हवा से जो साँस लेने में दिक्कत हो रही है क्या उसे ऑड-ईवन दूर कर देगा?
ऐसे में ऑड-ईवन फ़ॉर्मूला हवा की गुणवत्ता पर किस तरह का असर डालेगा? क्योंकि समस्या सामान्य नहीं है। समस्या है करोड़ों लोंगों के स्वास्थ्य की। साँस लेने के लिए साफ़ हवा की। हवा इतनी ख़राब हो गई है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए आपात स्थिति घोषित करनी पड़ी है। यह स्थिति लगातार पाँच-छह दिनों से बनी है और हर रोज़ ख़राब होती जा रही है। ऐसी ही दिक्कत 2016 में भी आई थी और तब भी ऑड-ईवन फ़ॉर्मूला लागू किया गया था। तब क्या ऑड-ईवन से प्रदूषण कम हुआ था? क्या यह प्रभावशाली साबित हुआ था?
दिल्ली में अब तक दो बार ऑड-ईवन लागू हो चुका है। पहली बार 2016 में एक से 15 जनवरी तक और फिर उसी साल 15 से 30 अप्रैल तक लागू किया गया था।
इंडियन एकेडमी ऑफ़ साइंसेस से जुड़े 'करेंट साइंस' पत्रिका ने 1-15 जनवरी 2016 में लागू किए गए ऑड-ईवन पर शोध प्रकाशित किया था। इस रिसर्च में साफ़-साफ़ दिखता है कि 2016 के दौरान ऑड-ईवन ट्रैफ़िक नियम लागू होने के बाद ट्रैफ़िक से कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और कार्बन मोनोऑक्साइड जैसी प्रदूषण फैलाने वाली गैसें कम नहीं हुईं। जनवरी 2016 में ऑड-ईवन के दौरान बेनज़ीन, टॉल्विन जैसे प्रदूषक सुबह, दोपहर और रात को काफ़ी ज़्यादा थे। इससे कम तो ऑड-ईवन शुरू होने से पहले और बाद में भी थे। (देखें नीचे की तसवीर)
2016 में लागू ऑड-ईवन पर 'करेंट साइंस' पत्रिका का विश्लेषण।
आँकड़ों की जाँच में पता चला कि प्रदूषण फैलाने वाले 16 में से 13 गैसों की मात्रा सुबह और दोपहर के दौरान ज़्यादा हो गई। ये सैंपल सुबह सात से आठ बजे और दोपहर डेढ़ से ढाई बजे के बीच लिये गये थे। जबकि शाम के सात से आठ बजे के बीच लिए गए सैंपल में कोई ज़्यादा अंतर नहीं दिखा। इसका मतलब यह है कि चारपहिया वाहनों का इस्तेमाल अधिकतर लोगों ने प्रतिबंधित समय सुबह आठ से रात आठ बजे के या तो पहले या बाद में पसंद किया। एक मतलब यह भी है कि काफ़ी ज़्यादा वाहनों को ऑड-ईवन के नियम से छूट दी गई। इसमें सार्वजनिक वाहन भी शामिल हैं। इस सबका असर यह हुआ कि इसका परिणाम प्रदूषण के स्तर को कम करने में उस तरह नहीं हुआ।
कम क्यों नहीं हुआ था प्रदूषण?
दिल्ली में जब 2016 में दो बार ऑड-ईवन लागू हुआ तो केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यानी सीपीसीबी ने प्रदूषण के स्तर के आँकड़ों का विश्लेषण किया था। सीपीसीबी ने इसमें आईआईटी कानपुर के अध्ययन का भी ज़िक्र किया जिसमें कहा गया था कि कुल प्रदूषण का 10 फ़ीसदी प्रदूषण चारपहिया वाहनों से निकलने वाले धुएँ से होता है। रिपोर्ट में कहा गया था कि सैद्धांतिक रूप से ऑड-ईवन से प्रदूषण कम होना चाहिए था। लेकिन जनवरी 2016 के आँकड़े दिखाते हैं कि पीएम 2.5 और पीएम 10 और दूसरे प्रदूषण के स्तर में कोई कमी नहीं आई।
रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला गया है कि कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ऑड-ईवन योजना के कारण वायु प्रदूषण में कुछ कमी हो सकती है, लेकिन सिर्फ़ एक कार्रवाई से वायु प्रदूषण के स्तर को कम नहीं किया जा सकता है।
अप्रैल 2016 में लागू किए गए ऑड-ईवन का भी कुछ ख़ास असर नहीं हुआ था। डाटा से निष्कर्ष निकाला गया, ‘हवा की गुणवत्ता मौसम के कई दूसरे कारकों से भी प्रभावित होती है- जैसे कि हवा की गति, तापमान, सूर्य की किरणें, ह्यूमिडिटी यानी आर्द्रता आदि। वाहनों सहित विभिन्न स्रोतों से निकलने वाले धुएँ तो असर करते ही हैं। वाहनों के उत्सर्जन में इतनी कमी नहीं थी कि इसका असर प्रभावकारी हो।’
ऑड-ईवन सिर्फ़ आपातकालीन उपाय
दरअसल, ऑड-ईवन का उद्देश्य भले ही प्रदूषण के असर को कम करना हो, लेकिन इससे प्रदूषण ख़त्म नहीं होता है। दुनिया भर में जहाँ-जहाँ ऑड-ईवन फ़ॉर्मूले को अपनाया जाता है वहाँ प्रदूषण का स्तर गंभीर होने पर यह सिर्फ़ बहुत सारे उठाए जाने वाले क़दमों में से एक होता है और इसे ही समाधान का एकमात्र ज़रिया नहीं माना जाता। यानी ऑड-ईवन एक आपातकालीन उपाय है।
यदि हवा की गुणवत्ता 48 घंटे से अधिक समय तक ‘गंभीर प्लस’ श्रेणी में बनी रहती है तो ऑड-ईवन फ़ॉर्मूला, शहर में ट्रकों के प्रवेश पर रोक, निर्माण गतिविधियों पर प्रतिबंध और स्कूलों को बंद करने जैसे आपातकालीन उपाय उठाये जाते हैं।
ऑड-ईवन फ़ॉर्मूला पर दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल का रुख भी अजीब है। केजरीवाल ने सितंबर महीने में ही ऑड-ईवन लागू करने की तारीखें 4 से 15 नवंबर तक तय कर दीं। लेकिन सवाल उठता है कि क्या केजरीवाल को यह पहले से पता था कि प्रदूषण ख़तरनाक स्तर पर किस तारीख़ तक पहुँच जाएगा? और यदि ऐसा है तो प्रदूषण तय तारीख़ से पहले ही क्यों ख़तरनाक स्तर तक पहुँच गया? इसको लेकर भी विवाद है।
जब पहली बार ऑड-ईवन लागू हुआ था तब इस पर काफ़ी विवाद हुआ था और मामला एनजीटी यानी नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में पहुँचा था। दोपहिया वाहनों और महिलाओं को ऑड-ईवन के दौरान किसी भी तरह की कोई छूट देने को लेकर एनजीटी ने मना कर दिया था।
प्रदूषण के मामले में 2016 जैसे हालात
अब इस साल भी 2016 जैसे हालात हैं। हवा कितनी ख़राब है वह केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट ही बताती है। रिपोर्ट के अनुसार राजधानी में रविवार शाम को एयर क्वॉलिटी इंडेक्स यानी एक्यूआई 494 था और यह पिछले तीन साल में सबसे ज़्यादा था। इससे पहले 6 नवंबर, 2016 को यह 497 था। 201 से 300 के बीच एक्यूआई को ‘ख़राब’, 301 और 400 के बीच ‘बहुत ख़राब’ और 401 और 500 के बीच होने पर उसे ‘गंभीर’ माना जाता है। एयर क्वॉलिटी इंडेक्स से हवा में मौजूद 'पीएम 2.5', 'पीएम 10', सल्फ़र डाई ऑक्साइड और अन्य प्रदूषण के कणों का पता चलता है। पीएम यानी पर्टिकुलेट मैटर वातावरण में मौजूद बहुत छोटे कण होते हैं जिन्हें आप साधारण आँखों से नहीं देख सकते। 'पीएम10' मोटे कण होते हैं। यानी मोटे तौर पर कहें तो दो तरह के प्रदूषण फैलाने वाले तत्व हैं। एक तो पराली जलाने, वाहनों के धुएँ व पटाखे जलाने के धुएँ से निकलने वाली ख़तरनाक गैसें और दूसरी निर्माण कार्यों व सड़कों से उड़ने वाली धूल। अब फिर सवाल वही है कि यदि प्रदूषण के बड़े कारणों में पराली जलाना और निर्माण कार्यों से उड़ने वाली धूल भी है तो ऑड-ईवन से इस समस्या का समाधान कैसे हो जाएगा? वह भी तब जब सिस्टम ऑफ़ एयर क्वालिटी वेदर फ़ोरकास्टिंग एंड रिसर्च (एसएएफ़एआर) के अनुसार दिल्ली में 44 फ़ीसदी प्रदूषण आसपास के राज्यों में पराली जलाने के कारण है।
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