दंगे के आरोपी की तरफ़ से केस लड़ रहे प्रसिद्ध वकील महमूद प्राचा के ख़िलाफ़ एफ़आईआर के बाद से दंगा आरोपियों की ओर से केस लड़ रहे वकीलों का एक समूह चिंतित है। दरअसल, ऐसा होने के पीछे बड़ी वजह भी है।
यदि किसी मामले में फँसे आरोपियों की पैरवी करने वाले वकीलों के ख़िलाफ़ ही केस दर्ज कर दिया जाए तो क्या वकील वैसे आरोपियों की पैरवी करने से हतोत्साहित नहीं होंगे? और यदि किसी आरोपी की तरफ़ से कोर्ट में पैरवी करने वाले वकील ही नहीं होंगे तो क्या यह न्याय के मूलभूत सिद्धाँतों के ख़िलाफ़ नहीं होगा? न्याय का मूलभूत सिद्धाँत कहता है कि आरोपी को बिना किसी डर के अपना पक्ष रखने की पूरी छूट होनी चाहिए।
दंगा आरोपियों के वकील इस बात से आशंकित होंगे कि कहीं उनके ख़िलाफ़ भी न कोई केस दर्ज करा दिया जाए। इनमें वे वकील शामिल हैं जो दंगों में आरोपी बनाए गए विशेष रूप से अल्पसंख्यक समुदाय की ओर से केस लड़ रहे हैं। उनकी यह आशंका इसलिए है कि धोखाधड़ी मामले में महमूद प्राचा के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज कराई गई है। प्राचा दंगों से जुड़े कई मामलों में आरोपियों की ओर से पैरवी करते रहे हैं। दिल्ली की एक अदालत ने 22 अगस्त को प्राचा के ख़िलाफ़ उन आरोपों की जाँच के आदेश दिए थे जिनमें उनपर धोखाधड़ी के आरोप लगाए गए थे। इसके बाद उनके ख़िलाफ़ धोखाधड़ी और जालसाजी की एफ़आईआर दर्ज की गई थी। इस मामले की जाँच दिल्ली पुलिस की विशेष शाखा द्वारा की जा रही है। प्राचा के ख़िलाफ़ शिकायत थी कि उन्होंने केस मज़बूत करने के लिए एक शिकायतकर्ता को झूठी कहानी गढ़ने के लिए प्रताड़ित किया था।
जिस मामले में प्राचा के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की गई है, उसमें शिकायतकर्ता के बयान से छेड़छाड़ का आरोप लगाया गया है। दरअसल, यह ऐसा आरोप है जिससे शायद ही कोई वकील बच पाएँ क्योंकि अक्सर ऐसे मामले आते रहे हैं जिनमें शिकायतकर्ता से लेकर गवाह तक पहले कुछ बयान दर्ज कराते हैं और फिर बाद में उस बयान से मुकर जाते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि वे कोर्ट में अपने पहले के दिए बयान से भी मुकर जाते हैं। पुलिस को दिए गए बयान में तो अक्सर ऐसा होता रहा है।
हालाँकि एक सच यह भी है कि वकील से लेकर पुलिस तक केस मज़बूत करने के लिए गवाहों और शिकायतकर्ताओं के बयान को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर देते हैं। अब ऐसे में एफ़आईआर होने लगे तो शायद काफ़ी ज़्यादा मुश्किलें आएँगी।
इसी को लेकर कई वकील चिंतित हैं। 'द हिंदू' की रिपोर्ट के अनुसार, एक वकील ने कहा, 'स्वाभाविक रूप से कोई भी ख़ुद को मानसिक तौर पर नियंत्रण रखेगा। कोर्ट में कोई भी जाँच में गड़बड़ियों को लेकर निडर और आक्रामक होकर बोलने से पहले दो बार सोचेगा। स्पष्ट रूप से कोई भी तथ्य तो रखेगा लेकिन वह चाहेगा कि उस पर ध्यान न जाए।'
रिपोर्ट के अनुसार, दंगों से जुड़े कई मामलों की पैरवी कर रहे एक अन्य वकील ने कहा कि इसको लेकर अधिकारियों से बात हुई थी और फ़ैसला लिया गया था कि हम शांत रहेंगे और हमारे ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की जाएगी।
हालाँकि कई वकील ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा और वे निडर होकर इसकी पैरवी करते रहेंगे। 'द हिंदू' के अनुसार, शमीम अख्तर ने कहा कि क्योंकि वह कुछ भी ग़लत नहीं करते हैं इसलिए वह इससे डरते नहीं हैं। उन्होंने कहा, 'मैं अपने मुवक्किल का हित देखूँगा, लेकिन मैं एक सीमा को लाघूँगा भी नहीं। यदि मैं सीमा को लाँघता हूँ तो मैं ख़तरा मोल रहा होऊँगा जिसे मुझे नहीं करना चाहिए। फर्ज कीजिए, यदि मेरे मुवक्किल को नियमानुसार ज़मानत मिल गई तो ठीक है। यदि नहीं मिली तो मैं उसे यह नहीं बताऊँगा कि कैसे वह उसे पा सकता है।'
एक अन्य वकील ने कहा कि कई बार शिकायत करने वाली की बातों पर भरोसा कर केस ले लेते हैं, लेकिन बाद में वे ग़ायब हो जाते हैं। उन्होंने कहा, 'एक महिला ने दंगे के दौरान सेक्सुअल असॉल्ट का आरोप लगाया था, लेकिन अब वह मिल नहीं रही है।'
ये ही वो चिंताएँ हैं जिनसे कई वकील आशंकित हैं। अब यदि इन आशंकाओं में ये वकील केस को मज़बूती से पेश नहीं कर पाएँ, निडर होकर अपनी बात नहीं रख पाएँ तो क्या सच में जो निर्दोष हों और जिन्हें किसी केस में ग़लत तरह से फँसाया गया हो, उन्हें न्याय मिल पाएगा?
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