दिल्ली में बीजेपी एक बार फिर असमंजस की स्थिति में है। असमंजस यह है कि विधानसभा चुनाव के लिए वह सीएम पद का उम्मीदवार घोषित करे या न करे? पार्टी इस सवाल पर दो हिस्सों में बंटी हुई है। एक हिस्सा वह है जो कहता है पार्टी को कोई चेहरा सामने लाकर ही चुनाव लड़ना चाहिए। इसके पक्ष में दलील यह है कि अगर पार्टी ने चेहरा घोषित नहीं किया तो फिर आम आदमी पार्टी (आप) के इस सवाल का कोई जवाब नहीं होगा कि क्या बीजेपी के पास दिल्ली में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जिसे सामने लाकर पार्टी चुनाव लड़ सके। ‘आप’ यह सवाल उठा भी चुकी है। ‘आप’ के कई नेता तो बीजेपी को बिना दूल्हे वाली बारात भी कह चुके हैं।
दूसरी तरफ वे लोग हैं जो इतिहास की दुहाई दे रहे हैं। उनका मानना है कि अगर बीजेपी ने किसी चेहरे को सामने लाकर चुनाव लड़ने की कोशिश की तो फिर वही हाल होगा जो पिछले पांच चुनावों में होता आया है। दिल्ली बीजेपी अंदर ही अंदर इतने गुटों में बंटी हुई है कि अगर किसी नेता को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित कर दिया गया तो बाक़ी नेता या तो आधे मन से मैदान में उतरेंगे या फिर अंदरखाने इतना विरोध कर देंगे कि पार्टी 1998 से चल रहे राजनीतिक वनवास को ख़त्म नहीं कर पाएगी।
बीजेपी हाईकमान दिल्ली की राजनीति से वास्ता रखने वालों से पूछ भी रहा है कि आख़िर करें तो क्या करें। चुनावों के लिए किसी चेहरे को सामने लाने के लिए लगातार दबाव बनाने की कोशिश भी की जा रही है। इसलिए ऐसी ख़बरें भी सामने आ रही हैं कि हो सकता है कि इस सप्ताह में ही बीजेपी यह घोषणा कर दे कि दिल्ली का चुनाव फलां नेता की अगुवाई में लड़ा जाएगा। हालांकि मनोज तिवारी दिल्ली प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष हैं और जाहिर है कि पार्टी उनके नेतृत्व में चुनाव भी लड़ेगी लेकिन सीएम किसे प्रोजेक्ट किया जाएगा या किया भी जाएगा या नहीं, अभी पार्टी को इसका फ़ैसला करना है।
पिछले महीने एक समारोह में दिल्ली में बीजेपी के चुनाव सह प्रभारी हरदीप पुरी ने कह दिया था कि पार्टी मनोज तिवारी को सीएम बनाकर ही रहेगी लेकिन उसी शाम उन्हें अपना यह बयान वापस लेना पड़ा था क्योंकि पार्टी में ख़ुद यह महसूस किया गया था कि ऐसा करना ठीक नहीं होगा।
मोदी बनाम केजरीवाल होने का डर?
अब बीजेपी इसी सवाल में उलझी हुई है कि किसी को चेहरा बनाएं या नहीं। अगर बीजेपी के किसी नेता से यह सवाल पूछें तो वह कहते हैं कि हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का चेहरा सामने रखकर चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन इसमें ख़तरा यह भी है कि अगर चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल हो गया और बीजेपी हार गई तो फिर वैसी ही फ़जीहत होगी जैसी 2015 में हुई थी। अब बीजेपी या तो यह कहे कि सीएम का फ़ैसला चुनाव के बाद करेंगे और अभी सब मिलकर चुनाव लड़ें या फिर यह कहना होगा कि फलां नेता के नेतृत्व में हम चुनाव में उतर रहे हैं।
डॉ. हर्षवर्धन पर दाँव लगाएगी पार्टी?
यहां इस पर बात करना भी ज़रूरी है कि आख़िर कौन-कौन से ऐसे नेता हैं जिन्हें बीजेपी केजरीवाल के मुक़ाबले में अपना चेहरा बना सकती है। केजरीवाल को ‘आप’ ईमानदार मुख्यमंत्री के रूप में प्रचारित करती है और बीजेपी को भी उनका सामना करने के लिए अगर ऐसी ही छवि वाले किसी नेता को आगे लाना पड़ा तो फिर उनके पास डॉ. हर्षवर्धन के अलावा कोई और नेता नहीं है। यह ठीक वैसे ही हालात हैं जैसे 2013 में थे।
2013 का विधानसभा चुनाव
2013 में ‘आप’ ने तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को बेइमान कहकर प्रचारित किया था और बीजेपी पर यह दबाव बनाया था कि वह मुक़ाबले का चेहरा लाए। तब चुनाव से करीब एक महीना पहले बीजेपी डॉ. हर्षवर्धन को सामने ले आई थी। तब ‘आप’ के पास डॉ. हर्षवर्धन के ख़िलाफ़ कोई मुद्दा नहीं था। लेकिन डॉ. हर्षवर्धन को बेहद कम वक्त मिला था और उसी की वजह से बीजेपी उन्हें सर्वमान्य नेता के रूप में स्थापित नहीं कर पाई थी। हालांकि तब से अब तक डॉ. हर्षवर्धन केंद्रीय मंत्री के रूप में अपना रुतबा बढ़ा चुके हैं लेकिन दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें स्थापित करने के लिए अब बीजेपी के पास बहुत कम वक्त बचा है।
अगर डॉ. हर्षवर्धन को ही प्रोजेक्ट करना था तो फिर पार्टी को उन्हें लोकसभा चुनाव ही नहीं लड़ाना चाहिए था। पिछले छह महीने में उन्हें लगातार दिल्ली का काम दिया जाता या पार्टी की कमान सौंप दी जानी चाहिए थी ताकि वह हर चीज पर कंट्रोल कर सकें। लेकिन अब ऐसा करने से पिछले पांच चुनावों जैसी ही हालत पैदा हो जाएगी।
मोदी-शाह के क़रीबी हैं मनोज तिवारी
दिल्ली बीजेपी में दूसरा बड़ा नाम हैं मनोज तिवारी। मनोज तिवारी को जब प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था, तब लोगों ने शंका जाहिर की थी कि दिल्ली की राजनीति को वह कैसे समझ पाएंगे क्योंकि इससे पहले दिल्ली की सारी राजनीति पंजाबी-वैश्य समुदायों के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। मनोज तिवारी आज भी पूर्वांचलियों के नेता के रूप में जाने जाते हैं। बीजेपी में एक बड़ा वर्ग उन्हें स्वीकार नहीं करता। हालांकि मनोज तिवारी पीएम मोदी और शाह दोनों के क़रीबी हैं लेकिन सीएम के रूप में उन्हें प्रोजेक्ट करने से बीजेपी की गुटबाज़ी निश्चित रूप से बढ़ेगी।
गोयल और तिवारी सियासी प्रतिद्वंद्वी
तीसरा बड़ा नाम हैं पूर्व केंद्रीय मंत्री विजय गोयल। लेकिन गोयल और मनोज तिवारी के मतभेद छिपे हुए नहीं हैं। विजय गोयल 2003 के विधानसभा चुनाव के बाद से ही मुख्यमंत्री पद पर नजर लगाए बैठे हैं लेकिन उन्हें एक बार भी मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट नहीं किया गया। गोयल को जोड़तोड़ में माहिर माना जाता है। पार्टी में बहुत से लोग कहते हैं कि अगर 2013 की स्थिति में विजय गोयल मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होते तो चार विधायक तोड़ लाते और किसी न किसी तरह सरकार बना लेते। तब डॉ. हर्षवर्धन ने नतीजे आते ही सरकार बनाने से इनकार कर दिया था। इसलिए अगर विजय गोयल को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट किया जाता है तो केजरीवाल एंड पार्टी के लिए उन्हें निशाने पर लेना ज्यादा आसान होगा।
चौथे दावेदार के रूप में विजेंद्र गुप्ता का नाम लिया जा सकता है। विजेंद्र गुप्ता पिछले पांच साल से बीजेपी के सिर्फ़ 3-4 सदस्यों के विधायक दल के नेता हैं लेकिन उनकी वरिष्ठता उनके इस दावे को साबित नहीं करती कि अगर हारने पर वह विपक्ष के नेता हैं तो फिर जीतने पर भी उन्हें ही नेता बनाया जाना चाहिए।
लगातार 5 चुनाव हार चुकी है बीजेपी
पिछले 21 साल में हुए पांच विधानसभा चुनावों में बीजेपी 2013 के चुनाव को छोड़कर बाक़ी में बुरी तरह हारी है। सच्चाई यह है कि इन सभी पांच चुनावों में बीजेपी ने ऐन वक्त पर यानी चुनावों से ठीक पहले ही यह फ़ैसला किया कि किसके चेहरे पर मैदान में उतरा जाए। 1998 में मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा की खुल्लमखुल्ला लड़ाई को निपटाने के लिए सुषमा स्वराज को चुनावों से 52 दिन पहले दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया गया था और फिर उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया। तब पार्टी सिर्फ 15 सीटों पर सिमट गई थी।
2003 में मदनलाल खुराना को चुनावों से ठीक पहले राजस्थान के राज्यपाल पद से इस्तीफ़ा दिलाकर सीएम का चेहरा प्रोजेक्ट किया गया लेकिन तब भी बीजेपी 20 सीटों पर सिमट गई थी।
2008 के चुनाव में अचानक पार्टी को विजय कुमार मलहोत्रा की याद आई और उन्हें ‘सीएम इन वेटिंग’ कहकर प्रचारित किया गया। लेकिन वह ‘वेटिंग’ कभी खत्म नहीं हुई। इसी तरह 2013 में चुनाव से एक महीना पहले डॉ. हर्षवर्धन को ईमानदार छवि की दुहाई देते हुए उतारा गया, तब बीजेपी 32 सीटों पर अटक गई थी।
2015 में बीजेपी ने एक और नया प्रयोग किया जब चुनावों से ठीक पहले केजरीवाल का मुक़ाबला करने के लिए कभी उन्हीं की साथी रहीं पूर्व पुलिस अफ़सर किरन बेदी को पार्टी में लाकर सीएम का चेहरा बना दिया गया। तब बीजेपी की जितनी बुरी गत बनी, वह सभी के सामने है।
अब एक बार फिर विधानसभा चुनाव से ठीक पहले पार्टी के एक वर्ग को यह सूझ रहा है कि किसी नेता को सीएम का चेहरा बनाया जाए। इसका अंजाम क्या होगा, यह तो कोई नहीं जानता लेकिन आगाज़ का वक्त निश्चित रूप से गुजर चुका है। फिर भी बीजेपी दिल्ली में चुनावों से पहले हमेशा प्रयोग करती रही है। इस बार भी हो जाए तो कोई हैरानी नहीं होगी।
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