दिल्ली में बीजेपी पिछले पाँच चुनावों से लगातार हार रही है। 1998 से हार का जो सिलसिला शुरू हुआ है, अभी तक जारी है। कोई इसे बीजेपी का बनवास कहता है तो कोई कहता है कि बीजेपी ख़ुद ही अपने पाँवों पर कुल्हाड़ी मारती है। बात जो भी हो लेकिन बीजेपी के लिए पिछले 21 सालों से दिल्ली दूर है। हालाँकि यह भी इत्तिफ़ाक़ है कि जनसंघ ने दिल्ली नगर निगम में 1957 में पहली जीत दर्ज करके अपनी राजनीति की शुरुआत की थी लेकिन जहाँ से शुरुआत हुई, वहीं बीजेपी चाहकर भी सत्ता हासिल नहीं कर पा रही है।
बीजेपी 1993 में विधानसभा का पहला चुनाव जीतकर सत्ता में आई थी लेकिन 1998 में पासा पूरी तरह बदल गया। 1998 के विधानसभा चुनाव दिल्ली बीजेपी के लिए एक दुखद अध्याय कहा जा सकता है। चुनाव से क़रीब एक महीना पहले बीजेपी ने मुख्यमंत्री बदल दिया। साहिब सिंह वर्मा को हटाकर सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बनाकर भेज दिया गया। दरअसल, उस दौरान बीजेपी ने पाँच साल के एक कार्यकाल में दिल्ली को तीन मुख्यमंत्री दिए और हालात किसी के भी काबू में नहीं रहे।
1993 का चुनाव जीतने के बाद मदन लाल खुराना को मुख्यमंत्री बनाया गया था। 1995 में देश की राजनीति में हवाला का भूचाल उठा। जैन बंधुओं की डायरी में अनेक नाम आए। इसमें मदन लाल खुराना का नाम भी शामिल था। खुराना ने नैतिकता के आधार पर यह कहते हुए इस्तीफ़ा दे दिया कि जब अदालत मुझे दोषमुक्त कर देगी तो मैं वापस मुख्यमंत्री बन जाऊँगा। बीजेपी ने उनके उत्तराधिकारी के रूप में साहिब सिंह वर्मा को चुना। चुनाव से छह महीने पहले दिल्ली में बिजली संकट गहरा गया। प्याज की क़ीमतें बढ़ने लगीं। कांग्रेस ने स्थिति का भरपूर लाभ उठाया। हालात हाथ से निकलते देख अंतिम दौर में बीजेपी ने बौखलाकर साहिब सिंह वर्मा की जगह सुषमा स्वराज को बिठा दिया। हालाँकि तब तक खुराना भी अदालत से दोषमुक्त हो गए थे लेकिन पार्टी ने उन्हें मौक़ा नहीं दिया। गुटबाज़ी बढ़ने के डर से बीजेपी ने तीसरे को सत्ता पर बिठा दिया। खुराना और वर्मा दोनों ही नाराज़ थे और सुषमा स्वराज एकदम नई थीं।
1998 के चुनाव पूरी तरह प्याज के मुद्दे पर लड़े गए और जो नतीजे आए, उसने सबको चौंका दिया। शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने 52 सीटें जीतीं और बीजेपी सिर्फ़ 15 सीटों पर सिमट गई। हालाँकि कांग्रेस ने इस दौरान ऐसा कुछ नहीं किया था कि सत्ता उसे मिल पाती। यहाँ तक कि छह महीने पहले हुए पूर्वी दिल्ली लोकसभा के उपचुनाव में शीला दीक्षित लालबिहारी तिवारी से हार गई थीं।
केजरीवाल आज कहते हैं कि हमारी पहली सरकार है जो काम के आधार पर वोट माँग रही है लेकिन 2003 में तीसरी विधानसभा के चुनाव के वक़्त शीला दीक्षित ने भी यही किया था। शीला दीक्षित दिल्ली को वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने के नारे के साथ मैदान में उतरी थीं। बीजेपी का बिखराव तब भी ख़त्म नहीं हुआ था। मदन लाल खुराना को दिल्ली बीजेपी की बागडोर सौंप दी गई। उनके प्रबल प्रतिद्वंद्वी विजय कुमार मल्होत्रा को कैंपेन कमिटी का चेयरमैन बनाया गया। वह ख़ुद भी मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। विजय गोयल और साहिब सिंह वर्मा भी मुख्यमंत्री बनने के दावेदार थे। खुराना ने रथयात्रा निकाली लेकिन किसी सीनियर नेता ने उनका साथ नहीं दिया और वह अकेले ही प्रचार करते रहे। सभी को खुश करने के चक्कर में कई कमज़ोर उम्मीदवारों को टिकट दे दिया गया। कहा जाता है कि 70 में से 18 सीटें ऐसी थीं जो सिर्फ़ सिफ़ारिश के आधार पर दी गई थीं। इसमें बीजेपी बुरी तरह हार गई। उसे 20 सीटों पर ही सफलता मिली।
2008 में भी सबक़ नहीं लिया
1998 और 2003 से बीजेपी ने कोई सबक नहीं लिया और 2008 में पार्टी ने विजय कुमार मलहोत्रा को सीएम इन वेटिंग कहकर पेश किया। विजय कुमार मलहोत्रा 1967 में दिल्ली के मुख्य कार्यकारी पार्षद थे जोकि विधानसभा के पहले का सेटअप था। एक तरह से वह दिल्ली के मुख्यमंत्री के समकक्ष रह चुके थे। लेकिन पार्टी का युवा नेतृत्व उन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। दूसरी तरफ़ कांग्रेस ने इस बार भी दिल्ली के विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ा। बीजेपी के पास बिजली का मुद्दा था लेकिन इस मुद्दे को उठाने की बजाय वह आपसी फूट में ही उलझी रही। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. हर्षवर्धन को सीएम प्रोजेक्ट किए जाने की उम्मीद थी। विजय गोयल भी हाथ-पैर मार रहे थे। चुनाव 29 नवंबर को थे और 26 नवंबर को मुंबई अटैक हो गया। बीजेपी ने इसे राष्ट्रीय संकट मानने की बजाय सारा दोष कांग्रेस सरकार पर थोप दिया। यह दाँव उलटा पड़ा गया। जनता को यह पसंद नहीं आया कि इस संकट की घड़ी में भी बीजेपी राजनीति खेले। बीजेपी सिर्फ़ 23 सीटें ही जीत सकी।
2013 के दिल्ली विधानसभा चुनावों ने दिल्ली की राजनीति का रूप-रंग बदलकर रख दिया। 15 साल तक दिल्ली पर काबिज शीला दीक्षित सरकार की ऐसी बुरी गत बनी कि किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। इस बार भी बीजेपी ने फिर से अपनी वही ग़लती दोहराई।
चुनाव से कुछ महीने पहले विजय गोयल को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया, लेकिन मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट नहीं किया। आम आदमी पार्टी के राजनीतिक दबाव में बीजेपी जाल में फँस गई। चुनाव से क़रीब एक माह पहले डॉ. हर्षवर्धन को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बना दिया गया। एक बार फिर पार्टी के एक वर्ग में असंतोष की स्थिति पैदा हो गई। बीजेपी को 32 सीटें मिलीं जिनमें अकाली दल की भी एक सीट शामिल थी। तत्कालीन उपराज्यपाल नजीब जंग के आमंत्रण पर भी डॉ. हर्षवर्धन ने यह कहते हुए सरकार बनाने से इनकार कर दिया कि पार्टी के पास पर्याप्त बहुमत नहीं है। बहुत-से लोग मानते हैं कि बीजेपी ने उस वक़्त यह भारी ग़लती की थी। हालाँकि बाद में कांग्रेस के 8 विधायकों को तोड़कर जुगाड़ की सरकार बनाने की कोशिशें हुईं लेकिन तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी। केजरीवाल कांग्रेस के समर्थन से 49 दिन की सरकार बनाकर जनता में एक विश्वास पैदा कर चुके थे। बिजली हाफ़ और पानी माफ़ का वादा पूरा करके उन्होंने जनता में यह संदेश दे दिया कि मैं इस वादे को पूरा कर सकता हूँ।
2015 में मोदी की लहर में भी हार गई बीजेपी
विधानसभा भंग होने और 2015 में नए चुनाव होने पर बीजेपी काफ़ी उत्साह में थी। 2014 में दिल्ली में लोकसभा की सातों सीटों पर बीजेपी जीत दर्ज कर चुकी थी। महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में पार्टी ने कांग्रेस को चारों खाने चित्त कर दिया था। अब दिल्ली की बारी थी। मोदी जी के नाम का डंका चारों तरफ़ बज रहा था और बीजेपी इसी विश्वास के साथ मैदान में थी कि अब उसे कोई रोक नहीं सकता। बीजेपी के ओवर कॉन्फ़िडेंस का ही यह सबूत था कि पार्टी पूरी तरह आक्रामक होकर उतर आई थी। केजरीवाल की स्थिति बड़ी ही बेचारगी वाली हो गई थी। चुनाव 7 फ़रवरी को थे लेकिन बीजेपी ने 15 जनवरी को अचानक ही एक बड़ा फ़ैसला लेकर सभी को चौंका दिया। किरन बेदी को बीजेपी में शामिल करके सीएम प्रोजेक्ट कर दिया गया।
लोगों ने इसे बीजेपी की तुरूप की चाल बताया क्योंकि किरन बेदी तो ख़ुद केजरीवाल की साथी रह चुकी थीं और लोकपाल आंदोलन में अन्ना के साथ खड़ी थीं। यह माना जा रहा था कि जो लोग इस आंदोलन से आप के साथ आ जुड़े हैं, वे भी बीजेपी के समर्थक बन जाएँगे। मगर, होना तो कुछ और ही था।
इसी बीच, किरन बेदी ने बीजेपी में कुछ ऐसे हालात पैदा कर दिए कि पार्टी में उनके ख़िलाफ़ असंतोष की स्थिति बन गई। जिस दिन उन्हें सीएम प्रोजेक्ट किया गया, उसी दिन डॉ. हर्षवर्धन उनसे मिलने उनके घर सिविल लाइंस पहुँचे। वह कुछ देरी से पहुँचे और किरन बेदी इस ग़ुस्से में उनसे मिले बिना घर से चली गईं। अगले दिन पार्टी की एक बड़ी मीटिंग में बीजेपी के कुछ सीनियर नेता उस वक़्त आपस में बात कर रहे थे जिस वक़्त किरन बेदी का भाषण चल रहा था। किरन बेदी के सामने शायद किसी सिपाही की हिम्मत नहीं होती थी कि वे ‘सावधान’ से ‘विश्राम’ की मुद्रा में भी आ जाएँ। किरन बेदी ने मंच से ही उन नेताओं को फटकार लगा दी। पूरी पार्टी सकते में आ गई। किरन बेदी कृष्ण नगर से उम्मीदवार थीं जहाँ उनसे पहले पाँच बार डॉ. हर्षवर्धन जीते थे। किरन बेदी ने इलाक़े को बेहद ख़राब बताया और कहा कि यहाँ कई समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया गया। बस, पार्टी में यही माहौल बन गया कि किरन बेदी को सफल नहीं होने देना। पूरी पार्टी का मनोबल अंदर ही अंदर टूट चुका था। 70 में से सिर्फ़ 3 सीटों पर बीजेपी जीती थी और वह भी इसलिए जीती थी कि उन सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों को सम्मानजनक वोट मिल गए थे।
अपनी राय बतायें