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केजरीवाल को यह मान लेना चाहिए कि उनकी बस छूट चुकी है

केजरीवाल के लिए इस सच को पचाना भी मुश्किल है कि जिस तरह फ़ीनिक्स पक्षी अपनी राख से उठ खड़ा होता है, वैसे ही राहुल गाँधी विपक्षी एकता की धुरी बन गए हैं। केजरीवाल के लिए इस सच को स्वीकार करना भी कठिन है कि कांग्रेस पुनर्जीवित हो गई है और अब लोग आम आदमी पार्टी को उसके विकल्प के रूप में नहीं  देखते हैं। 
आशुतोष
अरविंद केजरीवाल के साथ दिक्क़त यह है कि वह अब तक इस सच को स्वीकार नहीं कर पाए हैं कि आम आदमी पार्टी के गठन के शुरुआती दिनों में जिस तरह राष्ट्रीय नेता की  संभावना उनमें देखी जा रही थी, वह अब वैसे नेता नहीं रहे। केजरीवाल के लिए इस सच को पचाना भी मुश्किल है कि जिस तरह फ़ीनिक्स पक्षी अपनी राख से उठ खड़ा होता है, वैसे ही राहुल गाँधी विपक्षी एकता की धुरी बन गए हैं। केजरीवाल के लिए इस सच को स्वीकार करना भी कठिन है कि कांग्रेस पुनर्जीवित हो गई है और अब लोग आम आदमी पार्टी को उसके विकल्प के रूप में नहीं  देखते हैं। दिल्ली और इसके आस पास के राज्यों में कांग्रेस और ‘आप’ के बीच अब तक गठबंध नहीं बन पाने की यही वजह है।
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कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेताओं को यह समझना चाहिये कि यदि बीजेपी को दिल्ली में हराना है तो इन दोनों दलों में गठबंधन होना ज़रूरी है। हालाँकि राहुल और केजरीवाल दोनों ही ज़ोर देकर कहते हैं कि देश को बचाना है तो मोदी को हराना होगा। अभी सोमवार को दिल्ली के मुख्यमंत्री ने इस बारे में ट्वीट किया था। उन्होंने राहुल के ट्वीट के जवाब में लिखा था कि मोदी को हराना बहुत ज़रूरी है। तब राहुल ने ट्वीट किया था कि कांग्रेस आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली में चार सीटें छोड़ सकती है और यदि दोनों दलों ने यह फ़ार्मूला स्वीकार कर लिया तो दिल्ली में बीजेपी को हराया जा सकता है। लेकिन उन्होंने इसके बाद शरारतपूर्ण ढंग से यह भी जोड़ दिया कि केजरीवाल के यू-टर्न लेने की वजह से गठबंधन बनाने का काम आगे नहीं बढ़ रहा है। राहुल की यह टिप्पणी दो कारणों से ग़ैर राजनीतिक है।
पहला, राहुल ने अपनी बात कहने के लिए सोशल मीडिया क्यों चुना? किसी बात को सार्वजनिक तौर पर लिखने से उसे ग़लत समझे जाने की संभावना बनी रहती है। गंभीर राजनीति में किसी मुद्दे को जनता की नज़रों से दूर सीधे बातचीत के ज़रिए गंभीरता से सुलझाना होता है।
सार्वजनिक रूप से एक स्टैंड ले लेने से उस पर किसी तरह के समझौते की संभावना कम हो जाती है। नतीजा यह हुआ कि केजरीवाल ने अपनी सार्वजनिक छवि बचाने के लिए राहुल को जवाब दिया, जो उन्हें नहीं देना चाहिए था। इससे स्थिति और जटिल हो गई।

राजनीतिक अपरिपक्वता

दूसरी बात यह है कि राहुल को सीधे केजरीवाल का नाम लेने और यह कहने से बचना चाहिए था कि उनकी वजह से गठबंधन नहीं हो सका। एक ऐसा नेता जो बीजेपी को दिल्ली में हराने के लिए गठजोड़ बनाने की बात करता हो, उसके लिए इस तरह की बातें करना निहायत ही मूर्खतापूर्ण है। मैं केजरीवाल को थोड़ा बहुत जानता हूँ। और मैं यह भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि जवाब देने से बचना केजरीवाल के लिए मुश्किल होता है। मैं सही था। एक तो उन्होंने सोशल मीडिया के अपने तपे-तपाए योद्धाओं को पूरी तरह झोंक दिया, जिन्होंने कांग्रेस और राहुल पर हमला करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसके बाद वह ख़ुद भी मैदान में कूद पड़े और ट्विटर पर ज़बरदस्त ढंग से प्रतिक्रिया जताई। 
यदि राहुल ने ट्विटर पर लिख कर अपरिपक्वता दिखाई तो केजरीवाल भी उतने ही ग़ैर-ज़िम्मेदार साबित हुये और उन्होंने भी वैसी ही मूर्खता की। पर यह भी काफ़ी नहीं था। इसके बाद पार्टी के दो बड़े नेता, दिल्ली राज्य के संयोजक गोपाल राय और राज्यसभा सांसद संजय सिंह को भी इस विवाद में झोंक दिया गया। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि राहुल गाँधी के शुरुआती ट्वीट के बाद कांग्रेसी नेताओं ने परिपक्वता दिखाई और आम आदमी पार्टी के सोशल मीडिया के हमले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। 
मेरी राय में 4/3 का फ़ार्मूला दोनों पार्टियों के लिए बेहतर है और साथ ही सम्मानजनक भी। आम आदमी पार्टी इस बात से सहमत नहीं लगती, इसलिए वह जानबूझ कर गठबंधन को हरियाणा, चंडीगढ़ और पंजाब से जोड़ देती है। आम आदमी पार्टी का यह कदम सही नहीं है।

अतीत में जी रही पार्टी

पार्टी अपने पक्ष में दो तर्क देती है। एक, कांग्रेस का दिल्ली में कोई अस्तित्व नही है, कांग्रेस के पास न तो कोई विधायक है न ही सांसद। एक तरह से आप की यह बात सही भी है। लेकिन 'आप' की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह अतीत में जी रही है। यह सच है कि कांग्रेस पार्टी को 2014 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली में कोई सीट नहीं मिली। इसी तरह से 2015 के विधानसभा चुनाव में भी उसका खाता नहीं खुला।
लेकिन 2019 के चुनाव के संदर्भ में 2014 और 2015 के आंकड़ों का कोई अर्थ नहीं है। सच्चाई तो यह है कि 2014 में आम आदमी पार्टी को दिल्ली में सभी सीटों पर मात खानी पड़ी थी। हालाँकि विधानसभा में उसे 67 सीटें मिलीं, लेकिन 'आप' यह भूल जाती है कि एमसीडी के चुनाव में उसे महज 26 फ़ीसदी वोट ही मिले थे। इसके अलावा रजौरी गार्डन के उपचुनाव में उसके उम्मीदवार की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी और बड़ी मुश्किल से बवाना उपचुनाव वह जीत पाई थी। 
एमसीडी के चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन पहले से काफ़ी बेहतर हुआ। उसे 22 प्रतिशत वोट मिले यानी आम आदमी पार्टी से सिर्फ़ 4 प्रतिशत कम। इसलिए आम आदमी पार्टी का यह तर्क सही नहीं है कि 2015 विधानसभा चुनाव को बेंचमार्क मानना चाहिए और उसके आधार पर सीटों का बँटवारा हो।

न घर के रहे न घाट के 

कायदे से 2017 के एमसीडी चुनाव के आधार पर सीटों का आदान प्रदान होना चाहिए। 'आप' को यह नहीं भूलना चाहिए कि आम आदमी पार्टी दिल्ली की एक स्थानीय पार्टी है  जिससे राष्ट्रीय स्तर पर लोगों को कोई उम्मीद नहीे है, जबकि कांग्रेस अखिल भारतीय पार्टी है उससे कुछ लोगों को उम्मीद हो सकती है कि उनकी सरकार भी केंद्र में बन सकती है। दिल्ली में मैंने बहुत सारे लोगों से बातचीत की है। ज़्यादातर लोगों का यही कहना है कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस या बीजेपी को वे वोट दे सकते हैं। 
'आप' इस हालत के लिए ख़ुद ज़िम्मेदार है। जब उसे राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर देखा जा रहा था तब वह दिल्ली की स्थानीय राजनीति में जुटी थी और अब जब स्थानीय राजनीति ही उसका एक मात्र सहारा है, वह राष्ट्रीय होना चाहती है।

'आप' की बस छूट गई

'आप' का चंडीगड और हरियाणा में कोई जनाधार नहीं है। दो साल पहले हरियाणा में आम आदमी पार्टी ने काफ़ी धूमधाम से अपना प्रचार शुरू किया था लेकिन उसे स्थानीय स्तर पर कोई समर्थन नहीं मिला और 'हरियाणा का छोरा' होने के बावजूद केजरीवाल को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया। आम आदमी पार्टी को जितनी जल्दी अहसास हो जाए उतना ही अच्छा होगा कि उसकी बस छूट चुकी है। वह दिल्ली में लोकल पार्टी है। अगर वह वाकई में मोदी को रोकने के लिए गंभीर है तो उसे दिल्ली के गठबंधन को दूसरे राज्यों से अलग रखना चाहिए। आज आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर कोई तवज्जो नहीं देता है। पिछले दिनों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में उसे किसी भी राज्य में 'आप' को एक फ़ीसदी वोट तक नहीं  मिला था।
मैं यह समझ सकता हूँ कि अतीत के साथ समझौता करना बड़ा मुश्किल होता है। अतीत बार-बार परेशान करता है। लेकिन अतीत की वजह से वर्तमान को नष्ट नहीं किया जा सकता है। अगर 'आप' अकेले चुनाव लड़ती है तो बीजेपी को सभी सीटों पर फ़ायदा होगा। राहुल गाँधी और अरविंद केजरीवाल को यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी लड़ाई एक ऐसे शख़्स से है जो चुनाव जीतने के लिए बिहार में अपनी पाँच जीती हुई सीटें जनता दल युनाइटेड को दान में दे देता है और महाराष्ट्र में भी एक जीती हुई सीट शिवसेना के खाते में डाल देता है। प्रधानमंत्री उस 'ग्लैडिएटर' की तरह हैं, जिसे हार मंज़ूर नहीं है। राहुल गाँधी और अरविंद केजरीवाल को अपने संकीर्ण इरादों से ऊपर उठना होगा क्योंकि मोदी वापस आए तो दोनों नेताओं के लिए राजनीतिक तौर पर बचना मुश्किल होगा। यह ख़तरा केजरीवाल के लिए ज्यादा है। यह बात केजरीवाल जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा है।
(एनडीटीवी.कॉम से साभार)
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