देहरादून के मशहूर बैरिस्टर चंडी प्रसाद सिंह के बड़े बेटे (जन्म-1 सितंबर 1908) कृष्ण निरंजन सिंह अपनी बहन के इलाज के सिलसिले में कोलकाता नहीं गए होते तो बर्लिन ओलंपिक में हिस्सा लेकर खिलाड़ी बन गए होते। एक संभावना यह भी थी कि पिता की तरह इंग्लैंड जाकर लॉ की पढ़ाई कर लौटते और फिर उनकी तरह वकालत करते। उन्होंने एक बार देखा कि उनके पिता ने एक क़ातिल को क़ानून की गिरफ़्त से बचा लिया था। उनके युवा मन को धक्का लगा। उन्होंने सोचा कि अगर बैरिस्टर बन कर ऐसा ही कुछ करना होगा तो तौबा!
खैर, बहन की मदद से बर्लिन के बजाए वह 1936 में कोलकाता पहुँचे और संयोग से पृथ्वीराज कपूर से उनकी मुलाक़ात हो गई। उनके सुदर्शन व्यक्तित्व और उनकी आँखों से प्रभावित कपूर ने उन्हें देबकी बोस से मिलवा दिया। देबकी बॉस उन दिनों न्यू थिएटर्स के सक्रिय निर्देशक थे। देबकी बोस ने उन्हें ‘सुनहरा संसार’ (1936) में परदे पर उतार दिया।
‘सुनहरा संसार’ के बाद उन्हें न्यू थियेटर्स में ₹150 के मासिक वेतन पर रख लिया गया। उन दिनों कलाकार स्टूडियो के साथ ऐसे ही जुड़ते थे। कोलकाता में की गई फ़िल्मों में उनकी अदाकारी से मुंबई के निर्देशक आकर्षित हुए। ख़ासकर ए आर कारदार ने उन्हें मुंबई आने का न्योता दिया। पृथ्वीराज कपूर पहले ही मुंबई आ चुके थे। पीछे से 1937 में के एन सिंह भी पहुंचे। मुंबई के मशहूर निर्माता फाजली भाई ने उन्हें अनुबंधित कर लिया। उनके साथ के एन सिंह ने ‘बागबान’, ‘इंडस्ट्रियल इंडिया’ और ‘पति-पत्नी’ जैसी फ़िल्में कीं।
के एन सिंह की समझ में आ गया था कि उन्हें फ़िल्मों में नायक की भूमिका नहीं मिलेगी। फ़िल्मों में खलनायक की भूमिका से उन्हें कोई दिक्कत नहीं थी। खलनायकी में उनका एक अलग अंदाज़ और मुकाम था। सूट-बूट और हैट पहने व मुँह में पाइप दबाए के एन सिंह पर्दे पर आते थे और घनी भौंहों और उनींदी पलकों से दर्शकों की तरफ़ देखते थे तो सिहरन सी पैदा होती थी। उनका अभिजात्य अंदाज़ प्रभावित करता था।
वरिष्ठ कलाकार याकूब ने के एन सिंह की अदाकारी देखकर कहा था अब मैं खलनायकी छोड़कर चरित्र भूमिकाएँ निभाऊँगा। उन्होंने के एन सिंह से कहा था कि ‘तुम केवल सिंह नहीं हो, तुम किंग हो’। सिंह इज़ किंग!
खलनायक की भूमिका में वह किंग ही थे। फाज़लीभाई के बाद के एन सिंह ने नानुभाई देसाई के साथ कुछ दिनों तक काम किया और फिर सोहराब मोदी के मिनर्वा स्टूडियो से जुड़ गए। अब उन्हें महीने के ₹500 मिलने लगे। उनकी तरक्की यहीं नहीं रुकी। बॉम्बे टॉकीज की पारखी निर्माता और अभिनेत्री देविका रानी की उन पर नज़र थी। उन्होंने के एन सिंह को बॉम्बे टॉकीज में आने का निमंत्रण दिया। साथ ही उन्होंने पूछा कि आप कितनी रक़म की उम्मीद करते हैं? के एन सिंह ने एक निश्चित रक़म बताने के बजाय जवाब दिया मैं क्या बताऊँ? आप तय करें कि मुझे क्या मिलना चाहिए?
उन्हें ₹1600 के मासिक वेतन पर रख लिया गया। मासिक वेतन के अलावा घर से स्टूडियो आने-जाने का टैक्सी किराया भी मुकम्मल किया गया। 1944 तक वह स्टूडियो से जुड़े रहे। बाद में स्टूडियो सिस्टम टूटने पर उन्होंने बाक़ी कलाकारों की तरह स्वतंत्र रूप से अभिनय जारी रखा।
दिलीप कुमार और एन के सिंह
बॉम्बे टॉकीज में दिलीप कुमार की लॉन्चिंग फ़िल्म ‘ज्वार भाटा’ की शूटिंग आरंभ हुई तो उनका पहला शॉट लिया जा रहा था। सेट पर मौजूद के एन सिंह को देखकर उनकी घबराहट बढ़ गई तो निर्देशक अमिय चक्रवर्ती ने उनसे आग्रह किया है कि आप चाय पीने के लिए थोड़ी देर सेट से बाहर चले जाएँ। एकबारगी निर्देशक की यह बात उनकी समझ में नहीं आई तो उन्होंने वजह पूछा। अमिय चक्रवर्ती ने बताया कि दिलीप तुम्हारी मौजूदगी से घबरा गया है। यह सुनते ही के एन सिंह ने दिलीप कुमार के कंधे पर हाथ रखा और उन्हें समझाया। दिलीप कुमार की घबराहट ख़त्म हो गई। दोनों ही पहले दिन से दोस्त बन गए। उन्होंने ‘ज्वार ‘ के अलावा दिलीप कुमार के साथ ‘हलचल’ और ‘शिकस्त’ फ़िल्में भी कीं।
के एन सिंह सहयोगी कलाकारों से दोस्ताना व्यवहार रखते थे। उनकी इज़्ज़त करते थे और यही चाहते थे। ना केवल उनकी शख्सियत बल्कि उनके निभाए किरदारों में भी इस आदर का ख्याल रखा गया। उन्हें किसी नायक ने कभी पर्दे पर गाली नहीं दी। किसी ने ‘हरामजादे’ जैसी गालियाँ संवादों में नहीं रखा। वह बाक़ी खलनायकों की तरह चीखते-चिल्लाते नहीं थे। नायिकाओं को छूने और छेड़ने के दृश्य नहीं करते थे। उनकी कद्दावर मौजूदगी पर्दे पर आते ही दर्शकों पर तारी हो जाती थी। भय छा जाता था कि अब नायक की मुश्किलें बढ़ेंगी।
उनके क़रीबी दोस्त न्यू थियेटर्स के ज़माने के ही थे। के एल सहगल, पृथ्वीराज कपूर और पहाड़ी सान्याल से उनकी ख़ूबी छनती थी। शाम में महफिल ज़मती थी। कुछ और दोस्त भी आ जाया करते थे। एक शाम ऐसी ही महफ़िल में 10-12 दोस्त जमा थे। कमरे में सिगरेट का धुआँ भर गया था तो के एन सिंह ने हवा के लिए खिड़की खोल दी। खिड़की खोलते ही बाहर उनकी नज़र बारिश में छतरी लिए खड़ी भीड़ पर पड़ी। पता चला कि वे सभी के सहगल का गाना सुनने आए हैं।
यह महफिल धीरे-धीरे सूनी हो गई। एक-एक कर दोस्त मौत की आगोश में सो गए। जीवन के अंतिम पहर में वह अकेले हो गए थे। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी।
उन्होंने छोटे भाई विक्रम सिंह (फ़िल्मफेयर के संपादक) के बेटे पुष्कर को गोद लिया था। तबस्सुम से एक बातचीत में उन्होंने अपने अकेलेपन का ज़िक्र करते हुए बताया था कि सामने की कुर्सियों पर बैठने वाले चले गए। मैं यहाँ बैठा इंतज़ार करता रहता हूँ कि कभी घर की घंटी बजे। वह नहीं बजती तो मुझे फ़ोन की घंटी का इंतज़ार रहता है। वह भी नहीं बजती। और एक खाली-खाली सी आवाज़ सुनाई पड़ती है।
उन्होंने आठवें-नौवें दशक के कलाकारों के साथ भी काम किया। 45 सालों में फ़िल्म इंडस्ट्री के बदले अंदाज़ से वह ख़ुश नहीं थे। उनके अनुसार फ़िल्म इंडस्ट्री में पहले फ़िल्म के निर्माता सर्वेसर्वा होते थे। तब सभी चीजें दुरुस्त थीं। धीरे-धीरे फ़िल्मों की कमान हीरो के हाथ में चली गई। फ़िल्म इंडस्ट्री की सूरत और सीरत बदल गई। इस बदलाव से नाख़ुश रहने के बावजूद वह अपने समय की नई पीढ़ी की तारीफ़ भी करते थे। उनके मुताबिक़ नई पीढ़ी के कलाकार हमारी पीढ़ी की तरह लापरवाह नहीं हैं। उन्होंने क़ायदे से भविष्य के बारे में सोचा है और अगली दो-तीन पीढ़ियों तक के लिए इंतज़ाम कर लिया है।
जीवन के अंतिम सालों में अपनी आँखों के लिए विख्यात के एन सिंह की आँखों की रोशनी चली गई थी। मोतियाबिंद के मामूली ऑपरेशन में उनकी आँखें ख़राब हो गई थीं और दिखना बंद हो गया था। जीवन में आये अंधेरे को भी उन्होंने स्वीकार किया। 31 जनवरी 2001 को मुंबई में उनका निधन हुआ।
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