सुपर फ़्लॉप फ़िल्म के हीरो
राजनीतिक परिवार से होने और इंजीनियरिंग करने के बाद चिराग़ ने 2011 में फ़िल्म ‘मिलें ना मिलें हम’ के हीरो के रूप में शुरुआत की। हीरोइन कंगना रनाउत के होने के वावजूद यह फ़िल्म बुरी तरह पिट गयी और चिराग़ के फ़िल्मी भविष्य पर विराम लग गया। उसके बाद पिता की विरासत संभालने के लिए वह राजनीति में उतरे। राम विलास ने उन्हें पार्टी के संसदीय दल का प्रमुख बना कर सारे राजनीतिक अधिकार सौंप दिए। पिता की क्षत्रछाया में वह 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव जीते। लेकिन उनकी मुश्किलें तब शुरू हुईं जब 2020 में विधानसभा चुनावों से पहले राम विलास पासवान की मृत्यु हो गयी। चिराग़ की राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ चुकी थी, इसलिए उन्होंने विधान सभा चुनावों में ज़्यादा सीटों की माँग करके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से अपनी पार्टी को अलग करके 136 सीटों पर अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया।
त्रिमूर्ति युग का अंत?
1974 के बिहार छात्र आंदोलन से तीन सशक्त युवा नेता उभरे जिन्होंने बिहार की राजनीति के चेहरे को बदल दिया। इनमें सबसे मज़बूत नेता थे लालू प्रसाद यादव। यादव ने बिहार की राजनीति पर सवर्ण दबदबा को तोड़ कर पिछड़े और मुसलमानों का एक नया गठजोड़ तैयार किया जिसके बूते पर क़रीब 15 सालों तक सत्ता पर उनका क़ब्ज़ा रहा। लालू ने बिहार की राजनीति पर सवर्ण ख़ासकर ब्राह्मण दबदबा के साथ ही कांग्रेस को हासिये पर तो पहुँचा दिया लेकिन धीरे-धीरे उनकी राजनीति यादव और मुसलमान तक सिमट कर रह गयी। और तब ग़ैर यादव पिछड़ों के नेता के रूप में नीतीश कुमार खड़े हुए।
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चिराग़ से कहाँ चूक हुई?
चिराग़ पासवान ज़मीनी नेता नहीं हैं। राम विलास पासवान ने उन्हें पार्टी का नेता तो बना दिया लेकिन वह बिहार की राजनीति समझने से चूक गए। काशीराम ने मायावती को आगे करके उत्तर प्रदेश में दलितों की लड़ाई लड़ी, जिसके चलते दलित संगठित हुए और मायावती अपने बूते पर दलितों के नेता के तौर पर उभरीं। राम विलास पासवान ने दलितों की कोई लड़ाई नहीं लड़ी। उससे उलट नीतीश ने अति दलितों के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए। जीतन राम माँझी को अपनी जगह मुख्यमंत्री बनने का मौक़ा भी दिया।
ज़मीनी हक़ीक़त को समझे बिना चिराग़ ने नीतीश से बैर मोल ले लिया, जिससे विधानसभा चुनावों में उनको बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा।
कैसे बदलेगी बिहार की राजनीति?
2020 के विधानसभा चुनावों में सबसे ज़्यादा 75 सीटें जीत कर लालू के बेटे तेजस्वी यादव ने साबित कर दिया है कि वह लालू की विरासत सम्भालने में सक्षम हैं। नीतीश के बेटे राजनीति से दूर हैं और उनकी पार्टी में ऐसा कोई नेता अभी तक नहीं है जो उनकी विरासत संभाल सके। चिराग़ की पार्टी में बग़ावत और नए बनते राजनीतिक समीकरण का फ़ायदा उठाने के लिए बीजेपी पहले से ही तैयार बैठी है। कांग्रेस का ओज ख़त्म होने के बाद सवर्ण पूरी तरह से बीजेपी की शरण में हैं। उपेन्द्र क़ुशवाहा और मुकेश सहनी के ज़रिए बीजेपी अति पिछड़ों को साधने की कोशिश में लंबे समय से लगी है। नीतीश के बाद पिछड़ों या अति पिछड़ों का कोई बड़ा चेहरा नहीं है। पशुपति से बीजेपी या नीतीश को कोई ख़तरा नहीं है। भविष्य में बीजेपी के सामने एक मात्र चुनौती तेजस्वी यादव दिखाई दे रहे हैं। सवर्ण, अति पिछड़ा, दलित और अति दलित एका के ज़रिए बीजेपी को एक नयी ज़मीन मिल सकती है। चिराग़ पासवान की राजनीतिक कमज़ोरी का सबसे बड़ा फ़ायदा बीजेपी को ही होता दिखाई दे रहा है।
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