बिहार में एनडीए में शामिल दलों के बीच सीटों का बँटवारा हो गया। इस बँटवारे के बाद एक बड़ी अजीब बात देखने को मिली। देश की सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी ने इस बार बिहार के आधे से अधिक इलाक़े से दावेदारी छोड़ दी है। इनमें कोसी, मगध और अंग का बड़ा हिस्सा है। बीजेपी ने रणनीतिक तरीक़े से ख़ुद को भोजपुर, पुराने तिरहुत जिले और चम्पारण में सीमित कर लिया है। आख़िर देश की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी को बिहार जैसे राजनीतिक रूप से उर्वर राज्य में यह फ़ैसला लेने के लिए क्यों विवश होना पड़ा, यह जानना दिलचस्प हो सकता है।
आज बिहार के सभी अख़बारों में एनडीए की सीटों के फ़ाइनल बँटवारे की ख़बर छपी है। दैनिक भास्कर अख़बार ने इस पूरे बँटवारे को नक्शे में समझाया है। इस नक्शे को आप देखेंगे तो पाएँगे कि राज्य में बीजेपी की मौजूदगी पूरे पूर्वी इलाक़े से ग़ायब है और ख़ुद को यूपी से सटे इलाक़े में केंद्रित कर लिया है, जबकि उचित यह था कि वह पूरे बिहार से अलग-अलग इलाक़ों से लड़ती।
भले ही गठबंधन की वजह से बीजेपी को 17 सीटों पर ही लड़ना है, मगर पार्टी के कार्यकर्ता और समर्थक मानते हैं कि उसे अलग-अलग इलाक़ों में अपना प्रतिनिधित्व बनाकर रखना चाहिए था।
मगर दिलचस्प है कि मगध, कोसी, अंग के बड़े इलाक़े में जिनमें 18 महत्वपूर्ण सीटें हैं, उनमें बीजेपी सिर्फ़ 2 सीटों से चुनाव लड़ने जा रही है, ये सीटें हैं - अररिया और औरंगाबाद। शेष 16 सीटें उसने अपने सहयोगियों जद(यू) और लोजपा के लिए छोड़ दी हैं। वहीं, भोजपुर की सात सीटों में से 5 पर, तिरहुत और चम्पारण के इलाक़े में ज़्यादातर सीटों पर बीजेपी मौजूद नज़र आती है।
मुसलिम, दलितों से डरी बीजेपी!
सीटों के बँटवारे में एक खास बात यह भी नज़र आती है कि बीजेपी ने खासकर उन इलाक़ों से चुनाव लड़ने को तरजीह दी है, जो यूपी से सटे हैं और जिन पर सवर्णों का थोड़ा-बहुत दबदबा है। जिन इलाक़ों में मुसलिम, दलित, पिछड़ी जातियों का प्रभाव है, वहाँ से वह चुनाव लड़ने से बच रही है और अपने सहयोगियों को वे सीटें दे दी हैं।
इस मामले में कोसी का इलाक़ा परफ़ेक्ट उदाहरण है। यहाँ की सात सीटों में जिनमें मुसलिमों और यादवों का बड़ा प्रभाव है, वहाँ बीजेपी ने सिर्फ़ एक सीट - अररिया पर अपना उम्मीदवार दिया है। जबकि 2014 में उसने छह सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे। मोदी की लहर के उस दौर में भी ये छह उम्मीदवार पराजित हो गए। संभवतः इसी वजह से बीजेपी इस बार इस इलाक़े में रिस्क नहीं ले रही है।
अंग क्षेत्र की सबसे महत्वपूर्ण सीट भागलपुर पर भी बीजेपी को 2014 में हार का मुंह देखना पड़ा था। सैयद शाहनवाज हुसैन जैसे नेता मोदी लहर में पराजित हो गए थे। रही बात मगध की तो वह जदयू और नीतीश का इलाक़ा माना ही जाता है।
रोचक बात यह भी है कि जिन इलाक़ों में इस बार बीजेपी लड़ने से बच रही है वह ऐतिहासिक रूप से व्रात्यों का इलाक़ा है। इनमें बुद्ध और दूसरे आर्य विरोधी चिंतकों का प्रभाव रहा है। जबकि भोजपुर और तिरहुत में आर्यों का गहरा प्रभाव रहा है। आज भी इन इलाक़ों में सवर्णों का प्रभुत्व दिखता है। लंबे अनुभव के बाद बीजेपी ने यह महसूस किया है कि वह उन्हीं इलाक़ों में जीत सकती है जहाँ आर्यों और ख़ासकर सवर्णों का दबदबा दिखता है।
एक रणनीति यह भी है कि सहयोगी दल जद(यू) को मुसलमानों के कुछ वोट मिल सकते हैं। क्योंकि बीजेपी के साथ रहते हुए भी वह अक्सर धर्मनिरपेक्षता और मुसलिमों के पक्ष की बातें करती है। इसलिए उसने कुछ सीटों पर मुसलिम उम्मीदवारों को उतारने की तैयारी की है। हालाँकि जद(यू) के मुसलिम उम्मीदवार, पार्टी को मुसलमानों के कितने वोट दिला पाएँगे, यह कहना मुश्किल है। मगर जहाँ राज्य का यादव वोटर राजद के पक्ष में है, जद(यू) ज़रूर कुछ अति पिछड़ों का वोट हासिल कर सकती है।
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