पिछले कई महीनों से इस तरह की आशंका बिहार में थी कि बीजेपी कोई सियासी तिकड़म लगाकर राज्य में सरकार बना सकती है। इसे देखते हुए जेडीयू के मुखिया नीतीश कुमार ने आरजेडी के साथ नज़दीकियां बढ़ाना शुरू कर दिया था। चाहे इफ्तार पार्टी का मामला हो या फिर विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव का नीतीश कुमार से आकर अकेले में मुलाकात करना या फिर नीतीश कुमार का केंद्र सरकार के कार्यक्रमों से दूरी बनाना, इससे साफ पता चल रहा था कि नीतीश अब जल्द ही बीजेपी का साथ छोड़ने वाले हैं। अंत में नीतीश ने गठबंधन तोड़ ही दिया।
ऐसा नहीं था कि बीजेपी इसे भांप नहीं पाई थी। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कुछ दिन पहले पटना में ही इस बात को कहा था कि 2024 और 2025 का चुनाव बीजेपी और जेडीयू मिलकर लड़ेंगे। उन्होंने ऐसा कहकर नीतीश को मनाने की कोशिश की थी।
लेकिन तब तक शायद काफी देर हो चुकी थी और नीतीश कुमार ने इस बात का मन बना लिया था कि वह महागठबंधन के साथ मिलकर बिहार के अंदर सरकार चलाएंगे।
दबाव में थे नीतीश
2020 में बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही नीतीश कुमार दबाव में थे। इसकी वजह थी जेडीयू का बेहद खराब प्रदर्शन। 2015 की 71 सीटों के मुकाबले 2020 में जेडीयू सिर्फ 43 सीटों पर आकर सिमट गई थी। इसके बाद बीजेपी में नीतीश के दोस्त समझे जाने वाले सुशील मोदी को बिहार बीजेपी ने किनारे लगाया और दो नेताओं को उप मुख्यमंत्री बना दिया। इसे नीतीश कुमार के हाथ बांधने की तरह देखा गया। तब कैबिनेट विस्तार में भी देरी हुई थी और इसे लेकर सवाल उठे थे।
सूत्रों के मुताबिक, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जिस तरह बिहार बीजेपी का काम देख रहे थे और नीतीश सरकार में जिस तरह उन्होंने बीजेपी के मंत्रियों का चयन किया उससे नीतीश कहीं न कहीं असहज महसूस कर रहे थे।
इस सब के बाद जब जेडीयू ने आरसीपी सिंह को राज्यसभा में नहीं भेजा तो यह कहा गया कि आरसीपी सिंह की बीजेपी नेताओं से नजदीकी को लेकर नीतीश कुमार नाराज हैं।
शिवसेना की बग़ावत
जून के महीने में महाराष्ट्र में महा विकास आघाडी सरकार में शामिल शिवसेना के अंदर बड़ी बगावत हुई। इस बगावत के सूत्रधार मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के सबसे करीबी एकनाथ शिंदे ही बने। इस बगावत के बाद ऐसी चर्चा उठी कि बीजेपी की नजर अब बिहार पर है। जहां वह जेडीयू व कांग्रेस के विधायकों में सेंध लगा कर राज्य में अपने दम पर सरकार बनाने का दावा पेश करेगी।
क्योंकि आरसीपी सिंह बीजेपी के संपर्क में थे इसलिए पहले जेडीयू ने आरसीपी सिंह के करीबियों को हटाया और फिर उनके द्वारा अर्जित किए गए प्लॉटों का मुद्दा उठाते हुए उनसे सफाई मांगी। इसके जवाब में आरसीपी सिंह ने इस्तीफा दे दिया। जेडीयू को लगता था कि आरपीसी सिंह उसके लिए एकनाथ शिंदे साबित हो सकते हैं।
पुराना है साथ
बीजेपी और नीतीश का साथ पुराना है। 1995 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी के हाथों हार मिलने के बाद नीतीश कुमार की अगुवाई वाली समता पार्टी ने 1996 में बीजेपी के साथ गठबंधन किया था। इसके बाद समता पार्टी जेडीयू में शामिल हो गई लेकिन बीजेपी के साथ उसका गठबंधन बना रहा।
बीजेपी के सहयोग से ही नीतीश कुमार साल 2000 में पहली बार मुख्यमंत्री बने हालांकि तब यह कार्यकाल सिर्फ 7 दिन का ही रहा। लेकिन 2005 और 2010 में वह बीजेपी के सहयोग से फिर से मुख्यमंत्री चुने गए।
बिहार में बीजेपी का मुख्यमंत्री
2013 में नीतीश के बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ने से पहले और 2017 में फिर से गठबंधन करने के बाद बिहार बीजेपी के नेताओं के मन में यह सियासी महत्वाकांक्षा पनप चुकी थी कि राज्य में अब मुख्यमंत्री जेडीयू का नहीं बीजेपी का होना चाहिए। कई नेताओं ने इस महत्वाकांक्षा को खुलकर सामने भी रखा। लेकिन बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व जानता था कि नीतीश कुमार के बिना राज्य में सरकार बनाना बेहद मुश्किल है।
ऐसे में जब 2020 के विधानसभा चुनाव में नीतीश की सीटें काफी कम हो गईं तो बीजेपी के नेताओं की सियासी महत्वाकांक्षाओं ने एक बार फिर कुलांचे मारना शुरू किया। उन्हें उम्मीद थी कि अब राज्य में बीजेपी का मुख्यमंत्री बनेगा लेकिन उनकी हसरत पूरी नहीं हुई। हालांकि बिहार में बीजेपी का मुख्यमंत्री बनाने के लिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह लगातार सक्रिय रहे। इस क्रम में मुकेश सहनी की वीआईपी के 3 विधायकों को भी बीजेपी में शामिल कराया गया।
सियासी जानकारों के मुताबिक, नीतीश कुमार को यह समझ आ गया था कि शिवसेना के साथ लंबे वक्त तक सत्ता में रहने वाली बीजेपी जब उसके घर में सेंध लगा सकती है तो वह जेडीयू में ऐसा करने से हिचकेगी नहीं। ऐसे हालात में शायद नीतीश कुमार ने जेडीयू की राजनीति को बचाने के लिए बीजेपी से अपनी राहें अलग करने का फैसला ले लिया है।
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