बिहार के मुख्यमंत्री को शायद समझ में नहीं आया कि लम्बे समय तक शासन में रहने के अपरिहार्य दोष के रूप में पैदा हुए सामंती अहंकार का विस्तार लोकप्रियता के उल्टे अनुपात में होता है। नीतीश कुमार और नवीन पटनायक दो ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो जनता से मिलने, संकट के समय उनके प्रति हमदर्दी दिखाने और तात्कालिक जन-समस्याओं का त्वरित समाधान करने में कतई विश्वास नहीं रखते।
इसे सामंती अहंकार-जनित अकर्मण्यता भी माना जा सकता है जिसके दुष्परिणामों ने पटनायक को अभी तक इसलिए बख्शा क्योंकि वहां चिर-ग़रीबी से पैदा होने वाली सामूहिक चेतना में सत्ता के ख़िलाफ़ खड़े होने की ताब (गर्मी) पैदा न हो सकी। ना ही बिहार में लालू प्रसाद-तेजस्वी या सीपीआई-माले या अन्य जातिवादी नेता खड़े हो सके।
लेकिन बिहार में लालू-ब्रांड राजनीति ने गैर-सवर्ण जातियों, खासकर यादवों में जहां सशक्तिकरण की झूठी चेतना विकसित की, वहीं माले आदि ने निचले समाज की तार्किक सोच विकसित करने में कुछ हद तक मदद की।
आइए, कुछ तथ्य देखें जिन्होंने धीरे-धीरे नीतीश के प्रति जनाक्रोश को आज के मकाम पर पहुंचाया।
मक्के की ख़रीद क्यों नहीं?
लगभग 81 फीसदी आबादी के कृषि पर आधारित होने के बाद बिहार देश का सबसे बड़ा मक्का उत्पादक (30 फीसदी) राज्य भी है। ठीक चुनाव के वक्त मक्के का बाज़ार भाव 900-1100 रुपये प्रति कुंतल है जबकि जानवरों के चारे में इस्तेमाल होने वाले भूसे की कीमत 1500 रुपये प्रति कुंतल है। उदासीनता का यह आलम है कि 1700 रुपये प्रति कुंतल की दर से मक्का खरीदने के केंद्र के फैसले के बावजूद राज्य सरकार इसकी ख़रीद नहीं कर रही है।
जुझारू व्यक्तित्व वाला कोई भी मुख्यमंत्री चुनाव के दौरान किसानों को खुश करने के लिए दिन-रात एक कर मक्के की ख़रीद कर देता। लेकिन राज्य के मुख्यमंत्री इसे अपनी सामंती-उपेक्षा के तहत नज़रअंदाज करते रहे। बिहार में वैसे भी भ्रष्टाचार के कारण सरकारी गोदाम पर ख़रीद अन्य राज्यों के मुक़ाबले बेहद कम होती है और किसान हर फसल के बाद उसे कम कीमत पर बेचने को मजबूर होता है।
कानून के बारे में मशहूर कहावत है कि इसे तब तक न लायें जब तक इसका अनुपालन करवाने की पूरी क्षमता वाला सिस्टम न विकसित हो। गुजरात की तरह शराबबंदी कानून बना कर और उसे नामुमकिन-उल-अम्ल सख्ती दे कर बिहार के मुख्यमंत्री ने समझा कि अब महिलाओं का समर्थन और चुनाव में वोट मिल जायेंगे ताकि सहयोगी बीजेपी को जब-तब आंखें दिखाते रहेंगे। लेकिन हुआ इसके ठीक उलटा।
चूहे पी गए शराब!
भ्रष्ट तंत्र (जो लहर गिनने में भी पैसा उगाह लेता है) को कारु का खजाना मिल गया। एक थाने में एक ट्रक शराब पकड़ी गयी लेकिन जब मामला अदालत पहुंचा तो पता चला कि सैंपल लेने तक के लिए भी बोतल थाने में नहीं है। थाने का जवाब था “सब चूहा नू पी गया सर।” लेकिन सीएम की तरफ से कोई उद्विग्नता नहीं दिखी।
शराबबंदी से बढ़ा अपराध
उधर, आसपास के राज्यों से शराब लाने पर अच्छा मुनाफा कमाने की होड़ में 12-16 साल के बच्चे इस धंधे में लगाये गये हैं। ये बच्चे गलत धंधे से हासिल आर्थिक मजबूती के बाद सहज में उपलब्ध पिस्तौल खरीदते हैं और इलाके में दबदबा बनाने के लिए बैंक डकैती कर रहे हैं या फिरौती लेकर लोगों की हत्या करने लगे हैं। वह पत्नी जो पहले शराबबंदी से खुश हुई थी अब बेहद दुखी है क्योंकि अब शराबी पति ने घर में ही मयखाना बना रखा है और मारपीट करता है। शराब के रेट आसमान पर होने से घर में पत्नी और बच्चों को खाने की कमी हो गयी है।
एक व्यक्ति सरकार के दो विभागों में पिछले 29 सालों से काम कर रहा था (बाकायदा प्रमोशन भी पाता रहा) और कई बार एक जिले के दो विभागों में रहा और कई बार उसकी तैनाती उन दो जिलों में हुई जो एक-दूसरे से 300 किलोमीटर दूर थे। ईश्वर ने मानव को अभी तक यह सलाहियत नहीं दी कि वह एक ही समय दो जगह उपस्थित रहे लेकिन बिहार में इस प्रतिभावान व्यक्ति ने 29 साल तक इसे संभव कर दिखाया।
संवेदनहीन नीतीश!
मुज़फ्फरपुर में “चमकी” बुखार हुआ तो सरकार पहले डिनायल मोड में आयी और “ग़रीबी” और “ग़रीब बच्चों की खाली पेट लीची खाने की लापरवाही” जैसी नयी खोज से अपनी निष्क्रियता को न्यायोचित ठहराया लेकिन जब दिल्ली की टीम ने इसे इनसेफेलाइटिज करार दिया तो 105 बच्चों के मर जाने के बाद मुख्यमंत्री जिले में पधारे। लोगों का गुस्सा चरम पर था। जिन्होंने बताया कि जो पानी का टैंक खड़ा है वह सीएम साहेब के लिए (पहली और शायद अंतिम बार) आया है।
इसी दौरान भ्रष्ट कर्मचारियों ने उन “किसानों” से गेहूं खरीदा जिनके पास एक बीघा भी ज़मीन नहीं थी या बाढ़ का मुआवजा एक ही परिवार के पिता, पुत्र, बहू, बेटी सभी को अलग परिवार मान कर दिया गया जबकि ग़रीब लाभार्थी इससे वंचित रहे।
मुख्यमंत्री ने इस सिस्टम को कम से कम कुछ दिनों के लिए ही सही दुरुस्त करने का कोई उपक्रम नहीं किया। एक नहीं तीन अवसरों पर मुख्यमंत्री के उद्घाटन के चंद घंटे पहले पुल गिर गया लेकिन सीएम ने ठेकेदारों के ख़िलाफ़ किसी सख्ती का संदेश नहीं दिया।
जब चुनाव हो और बेरोज़गारी असामान्य रूप से 45 फीसदी हो, प्रवासी मज़दूर घर लौटने पर रोटी को मोहताज़ हों तो क्या मुख्यमंत्री को बेचैन नहीं होना चाहिए?
प्रवासियों की उपेक्षा
ध्यान रहे कि प्रवासी मजदूर जब पैदल अपने मूल निवास स्थानों की ओर चले तो जिस मुख्यमंत्री ने लगातार तीन सप्ताह तक इस पलायन का विरोध किया और “जहां हैं वहीं रहें” की नीति अपनाई, वह राज्य बिहार था। यह उपेक्षा इन लाखों प्रवासियों को सालों सालती रहेगी क्योंकि उन्हें मालूम था कि उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों के मुख्यमंत्री पूरी दिलचस्पी लेते हुए प्रवासियों को घर तक पहुंचाने के लिए बसें भेज रहे थे।
दो साल पुराने आंकड़ों के हिसाब से अगर आप बिहार में पैदा हुए हैं तो वहां की सरकार आपके स्वास्थ्य पर सालाना मात्र 338 रुपये खर्च करेगी जबकि हिमाचल, उत्तराखंड या केरल में पैदा हुए हैं तो क्रमशः इसका छह गुना, पांच गुना और चार गुना खर्च करेगी। इसका दूसरा मतलब यह कि उपयुक्त सरकारी सुविधा के अभाव में आप बिहार, उत्तर प्रदेश या झारखंड में गरीब होते हुए भी अपनी जेब से इस आंकड़े का पांच गुना खर्च करेंगे भले ही इसके लिए आपको घर या जमीन बेचनी पड़े।
जैसे मोदी-वैसे नीतीश?
आत्म-मुग्धता राजनीति में तब अपनी ही शत्रु बन जाती है जब आलोचना की खिड़कियां बंद कर दी जाएं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तरह नीतीश भी एकल नेतृत्व के फ़ॉर्मेट में भरोसा रखते हैं लिहाज़ा द्वितीय और तृतीय स्तर के नेता विकसित करना तो छोड़िये, कैडर से मिलना तक इनकी डिक्शनरी में नहीं होता। लिहाज़ा, जेडीयू में आज कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो नीतीश के प्रति नाराजगी पर अपने को प्रोजेक्ट कर इस नाराजगी को कम कर सके।
एफपीटीपी सिस्टम में चुनाव जीतना या “हार के बाद” जुगाड़ से सत्ता हासिल करना एक कला हो सकती है लेकिन लोकप्रियता क्यों कम होने लगती है इसके विज्ञान से गाफिल रहना अच्छे नेता की पहचान नहीं होती।
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