हिंदी के महान कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी “मारे गए गुलफाम” पर आधारित एक फ़िल्म बनी, नाम था- तीसरी कसम। 1966 में बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म का संवाद बिहार के फारबिसगंज के औराही हिंगना गांव में जन्मे रेणु ने खुद लिखा था। बिहार विधानसभा चुनाव के आखिरी चरण में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राज्य के उसी अंचल के पूर्णिया जिले में मंच से तीसरी कसम खाई है कि यह उनका आखिरी चुनाव है।
राज्य का चुनाव इस समय बहुत दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गया है। बीजेपी-जेडीयू गठबंधन में जगह-जगह पर वैचारिक टकराव के साथ तालमेल की कमी नजर आ रही है। वहीं, आरजेडी-कांग्रेस-वामदलों का गठजोड़ पूरे दमखम के साथ मैदान में है।
नीतीश का कामकाज
नीतीश कुमार इस चुनाव में फंसे नजर आ रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि नीतीश एक साफ-सुथरी, बेहतर कानून व्यवस्था वाली सरकार देने में कामयाब रहे हैं। नीतीश के हाथों में जब बिहार आया था तो राज्य सरकार के तकरीबन हर विभाग में छह महीने या साल भर से कर्मचारियों को वेतन नहीं मिलता था। कानून व्यवस्था बहुत नाजुक दौर से गुजर रही थी। रोजगार के लिए बड़े पैमाने पर विस्थापन हो रहे थे।
नीतीश सरकार ने महिलाओं के लिए राजनीति से लेकर सरकारी नौकरियों में अलग से आरक्षण का प्रावधान कर उन्हें नौकरियां दीं। पढ़ाई-लिखाई पटरी पर आई, खासकर लड़कियों की शिक्षा पर इसका बहुत सकारात्मक असर पड़ा।
लोगों की अपेक्षाएं बढ़ीं
नीतीश के 15 साल के लंबे शासन के बाद लोगों की अपेक्षाएं बढ़ी हैं। नीतीश 6 महीने बाद वेतन मिलने की स्थिति को बदलकर 2 या 3 महीने में वेतन देने में कामयाब हुए। अध्यापकों को पढ़ाने पर 25,000 रुपये महीने मिलने लगे। महिलाओं को तमाम विभागों में काम मिला और उन्हें 10,000 रुपये से ऊपर वेतन मिलने लगा। अब वे परिवार के खर्च में आंशिक योगदान करने लगीं।
देखिए, बिहार चुनाव पर चर्चा-
तेजस्वी का वादा
इन परिस्थितियों में विपक्षी नेता तेजस्वी यादव ने 10 लाख बेरोजगारों को रोजगार देने का वादा करके मतदाताओं को लुभाने की कवायद की है। लंबे समय से नीतीश के शासन के बाद अब संभवतः लोगों को तेजस्वी में उम्मीद की किरण नजर आ रही है।
बिहार में भले ही जेडीयू का बीजेपी के साथ गठजोड़ रहता है, लेकिन राज्य के अल्पसंख्यकों, खासकर पसमांदा मुसलमानों में नीतीश की अच्छी-खासी लोकप्रियता रही है और यह तबका जेडीयू के लिए मतदान करता रहा है।
पिछड़ी व अनुसूचित जातियों में भी सबसे ज्यादा उपेक्षित तबके को न सिर्फ बेहतर कानून व्यवस्था का लाभ मिला, बल्कि जेडीयू उनकी अपनी पार्टी बनकर उभरी। नीतीश ने उन्हें गांव, जिला और राज्य स्तर तक प्रतिनिधित्व देने की कवायद की और यह तबका पार्टी का मजबूत वोट बैंक बन गया।
इमोशनल दांव?
भयानक महंगाई, कोरोना की आफत, बीजेपी को लेकर अल्पसंख्यकों के डर के बीच हमलावर विपक्ष के लुभावने नारों ने नीतीश के इस वोट बैंक को प्रभावित करने में कुछ हद तक कामयाबी हासिल कर ली है। ऐसे में नीतीश ने भावनात्मक रूप से जुड़े रहे अपने इस वोट बैंक को लुभाने के लिए इमोशनल दांव चल दिया है।
नीतीश कुमार के बारे में कहा जाता रहा है कि उन्हें लेकर कोई अनुमान लगाना मुश्किल है। बिहार के लोकप्रिय नेता लालू प्रसाद यादव ने एक बार कहा था कि नीतीश के पेट में दांत है।
योगी को दिया जोरदार जवाब
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जब एक जनसभा में पाकिस्तान और बांग्लादेश के प्रताड़ित हिंदुओं को भारत लाने और भारत में आए घुसपैठियों को बाहर निकालने की बात कही तो नीतीश ने उसे ‘फालतू बात’ कहकर खारिज कर दिया। पिछले साल के आखिर में देश में सीएए-एनआरसी के मुद्दे पर विवाद चल रहा था और देश भर में विरोध प्रदर्शन हो रहे थे। 25 फरवरी, 2020 को बिहार विधानसभा में सर्वसम्मति से एनआरसी को लागू नहीं करने का प्रस्ताव पारित हुआ था।
चुनाव प्रचार के आखिरी चरण में पूर्णिया में आयोजित एक जनसभा के दौरान नीतीश ने घोषणा कर दी - “यह मेरा आखिरी चुनाव है, अंत भला तो सब भला।” नीतीश अपने इस बयान के माध्यम से मतदाताओं को इमोशनल ब्लैकमेल करते नजर आते हैं। मंच से जाते-जाते उन्होंने यह शब्द कहे। विपक्षी दल और राजनीतिक विश्लेषक इस बयान की तरह-तरह से व्याख्या कर रहे हैं।
जेडीयू, आरजेडी का हमला
चिराग पासवान के नेतृत्व वाली लोकजनशक्ति पार्टी ने तंज कसते हुए ट्वीट किया, ‘नीतीश के संन्यास लेने के बयान से जेडीयू के नेताओं में हड़कंप है। जेडीयू के कई नेता अब बेरोजगार हो गए हैं।’ आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने कहा, ‘हम लंबे समय से कह रहे हैं कि नीतीश कुमार पुराने पड़ गए हैं और वे बिहार को संभाल नहीं पा रहे हैं। अब चुनाव प्रचार के अंतिम दिन उन्होंने एलान किया है कि वह राजनीति से संन्यास ले रहे हैं, शायद वह जमीनी हक़ीक़त को समझ गए हैं।’
बात से पलट गए नीतीश
नीतीश कुमार की इमोशनल ब्लैकमेलिंग की यह कवायद नई नहीं है। उनके पुराने सहयोगी रहे और अब आरजेडी के नेता शिवानंद तिवारी बताते हैं कि उन लोगों ने लालू यादव से अलग होकर जार्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में 14 सांसदों के साथ जनता दल (ज) बनाया, जो बाद में समता पार्टी बनी। बड़ी उम्मीदें थीं कि समता पार्टी की सरकार बनेगी, लेकिन 1995 के चुनाव में नीतीश कुमार सहित सिर्फ 7 लोगों को बिहार विधानसभा चुनाव में जीत मिली।
इसके बाद पटना के गांधी मैदान में बड़ी जनसभा हुई। इसमें नीतीश कुमार ने एलान किया, ‘मैं बिहार में खूंटा गाड़कर बैठूंगा और लालू प्रसाद के ख़िलाफ़ संघर्ष करूंगा।’ लेकिन नीतीश ने विधानसभा से इस्तीफा दे दिया और लोकसभा की सदस्यता बनाए रखी। नीतीश कुमार अपने बयान पर कुछ महीने भी कायम नहीं रह सके।
इसी तरह नीतीश कुमार जब बीजेपी से अलग हुए थे तब भी उन्होंने कसम खाई थी। बिहार विधानसभा में उन्होंने बड़े दावे के साथ कहा था - ‘किसी भी परिस्थिति में लौटकर जाने (बीजेपी के साथ) का प्रश्न ही नहीं उठता, हम रहें या मिट्टी में मिल जाएं, आप लोगों के साथ भविष्य में कोई समझौता नहीं हो सकता...असंभव, नामुमकिन... अब वह चैप्टर खत्म हो चुका है।’
नीतीश कुमार की यह दूसरी महत्वपूर्ण कसम थी। उसके बाद नीतीश आरजेडी के साथ आए। उन्होंने कुछ महीने तक सरकार चलाई और फिर बीजेपी से जाकर मिल गए।
अब नीतीश ने ‘तीसरी कसम’ खाई है कि यह उनका अंतिम चुनाव है। फ़िल्म तीसरी कसम का नायक हीरामन निहायत भोला-भाला है। वह फंसता है और कसमें खाता है। नायिका हीराबाई को वह अपनी प्रेमिका मान लेता है और जब वह उससे भी धोखा खाया महसूस करता है तो उसके हिलते होठों से लगता है कि वह ‘तीसरी कसम’ खा रहा है। चुनाव परिणाम ही अब तय करेंगे कि नीतीश कुमार जिस तरह चौतरफा फंसे हैं, उनकी ‘तीसरी कसम’ को जनता किस रूप में लेती है।
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