बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विधानसभा चुनाव के लिए एक नए जातीय गणित की तैयारी कर रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण ये है कि लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के सर्वेसर्वा बन चुके चिराग पासवान उन्हें लगातार चुनौती दे रहे हैं। चिराग पासवान प्रवासी मज़दूरों के साथ राज्य सरकार के व्यवहार और कोरोना से लड़ने के इंतज़ाम से लेकर कई मुद्दों पर सरकार की आलोचना कर चुके हैं।
राजनीतिक हलकों में माना जा रहा है कि ये विधानसभा चुनाव में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें लेने की पेशबंदी है। लेकिन ये भी आशंका व्यक्त की जा रही है कि चुनाव तक अगर स्थितियां राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के ख़िलाफ़ जाती दिखीं तो एलजेपी को पाला बदलने में कोई संकोच नहीं होगा। इसे देखते हुए नीतीश कुमार एक वैकल्पिक रणनीति तैयार रखना चाहते हैं।
श्याम रजक का जाना
जीतन राम मांझी का एनडीए की तरफ़ हाथ बढ़ाना और श्याम रज़क का जनता दल (यूनाइटेड) जेडीयू से निकल कर राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) में जाना इसका एक बड़ा संकेत है। रज़क आरजेडी छोड़ कर ही नीतीश के साथ आए थे। नीतीश ने उन्हें उद्योग मंत्री बनाकर मांझी से ज़्यादा बड़ा चेहरा बनाने की कोशिश की। लेकिन उनका क़द इतना बड़ा नहीं बन पाया कि वे रामविलास पासवान और उनके पुत्र चिराग पासवान को चुनौती दे सकें।
एक बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के कारण जीतनराम मांझी बड़े नेता बन चुके हैं। जैसे ही मांझी के एनडीए में आने की ख़बर आई, श्याम रज़क बाग़ी हो गए।
तय समय पर चुनाव चाहते हैं नीतीश
बिहार विधानसभा का कार्यकाल नवंबर में पूरा हो रहा है। चिराग पासवान के साथ-साथ विपक्ष और आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव भी कोरोना संक्रमण के कारण चुनाव को आगे बढ़ाने की माँग कर रहे हैं। लेकिन नीतीश कुमार चुनाव तय समय यानी अक्टूबर/नवंबर में ही कराना चाहते हैं। सरकार में उनकी सहयोगी बीजेपी भी इस मुद्दे पर फ़िलहाल उनके साथ दिखाई दे रही है।
चुनाव टाले जाने पर नीतीश को एक बड़ा नुक़सान होगा। विधानसभा का कार्यकाल ख़त्म होने पर सरकार नहीं रहेगी और राष्ट्रपति शासन लागू हो जाएगा। ऐसे में चुनाव की कमान बीजेपी के हाथों में चली जाएगी। वैसे तो बीजेपी घोषणा कर चुकी है कि चुनाव नीतीश के नेतृत्व में ही होगा, फिर भी नीतीश ये जोखिम नहीं उठा सकते।
बीजेपी में नीतीश के विरोधियों की भी लंबी क़तार है और राष्ट्रपति शासन लगते ही विरोधी उन्हें कमज़ोर करने की कोशिश कर सकते हैं।
नीतीश की पार्टी जेडीयू अभी बिहार एनडीए में सबसे बड़ी पार्टी है। दूसरे नंबर पर बीजेपी और तीसरे नंबर पर चिराग पासवान की पार्टी एलजेपी आती है।
नीतीश 2015 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी गठबंधन के साथ लड़े थे। गठबंधन में उनके खाते में विधानसभा की 243 में से 101 सीटें आई थीं। उनकी पार्टी 71 सीटों पर जीती थी जबकि आरजेडी 101 सीटों पर लड़कर 81 सीटों पर जीती थी। नीतीश, आरजेडी और कांग्रेस की सरकार भी बनी लेकिन बाद में नीतीश अलग हो गए और बीजेपी के साथ सरकार बना ली।
बीजेपी नहीं चाहती टकराव
एनडीए में वापस लौटते ही बीजेपी को नई ताक़त मिल गयी। 2019 के लोकसभा चुनावों में एनडीए ने 40 में से 39 सीटें जीती। 2015 के विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी समझ गयी कि उसका असर शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित है। 2015 में उसे 53 सीटें मिलीं थीं जिनमें 27 शहरी क्षेत्र की सीटें हैं। इसलिए बीजेपी नीतीश से टकराव मोल नहीं ले सकती।
2015 में एलजेपी 42 सीटों पर लड़ी लेकिन जीती सिर्फ़ दो सीटों पर। ज़ाहिर कि एलजेपी 2020 के चुनाव में भी कम से कम 42 सीटों पर अपना दावा बरक़रार रखना चाहती है। एलजेपी के कुछ नेता सौ से ज़्यादा सीटों पर लड़ने का दावा भी कर रहे हैं।
चिराग पासवान के तीख़े बयानों के पीछे सबसे बड़ा कारण ज़्यादा से ज़्यादा सीटें हासिल करना ही लगता है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बयानों के ज़रिए दबाव बनाकर ही एलजेपी ने लोकसभा की 6 सीटों के साथ रामविलास पासवान के लिए राज्यसभा की सीट पक्की कर ली थी।
जीतन राम मांझी को एनडीए में लाकर नीतीश एक तरह से पासवान परिवार को क़ाबू में रखना चाहते हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी, एलजेपी, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) का गठबंधन फ़ेल हो गया था और मोदी लहर भी बेअसर रही थी।
नीतीश में दम है क्योंकि उन्हें अति पिछड़ों और अति दलितों के साथ सवर्ण हिंदू और मुसलमानों के एक वर्ग का भी समर्थन मिल जाता है। मांझी भी अति दलितों के नेता हैं जबकि पासवान अपेक्षाकृत समृद्ध दलितों के नेता हैं। नीतीश के लिए मांझी बेहतर राजनीतिक साथी साबित होंगे।
2014 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू की हार के बाद नीतीश ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देकर मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था। बाद में मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने पर मांझी बाग़ी हो गए। मांझी की वापसी असल में चिराग पासवान के लिए चुनौती बन सकती है।
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