बिहार में शत्रुघ्न सिन्हा की प्रतिष्ठा तो बचती नज़र आ रही है लेकिन क्रिकेट के धुरंधर कीर्ति आज़ाद की चुनौती बढ़ गयी है। महागठबंधन और राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने पटना साहिब सीट कांग्रेस को सौंप दी है। शत्रुघ्न सिन्हा लोकसभा का पिछला चुनाव पटना साहिब सीट से बीजेपी के टिकट पर जीते थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से अनबन के बाद वह बीजेपी से अलग हो चुके हैं और कांग्रेस में शामिल होने की उनकी पूरी तैयारी है। लेकिन इस सीट पर अनिश्चय के कारण घोषणा रुकी हुई है। शत्रुघ्न के 6 अप्रैल को कांग्रेस में शामिल होने की उम्मीद है।
कीर्ति आज़ाद बीजेपी के टिकट पर दरभंगा से 2014 का चुनाव जीते थे। मोदी-शाह की जोड़ी से नाराज़ होकर उन्होंने भी कांग्रेस का रुख किया। कीर्ति दरभंगा से ही कांग्रेस के टिकट पर फिर चुनाव लड़ना चाहते थे। लेकिन आरजेडी ने उस सीट को अपने पास रख लिया है। कीर्ति के पास दूसरा विकल्प था मधुबनी लेकिन यह सीट भी कांग्रेस के कोटे में नहीं आयी।
कांग्रेस को वाल्मीकिनगर की सीट मिली है। यहाँ ब्राह्मणों की अच्छी संख्या है और यह सीट कीर्ति आज़ाद के लिए माकूल मानी जा रही है। लेकिन कांग्रेस ने अभी इस बारे में कोई घोषणा नहीं की है। एक चर्चा यह भी है कि कांग्रेस आज़ाद को दिल्ली से लड़ाना चाहती है।
कीर्ति आज़ाद के पिता भागवत झा आज़ाद बिहार के मुख्यमंत्री और भागलपुर संसदीय क्षेत्र के सांसद रह चुके हैं। क्रिकेट छोड़कर राजनीति में आने के बाद कीर्ति आज़ाद ने दिल्ली से अपनी राजनीतिक पारी शुरू की।
कांग्रेस के लिए यह राहत की बात है कि अंतत: उसे महागठबंधन में अपनी 9 सीटें बचाने में सफलता मिल गयी। लेकिन आरजेडी का पारिवारिक संकट अभी बना हुआ है।
आरजेडी के सुप्रीमो तेजस्वी यादव के बड़े भाई तेज प्रताप यादव जहानाबाद और शिवहर सीट से अपने दो चहेतों को टिकट नहीं देने पर पार्टी छोड़ने की धमकी दे चुके हैं। इनमें जहानाबाद से पार्टी ने एक अन्य उम्मीदवार को मैदान में उतारने की घोषणा कर दी है।शिवहर से उम्मीदवार के नाम की घोषणा अभी नहीं की गयी है। तेज प्रताप अपने अस्थिर तेवर के लिए मशहूर हैं। तेज प्रताप कुछ महीनों पहले अपनी पत्नी से तलाक लेने की घोषणा करके चर्चा में आए थे। बाद में पार्टी दफ़्तर में अड्डा जमाने को लेकर भी वह ख़बरों में रहे। तेज प्रताप के अस्थिर स्वभाव के कारण ही लालू यादव ने छोटे बेटे तेजस्वी यादव को अपना उत्तराधिकारी बनाने का फ़ैसला किया। तेज प्रताप अक्सर संकेत देते रहते हैं कि वह पिता के फ़ैसले से ख़ुश नहीं हैं।
बिहार में अक्सर चर्चा होती रहती है कि तेज प्रताप भी उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के भाई शिवपाल यादव की तरह बाग़ी हो सकते हैं।
अखिलेश यादव के नेतृत्व से बग़ावत करके शिवपाल अपनी अब अलग पार्टी बना चुके हैं। तेज प्रताप में शिवपाल जैसी राजनीतिक क्षमता, अनुभव और परिपक्वता तो नहीं है लेकिन चुनाव की बेला में तेज प्रताप भी राष्ट्रीय जनता दल की मुश्किलें बढ़ा सकते हैं।
बिहार में महागठबंधन एक मजबूत राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा है। आरजेडी, कांग्रेस, राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी), हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा और विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के साथ-साथ सी.पी.आई (एमएल) को साथ लेकर महागठबंधन ने एक बड़ा जनाधार तैयार कर लिया है।
जातीय समीकरण के आधार पर भी महागठबंधन बीजेपी-नीतीश गठबंधन को चुनौती देने की स्थिति में आ गया है।
उपेन्द्र कुशवाहा (आरएलएसपी) और मुकेश सहनी (वीआईपी) के साथ अति पिछड़ों का एक बड़ा हिस्सा महागठबंधन के क़रीब आया है, जो कभी बीजेपी और नीतीश का धुर समर्थक था। जीतन राम माँझी (हम) अति दलितों के नेता हैं। सीपीआई (एमएल) का बिहार के कई इलाक़ों में अच्छा जनाधार है। इस तरह सामाजिक आधार पर बीजेपी-नीतीश गठबंधन के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गयी है।
बिहार में अति पिछड़ा और अति दलितों की एक धुरी तैयार करके नीतीश ने लालू यादव को चुनौती दी थी। हालाँकि 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी से अलग होने के बाद उनकी यह धुरी कामयाब नहीं रही थी। उपेन्द्र कुशवाहा जैसे लोगों को साथ लेकर बीजेपी ने नीतीश और लालू के गठबंधन को चित कर दिया था।
पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश-लालू की जुगलबंदी को सफलता तो मिली लेकिन सरकार नहीं चल सकी और नीतीश फिर से बीजेपी के ख़ेमे में लौट आए।
इस चुनाव में बीजेपी-नीतीश के साथ रामविलास पासवान मौजूद हैं। नीतीश को ग़ैर यादव पिछड़ों का अजेय नेता माना जाता है। दलितों का सक्षम वर्ग राम विलास पासवान के साथ रहा है। लेकिन कुशवाहा, माँझी और मुकेश सहनी को साथ लेकर आरजेडी और कांग्रेस ने भी चुनौती खड़ी कर दी है।महागठबंधन में सीटों को लेकर फिलहाल कोई विवाद नहीं दिखाई दे रहा है। लेकिन टिकटों को लेकर पार्टियों के भीतर उथल-पुथल जारी है। टिकट नहीं मिलने से नाराज नेताओं के पार्टी छोड़ने का सिलसिला दोनों तरफ़ जारी है। महागठबंधन की सबसे बड़ी कमी रही, उभरते नेता कन्हैया कुमार को अपने ख़ेमे में नहीं ले पाना। महागठबंधन की मदद से कन्हैया कुमार निश्चित तौर पर केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह के लिए चुनौती बन सकते थे।
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