विदेशों में नौकरी करने वाले लोगों के कारण आस-पास के इलाक़ों में तरक्क़ीयाफ्ता और खुशहाल समझे जाने वाले बिहार के कई गाँव आजकल भीषण बेरोज़गारी की गिरफ़्त में हैं। बेगूसराय के 10 हज़ार की आबादी वाले सालेहचक कस्बे में पिछले 6 माह में 500 से अधिक नौजवान अपनी नौकरी गँवाकर वापस घर लौट आए हैं।
इन नौजवानों में आधे ऐसे हैं जो विदेशों में नौकरी करते थे। क़तर से लौटकर आए नौशाद कहते हैं, ‘कंपनी उन्हें पांच माह से सैलरी नहीं दे रही थी। उनके जैसे सैंकड़ों बिहारी और भारतीय श्रमिक वहां फंसे थे। कुछ अभी भी फंसे हुए हैं। बहुत सारे लोग राहत कैंपों में शरण ले रहे हैं।’
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खाड़ी देश क्यों?
सीमित संख्या में उड़ान शुरु होने के बाद लोग अपना पैसा लगाकर वापस आ रहे हैं। उन्हें किराया भी अभी दोगुणा देना पड़ रहा है। गाँव लौटे ऐसे नौजवानों के पास कोई काम नहीं है। इसी ज़िले के तेघरा प्रखण्ड के अरवा गाँव के शाहिद अली, मुन्ना और क़ादिर दुबई के किसी सरकारी दफ़्तर में ठेके पर सफाईकर्मी का काम करते हैं। तीनों युवक ग्रेजुएट हैं और उन्हें मासिक 15 हज़ार रुपये (भारतीय मुद्रा) मिलते हैं। भोजन और आवास का प्रबंध कंपनी की तरफ से है। पांच हजार तक ओवरटाइम भी मिल जाता है। शाहिद अली की माँ शबनम कहती है, ‘आजकल नौकरी कहां किसी को मिलती है। हमारे पास नौकरी के लिए न घूस देने के पैसे थे न किसी की सिफारिश थी। लड़का घर पर रहता तो दोस्तों के साथ मारा-मारा फिरता। अच्छा है बाहर चला गया, कुछ तो कमा रहा है।’दरभंगा जिले के हनुमाननगर प्रखण्ड के दाथ-नर्सरा गाँव के ढेर सारे युवक विदेशों में मज़दूरी करते थे। ईरान में 20 हजार मासिक पर इलेक्ट्रिशियन की नौकरी करने वाले नुरैन हसन लाॅकडाउन में अपनी नौकरी खोकर घर आ गए हैं। अफ़जल, नन्हें, सुमित, मनोज और पंकज की भी दुबई में नौकरी छूट गई है। ये सभी मज़दूर दुबई में मार्बल पत्थर लगाने का काम करते थे। उन्हें भोजन और आवास सुविधा के अलावा 15 हज़ार रुपया मासिक वेतन मिलता था। अब वे सभी दिनभर घर पर खाली बैठे रहते हैं।
दक्षिण अफ़्रीका तक बिहारी
समस्तीपुर के महेशपट्टी गाँव के मुहम्मद क़फील अपने चार दोस्तों राजाराम, सुनील, महेश और कुंदन के साथ दक्षिण अमेरिकी देश गयाना के जॉर्जटाउन शहर के एक शाॅपिंग काॅम्पलैक्स में नौकरी करते हैं। चारों युवक स्नातक के छात्र थे, लेकिन परिवार की आर्थिक तंगी देखकर नौकरी करने विदेश चले गए। उन्हें वहां आवास और भोजन की सुविधा के अतिरिक्त 18 हजार रुपये मासिक मिलते हैं। सामान्य दिनों में गयाना जाने का न्यूनतम किराया 75 हज़ार के आसपास रहता है और यहां प्लेन से पहुंचने में लगभग 36 घंटे का सफर तय करना पड़ता है। क़फील और उसके दोस्तों को गुयाना गए हुए 3 साल से ज्यादा समय बीत गया है।सभी को मई-जून में ही घर आना था, लेकिन लाॅकडाउन के कारण वे नहीं आ पाए। क़फील के पिता सगीर अहमद कहते हैं, ‘उनके लड़के और उसके सभी दोस्तों की नौकरी अभी वहां सुरक्षित है। हालांकि कंपनी हर माह सैलरी नहीं दे पा रही हैं। मगर खाना-पीना सब समय पर मिलता है।’ हालांकि विदेश जाने वाले सभी मज़दूरों की किस्मत अच्छी नहीं होती है। वहां भी कई लोगोें को विकट परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है।
विदेश क्यों?
बिहार से खाड़ी देशों में पलायन की समस्या पर शोध करने वाले डाॅ. मोहम्मद जावेद कहते हैं, ‘विदेशों की तरफ श्रमिकों के पलायन का सबसे महत्वपूर्ण कारण बिहार में रोज़गार का भीषण संकट है।10वीं-12वीं से लेकर ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट और यहां तक कि तकनीकी शिक्षा प्राप्त युवाओं के पास काम नहीं है। दूसरा, कुछ युवाओं को ज्यादा पैसा कमाने का लालच भी उन्हें खाड़ी या अन्य देशों की तरफ नौकरी करने के लिए प्रेरित करता है।
डाॅ. जावेद कहते हैं, ‘पलायन से लाभ और हानि दोनों है। एक ओर जहां पलायन करने वाले मजदूरों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति सुधरती है, वहीं दीर्घावधि तक इसके चलन में रहने से उस वर्ग विशेष की सत्ता और शासन में भागीदारी कम हो जाती है। राजनैतिक रूप से उस वर्ग के हाशिये पर जाने का ख़तरा मंडराने लगता है।’
डाॅ. जावेद लाॅकडाउन के दौरान विकट परिस्थतियों में बाहर से लौटने वाले मज़दूरों का उदाहरण देते हुए कहते है, ‘सरकार और विपक्ष द्वारा उनकी उपेक्षा इसलिए की गई क्योंकि वह किसी दल के स्थाई वोटर नहीं थे।’
सरकारी आँकड़े
विदेश मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार, खाड़ी देशों में लगभग 82 लाख प्रवासी भारतीय रहते हैं जबकि वैश्विक स्तर पर यह आँकड़ा 3 करोड़ 22 लाख तक पहुंच जाता है। प्रोटेक्टोरेट जेनरल ऑफ़ इमिग्रेंट्स के वर्ष 2017 के आंकड़ों के मुताबिक़, खाड़ी देशों में प्रवासी मज़दूर भेजने में पहले स्थान पर रहने वाला केरल अब पीछे हो गया है।कुल प्रवासी मजदूरों का 30 प्रतिशत अकेले उत्तर प्रदेश और 15 प्रतिशत बिहार से है। ये दोनों प्रदेश क्रमशः पहले और दूसरे स्थान पर आ गये हैं। हालांकि पिछले पांच सालों में खाड़ी देशों का रुख करने वाले भारतीय प्रवासियों की संख्या में गिरावट दर्ज की गई है।
कहाँ जाते हैं बिहारी मज़दूर
विदेशों में सामान्यतः तीन तरह के कामगारों की माँग होती है। कुशल, अर्धकुशल और अकुशल श्रमिक। इस समय बिहार से सर्वाधिक पलायन अकुशल और अर्धकुशल श्रमिकों का हो रहा है। वे विदेशों में कंस्ट्रक्शन साइट पर मज़दूरी करते हैं। लाइट और हेवी वेहिकल ड्राइवर, इलेक्ट्रिशियन, प्लंबर, बेल्डर, फिटर, कारपेंटर, एसी मेकैनिक, फैक्ट्री वर्कर, सेल्समैन, पेट्रोल पंप स्टाफ, घरेलू एवं कार्यालय सहायक और सफाई कामगार के तौर पर भारी संख्या में बिहारी मज़दूर खाड़ी व अन्य देशों में नौकरी के लिए हर साल पलायन करते हैं। सर्वाधिक पलायन सउदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, ओमान, क़तर एवं कुवैत जैसे देशों में होता है।भारतीय मजदूर ईरान, इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान जैसे युद्धग्रस्त देशों में जाने से भी पीछे नहीं हटते हैं। इसके अलावा वे दक्षिण अफ्रीकी, लैटिन अमेरिकी और यूरोपीय देशों तक रोज़ी-रोटी कमाने पहुंच रहे हैं। वैशाली के कोआही गांव के ख़ालिद नाइजीरिया में एक अमेरिकी कंपनी में नौकरी करते हैं। उन्हें भोजन और आवास के अलावा 50 हज़ार प्रति माह वेतन मिलता है। ख़ालिद कहते हैं, ‘पैसे तो वह बचा लेते हैं लेकिन वहां पर ख़तरे भी बहुत हैं। वह एक बार वहां के विद्रोही गुटों के हमले में किसी तरह बचे। उन लोगों ने कंपनी के सभी कर्मचारियों के पर्स, मोबाईल और कीमती सामान लूट लिया था।’ खालिद कहते हैं, ‘उनके भेजे पैसे से उनके भाई और बहन अच्छी शिक्षा हासिल कर पा रहे हैं। गांव में एक पक्का मकान बन गया है। यही उनकी उपलब्धि है।’
पैसे और सुविधाएं
दिल्ली में विदेशी फर्मों के लिए कंसल्टैंसी और रिक्रूटमेंट का काम करने वाली एजेंसी स्टार ग्लोबल हंट के बिहार निवासी निदेशक मसूद अहमद कहते हैं, ‘पैसा इस आधार पर तय होता है कि आप किस कंपनी में और किस काम के लिए जा रहे हैं। खाड़ी देशों में अकुशल मज़दूरों को आसानी से 15 से 25 हजार के बीच भारतीय करेंसी मिल जाती है।’वह कहते हैं, बिहार में नौकरी करने पर एक सेल्समैन को मुश्किल से 4 से 6 हज़ार रुपया मिलता है। दिल्ली में यह रकम 6 से 10 या 12 हज़ार हो सकती है। इससे ज़्यादा पैसा आज कोई नहीं दे रहा है, लेकिन इसी काम के लिए खाड़ी या अन्य देशों में 15 से 25 हज़ार आसानी से मिल जाते हैं। इसके अलावा रहना और खाना मुफ़्त में मिलता है। साल-दो साल पर कंपनी घर आने-जाने का टिकट भी देती है। अगर लाॅजिंग और फूडिंग न हो तो ये रकम 25 से 30 हज़ार हो जाती है।
विदेश जाने में कितना होता है खर्च?
दिल्ली स्थित ओवरसीज कंसल्टैंसी फर्म के प्रबंधक राहुल बग्गा कहते हैं, ‘मज़दूरों के विदेश जाने का खर्च कई आधार पर तय होता है। यहां भेजने वाली एजेंसी का रोल महत्वपूर्ण होता है। उसका अपना कमीशन होता है। वह पैसे कम या ज़्यादा ले सकती है। खाड़ी देशों में जाने के लिए 20 हज़ार से लेकर 60 हज़ार रुपये तक मज़दूरों को खर्च करना पड़ सकता है। कई बार कोई पैसा नहीं लगता है। कामगार फ्री में पहुंच जाते हैं। सबकुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है।’कम हो रही मज़दूरी
विदेशों में, ख़ासकर खाड़ी देशों में भारतीय मज़दूरों के लिए बांग्लादेश, पाकिस्तानी, म्यांमर और फ़िलीपिन्स के नागरिक लगातार चुनौती बनते जा रहे हैं। इन देशों के मजदूर भारतीय मजदूरों की अपेक्षा कम पैसे में काम कर लेते हैं। इस वजह से भारतीय प्रवासी मजदूरों को नुक़सान उठाना पड़ रहा है। सउदी अरब और क़तर सहित तमाम देशों में मज़दूरों के लिए न्यूनतम वेतन क़ानून लागू है। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय लेबर ऑर्गनाइजेशन की शर्तों से बंधे खाड़ी देशों में भी श्रमिकों की न्यूनतम मज़दूरी तय है। इसके बावजूद कंपनियां और ठेकेदार कम पैसे देकर श्रमिकों का शोषण करते हैं।सऊदी अरब में अभी भी मज़दूरों को भोजन और आवास के साथ 800 से 1,000 रियाल वेतन दिया जाता है। इसके बावजूद भूख और बेकारी से त्रस्त भारतीय मज़दूर इतने कम पैसे पर काम करने को तैयार रहते हैं।
कई बार उनके साथ ठगी और धोखाधड़ी भी हो जाती है। समस्तीपुर के रेलवे काॅलोनी निवासी जावेद आलम को एक एजेंट ने भोजन और आवास के साथ मासिक 36,000 भारतीय मुद्रा देने का वादा कर सऊदी अरब भेजा था। एजेंट ने इसके लिए 80 हज़ार रुपये भी वसूले थे। इंदौर में 14 हज़ार मासिक कमाने वाले जावेद को ये फायदे का सौदा लगा और वह सऊदी अरब चले गए। लेकिन वहाँ जाने के बाद उन्हें पता चला कि वह ठगी के शिकार हो गए हैं। उन्हें आवास और भोजन नहीं दिया गया, सिर्फ 15,000 रुपये दिए गए और सेल्समैन के बजाए ऑफिस बाॅय का काम सौंपा गया। आलम साल भर में ही वापस आ गए। उनके सऊदी जाने का कर्ज आज भी चुकता नहीं हुआ है। विदेश की कमाई से उन्होंने सिर्फ 10 हज़ार का एक मोबाइल और पत्नी और बच्चों के लिए दो जोड़ी कपड़े जोड़ पाए।
रिवर्स पलायन से होगा नुक़सान
विदेशों से प्रवासी मज़दूरों की वापसी पर महात्मा गांधी सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ़ बिहार, मोतिहारी के सहायक प्राध्यापक डाॅ. संजय कुमार कहते हैं, ‘बिहार में मजदूरों के विदेशों में पलायन से उनकी सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थितियों में काफी सुधार और बदलाव आया है। हालांकि वे ग़रीबी के दुष्चक्र से बाहर तो निकल गए हैं, लेकिन अभी वह विकास के दीर्घकालिक अवस्था में नहीं पहुंचे हैं। अगर विदेशों में उनकी नौकरी जाती है तो उनकी हालत फिर से ख़राब हो जाएगी। जो मज़दूर अभी बाहर से आ रहे हैं अगर उन्हें किसी रोज़गार में नहीं खपाया गया तो प्रदेश की अर्थव्यवस्था के साथ ही सामाजिक और आर्थिक विषमता को दूर करने के प्रक्रिया धीमी पड़ जाएगी।’मौजूदा विधानसभा चुनाव में बेरोज़गारी और पलायन का मुद्दा अहम बना हुआ है। महागठबंधन के घटक दल राजद के तेजस्वी यादव 15 सालों से बिहार में शासन कर रहे नीतीश सरकार के विकास के दावों पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं, ‘पटना एयरपोर्ट पर विदेश जाने वाले मज़दूरों की भीड़ विकास की पोल खोल रही है। रही सही कसर पंजाब और हरियाणा से बसें लेकर बिहारी मजदूरों को लेने आने वाले ठेकेदार भी पूरी कर दे रहे हैं।’ सवाल यह है कि क्या बेरोज़गारी का यह मुद्दा रंग लायेगा ?
(यह ख़बर सत्य हिन्दी के पाठक ने भेजी।)
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